शनिवार, 18 फ़रवरी 2017

संध्या(प्रातःकालीन और सांयकालीन)

संध्या(प्रातःकालीन और सांयकालीन) - भाग १

वेद के अनुसार हमारे ऋषियों ने कहा है कि हमें प्रातः व सांय संध्या करनी चाहिए। एक दिन में दो बार संध्या की जाती है। महर्षि दयानंद जी ने जो संध्या के २१ मन्त्र बताये हैं ये वे ही मन्त्र हैं जो की आदि ब्रह्मा जी ने अपने शिष्यों को दिए थे।  यह आश्चर्यजनक परंतु सत्य है। 

जैसा कि आदि गुरु ब्रह्मा ने कहा है वास्तव में प्रत्येक वेद मन्त्र अनेक अर्थ रखता है। लेकिन जैसा हमें स्वामी दयानंद सरस्वती के वेद भाष्य में देखने को मिलता है। हम सामान्यतः वेद मन्त्र का एक ही अर्थ पाते हैं।   यद्यपि कुछ मन्त्रों का दो दृष्टियों से भी अर्थ देखने को मिलता है - आध्यात्मिक और सांसारिक. वास्तव में वेद मन्त्रों को समझने के लिए एक महान गुरु की आवश्यकता है। आजकल इस प्रकार के गुरु संसार में उपलब्ध नहीं हैं। यद्यपि गहन खोज करने पर कोई छुपा हुआ गुरु इस प्रकार का मिलना संभव तो है।  अब मैं आप को वैदिक संध्या के मन्त्रों की व्याख्या बताता हूँ। इस समय मैं निम्नलिखित मन्त्र ले रहा हूँ जो कि ब्रह्माण्ड की रचना पर आधारित हैं-
ॐ ऋतं च सत्यन्चाभि द्धातापसो अध्यजायत ततो रात्र्य जायत ततः समुद्रो अर्णवः
।।6।।
वेदों के प्रकाशक परमात्मा ने अपनी अनंत सामर्थ्य के कुछ भाग से कारण रूप प्रकृति से कार्य रूप जगत की रचना की और अपने सहज स्वभाव से जल कोष की रचना की ।
ॐ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत अहोरात्रणि विदधद्विशस्य मिषतोवशी।।7।।
समुद्र रचना के पश्चात प्रभु ने ऐसी गति को उत्पन्न किया कि जिससे कि दिन रात और संवत्सर के बारह महीने उत्पन्न होते हैं।
ॐ सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्  दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथौ स्वः.।8।।

पूर्व कल्प कि भांति प्रभु ने इस कल्प में भी सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, द्यौ और पृथ्वी आदि को रचा।
इस प्रकार में मैंने आपको बताया कि कैसे इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई. ये मन्त्र संध्या के मुख्य अंग हैं.

जिसमें हम सृष्टि रचना के विषय में नियमित रूप से विचार किया करते हैं।



संध्या(प्रातःकालीन और सांयकालीन) - भाग २ 


जो वेद को पढता रहे और उसके अनुसार आचरण न करे ऐसे आचारहीन पुरुष को वेद भी पवित्र नहीं करते. चाहे उसने वेदों क ६ अंगों सहित भी पढ़ा हो। ऐसे अनाचारी मनुष्य को वेद ज्ञान मृत्यु के समय इस प्रकार छोड़ देता है जैसे कि पक्षी पंख निकलने पर अपने प्रिय घोंसले को त्याग देता है।
अतः हमें अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर की सत्ता, धर्म, पुनर्जन्म तथा कर्म फलादि के प्रति अपनी आस्था रखते हुए वेदानुकूल आचरण धारण करते हुए सदाचारी जीवन व्यतीत करना ही इस मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।
परमात्मा का रचाया हुआ ज्ञान और विज्ञान वेद मन्त्र में निहित रहता है परन्तु परमात्मा का जो विशाल विज्ञान है अथवा ज्ञान है उसकी रचना का नृत है। उसके लिए मानव सदैव विचरता रहता है। संध्या का अभिप्राय है कि हम परमपिता परमात्मा के ब्रह्ममई विचारों में, उसकी उपासना में रत हो जाएँ  और उपासना करते रहें कि हे देव! तू महान और विचित्र बन कर के हमारे अंग संग रहने वाला है।

 (मनसा परिक्रमा मन्त्र)
अब मैं संध्या के ६ मन्त्रों की व्याख्या लिख रहा हूँ।

ॐ प्राची दिगग्निरधिपतिरासितो रक्षितादित्या इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।9

हे सर्वज्ञ परमेश्वर! आप हमारे सम्मुख पूर्व दिशा की ओर विद्यमान हैं. स्वतंत्र राजा और हमारी रक्षा करने वाले हैं. अपने सूर्या को रचा है जिसकी बाण रुपी किरणों द्वारा पृथ्वी पर जीवन रुपी साधन आता है. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु पूर्व दिशा में विद्यमान अग्नि रूप कहलाते हैं।

ॐ दक्षिणा दिगिन्द्रोSधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्योनम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.।10
हे परम ऐश्वर्यवान भगवन! आप हमारे दक्षिण दिशा की और व्यापक हैं. आप हमारे राजाधिराज और भुजंग आदि  बिना हड्डी वाले जंतुओं की जो पंक्ति है उनसे हमारी रक्षा करते हैं. और ज्ञानियों के द्वारा हमें ज्ञान प्रदान कराते हैं. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु दक्षिण दिशा में विद्यमान होकर इंद्र कहलाते हैं।
ॐ प्रतीची दिग्वरुणोSधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।11
हे सौंदर्य के भण्डार! आप पश्चिम दिशा की और हैं. हमारे महाराज हैं, बड़े बड़े हड्डी वाले और विषधारी जंतुओं से हमारी रक्षा करते हैं. और अन्नादि साधनों के द्वारा हमारे जीवन कि रक्षा करते हैं. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु पश्चिम दिशा में विद्यमान होकर हमें भोजन, अन्नादि पदार्थों के देने वाले हैं इसलिए वरुण कहलाते हैं।
ॐ उदीची दिक् सोमोSधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.।12
हे पिता! आप हमारे बायीं उत्तर दिशा की ओर व्यापक और हमारे और हमारे परम ऐश्वर्य युक्त स्वामी हैं. आप स्वयंभू और रक्षक हैं. आप ही विद्युत् द्वारा समस्त संसार के लोक लोकान्तरों की गति तथा संसार के प्राणी मात्र में रमण कर रुधिर को गति प्रदान कर प्राणों की रक्षा कराते हैं.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा हमारे उत्तर में विद्यमान होकर हमें ज्ञान के देने वाले हैं अतः सोम कहलाते हैं।  
ॐ ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता विरूध इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्योनम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।13
हे सर्व व्यापक प्रभो आप नीचे की दिशा के देशों में विद्यमान जगत के स्वामी हैं. आप हरित रंग वाले वृक्षादी और बेलों के साधन द्वारा हमारे प्राणों की रक्षा करते हैं.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा नीचे की और विद्यमान हो , नम्र होकर हमारा पालन करने वाले हैं अतः विष्णु कहलाते हैं। 
ॐ ऊर्ध्वा दिग बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।14
हे महान प्रभो! आप ऊपर की दिशा की ओर के लोकों में व्यापक पवित्रात्मा, हमारे स्वामी और रक्षक हैं. आप वर्षा करके हमारी कृषि को सींचते हैं. जिससे हमारे जीवन का साधन खाद्यान्न उत्पन्न होता है.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा हमारे ऊपर की और विद्यमान होकर गुरुओ के भी गुरु परमगुरु हैं अतः बृहस्पति कहलाते हैं। 



यह वह संध्या है जिससे ऋषि बन जाते हैं, जिससे देवता बन जाते हैं, विष्णु बन जाते हैं, शिव बन जाते हैं।  यह वह संध्या है जिसके प्रभाव से मानव भगवान राम और भगवान कृष्ण के जैसा हो जाता है।

अतः मित्रों नित्य प्रातः संध्या अवश्य करनी चाहिए।  इस संध्या में कुल २१ मन्त्र होते हैं।


आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

1 टिप्पणी:

  1. अनुभव जी सादर नमस्ते 🙏
    आपके द्वारा जो मंत्रों का अर्थ दिया गया है वो बहुत ही अच्छा है l ऐसा अन्य कहीं नहीं मिला l धन्यवाद l
    आप कहाँ रहते हैं? कृपया अपना फ़ोन या ईमेल दें ताकि आपसे व्यवहार संभव हो सके 🙏🙏
    रेनू रुस्तगी
    9022928633
    दिल्ली

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