गुरुवार, 13 जनवरी 2011

संध्या तृतीय

संध्या वह समय है जब दिन और रात्रि का मिलान होता है. यह दिन में दो बार आती है।
अब इस तृतीय भाग में मैं आपको यजुर्वेद के चार मन्त्रों की व्याख्या बता रहा हूँ. इन मन्त्रों की सहायता से हम परमात्मा के साथ निकटता का अनुभव करते हैं इसी कारण इन मन्त्रों को उपस्थान मन्त्र कहते हैं.
उपस्थान मन्त्र
ॐ उद्वयं तमसस्परि  स्वः पश्यंत उत्तरं. देवं देवत्रा सूर्यमगन्म ज्योतिरुत्तमम् ।15
हे प्रभो आप अज्ञान और अंधकार से परे प्रकाश स्वरुप प्रलय के पश्चात् रहने वाले दिव्य गुणों के साथ सर्वत्र विद्यमान देव चराचर के आत्मा हैं. आपको जानकार हम आपके उत्तम ज्योति स्वरुप को सत्य से प्राप्त होवें।
ॐ उदुत्यम्  जातवेदसं देवं वहन्ति केतवः दृशे विश्वाय सूय् र्यम् ।16
हे जगदीश्वर! उस आप सकल एश्वर्य के उत्पादक जीव आत्मा के प्रकाश हैं. आपकी दिव्यगुण युक्त महिमा को दिखाने के लिए संसार के समस्त पदार्थ पताका का कार्य करते हैं. जिस प्रकार झंडियाँ मार्ग दिखाती हैं. उसी प्रकार सृष्टि नियम, वेद श्रुति निश्चय से भली प्रकार जनाते हैं, प्रतीति कराते हैं.
ॐ चित्रं देवानामुद्गादनीकम्  चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्ने: आ प्रा द्यावा पृथ्वी अन्तरिक्षम्  सूर्य आत्मा जगतस्तस्  थुशश्च स्वाहा।17
हे स्वामिन आप विद्वानों और योगाभ्यासियों के ह्रदय में सदा प्रकाशित रहने वाले हैं. आप हमारे हृदयों में यथावत प्रकाशित रहें. आप दिव्य पदार्थों के बल हैं. इसलिए राग द्वेष रहित मनुष्य का, सूर्य लोक का, प्राण का वर अर्थात श्रेष्ठ गुण कर्मों में वर्तमान का, अपान का, व्यान का, अग्नि का, विद्या का  दर्शक अथवा प्रकाशक है. द्योलोक, पृथ्वी लोक, अंतरिक्ष लोकों को बना के धारण और रक्षण करने वाले हैं. भगवन! आप चेतन जगत और जड़ जगत के उत्पादक और अंतर्यामी हैं. हे प्रभो! वेद वाणी ने स्वः(स्व वागाह इति व) ऐसा कहा है. हम मन, वचन और कर्म से सत्य को धारण करें.
हे प्रभु आप अदृश्य चेतना हैं, आप सभी लोक लोकांतरों के स्वामी हैं।   आपकी स्तुति, प्रार्थना व उपासना के बिना हम कभी भी धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त नहीं हो सकते अतः हे प्रभु आप हमें अपनी स्तुति प्रार्थना और उपासना के मार्ग पर चलाईये।  ऐसी हम पर कृपा कीजिये।
ॐ तच्चक्षुर्देवहितं पुरास्ताच्छुक्रमुच्चरत पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं शृणुयाम् शरदः शतं प्रबवाम शरदः शतं अदीनाः  स्याम शरदः शतं भूयश्च शरदः शतात् ।।18
हे भगवन! आप नेत्र के तुल्य सब के दृश्य अनादि काल से विद्वानों और संसार के हितार्थ शुद्ध ज्योति रूप वर्तमान हैं. आप चेतन ब्रह्म को हम सौ शरद ऋतु पर्यंत देखें, सौ शरद ऋतु पर्यंत जीवें, सौ शरद ऋतु पर्यंत वेद, शास्त्र और मंगल वचनों को सुनें, सौ शरद ऋतु पर्यंत वेदादि पढावें और सत्य का व्याख्यान करें, सौ शरद ऋतु पर्यंत आयु भर पराधीन न हों।  यदि सौ शरद ऋतुओं से भी अधिक आयु हो तो इसी प्रकार विचरें।


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अगली पोस्ट में फिर मिलते हैं.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

मंगलवार, 11 जनवरी 2011

संध्या द्वितीय

जो वेद को पढता रहे और उसके अनुसार आचरण न करे ऐसे आचारहीन पुरुष को वेद भी पवित्र नहीं करते. चाहे उसने वेदों क ६ अंगों सहित भी पढ़ा हो. ऐसे अनाचारी मनुष्य को वेद ज्ञान मृत्यु के समय इस प्रकार छोड़ देता है जैसे कि पक्षी पंख निकलने पर अपने प्रिय घोंसले को त्याग देता है.
अतः हमें अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि परमेश्वर की सत्ता, धर्म, पुनर्जन्म तथा कर्म फलादि के प्रति अपनी आस्था रखते हुए वेदानुकूल आचरण धारण करते हुए सदाचारी जीवन व्यतीत करना ही इस मानव जीवन का एक मात्र उद्देश्य है।
परमात्मा का रचाया हुआ ज्ञान और विज्ञान वेद मन्त्र में निहित रहता है परन्तु परमात्मा का जो विशाल विज्ञान है अथवा ज्ञान है उसकी रचना का नृत है, उसके लिए मानव सदैव विचरता रहता है. संध्या का अभिप्राय है कि हम परमपिता परमात्मा के ब्रह्ममई विचारों में, उसकी उपासना में रत हो जाएँ  और उपासना करते रहें कि हे देव! तू महान और विचित्र बन कर के हमारे अंग संग रहने वाला है।
(मनसा परिक्रमा मन्त्र)
अब मैं संध्या के ६ मन्त्रों की व्याख्या लिख रहा हूँ।

ॐ प्राची दिगग्निरधिपतिरासितो रक्षितादित्या इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।।9

हे सर्वज्ञ परमेश्वर! आप हमारे सम्मुख पूर्व दिशा की ओर विद्यमान हैं. स्वतंत्र राजा और हमारी रक्षा करने वाले हैं. अपने सूर्या को रचा है जिसकी बाण रुपी किरणों द्वारा पृथ्वी पर जीवन रुपी साधन आता है. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु पूर्व दिशा में विद्यमान अग्नि रूप कहलाते हैं।

ॐ दक्षिणा दिगिन्द्रोSधिपतिस्तिरश्चिराजी रक्षिता पितर इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्योनम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.।10
हे परम ऐश्वर्यवान भगवन! आप हमारे दक्षिण दिशा की और व्यापक हैं. आप हमारे राजाधिराज और भुजंग आदि  बिना हड्डी वाले जंतुओं की जो पंक्ति है उनसे हमारी रक्षा करते हैं. और ज्ञानियों के द्वारा हमें ज्ञान प्रदान कराते हैं. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु दक्षिण दिशा में विद्यमान होकर इंद्र कहलाते हैं।
ॐ प्रतीची दिग्वरुणोSधिपतिः पृदाकू रक्षितान्नमिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः।11
हे सौंदर्य के भण्डार! आप पश्चिम दिशा की और हैं. हमारे महाराज हैं, बड़े बड़े हड्डी वाले और विषधारी जंतुओं से हमारी रक्षा करते हैं. और अन्नादि साधनों के द्वारा हमारे जीवन कि रक्षा करते हैं. आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  प्रभु पश्चिम दिशा में विद्यमान होकर हमें भोजन, अन्नादि पदार्थों के देने वाले हैं इसलिए वरुण कहलाते हैं।
ॐ उदीची दिक् सोमोSधिपतिः स्वजो रक्षिताशनिरिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः.।12
हे पिता! आप हमारे बायीं उत्तर दिशा की ओर व्यापक और हमारे और हमारे परम ऐश्वर्य युक्त स्वामी हैं. आप स्वयंभू और रक्षक हैं. आप ही विद्युत् द्वारा समस्त संसार के लोक लोकान्तरों की गति तथा संसार के प्राणी मात्र में रमण कर रुधिर को गति प्रदान कर प्राणों की रक्षा कराते हैं.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा हमारे उत्तर में विद्यमान होकर हमें ज्ञान के देने वाले हैं अतः सोम कहलाते हैं।  
ॐ ध्रुवा दिग्विष्णुरधिपतिः कल्माषग्रीवो रक्षिता विरूध इषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्योनम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।13
हे सर्व व्यापक प्रभो आप नीचे की दिशा के देशों में विद्यमान जगत के स्वामी हैं. आप हरित रंग वाले वृक्षादी और बेलों के साधन द्वारा हमारे प्राणों की रक्षा करते हैं.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा नीचे की और विद्यमान हो , नम्र होकर हमारा पालन करने वाले हैं अतः विष्णु कहलाते हैं। 
ॐ ऊर्ध्वा दिग बृहस्पतिरधिपतिः श्वित्रो रक्षिता वर्षमिषवः. तेभ्यो नमोSपतिभ्यो नमो रक्षितृभ्यो नम इषुभ्यो नम एभ्यो अस्तु. यो३अस्मान द्वेष्टि यं वयं द्विष्मस्तं वो जम्भे दध्मः ।14
हे महान प्रभो! आप ऊपर की दिशा की ओर के लोकों में व्यापक पवित्रात्मा, हमारे स्वामी और रक्षक हैं. आप वर्षा करके हमारी कृषि को सींचते हैं. जिससे हमारे जीवन का साधन खाद्यान्न उत्पन्न होता है.  आपके उन अधिपत्य, रक्षा और इन जीवन रुपी प्रदान के लिए प्रभो! आपको बारम्बार नमस्कार है. जो अज्ञान वश हमसे द्वेष करता है अथवा जिससे हम द्वेष करते हैं, उसे आपके न्याय रुपी सामर्थ्य पर छोड़ देते हैं।  परमात्मा हमारे ऊपर की और विद्यमान होकर गुरुओ के भी गुरु परमगुरु हैं अतः बृहस्पति कहलाते हैं।  

संध्या का तीसरा भाग यहाँ पढ़ें

संध्या के शेष भाग के साथ अगली पोस्ट में फिर मिलते हैं।

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

रविवार, 9 जनवरी 2011

संध्या(प्रातःकालीन और सांयकालीन)

वेद के अनुसार हमारे ऋषियों ने कहा है कि हमें प्रातः व सांय संध्या करनी चाहिए. एक दिन में दो बार संध्या की जाती है। 

जैसा कि आदि गुरु ब्रह्मा ने कहा है वास्तव में प्रत्येक वेद मन्त्र अनेक अर्थ रखता है. लेकिन जैसा हमें स्वामी दयानंद सरस्वती के वेद भाष्य में देखने को मिलता है, हम सामान्यतः वेद मन्त्र का एक ही अर्थ पाते हैं।   यद्यपि कुछ मन्त्रों का दो दृष्टियों से भी अर्थ देखने को मिलता है - आध्यात्मिक और सांसारिक. वास्तव में वेद मन्त्रों को समझने के लिए एक महान गुरु की आवश्यकता है. आजकल इस प्रकार के गुरु संसार में उपलब्ध नहीं हैं. यद्यपि गहन खोज करने पर कोई छुपा हुआ गुरु इस प्रकार का मिलना संभव तो है।  अब मैं आप को वैदिक संध्या के मन्त्रों की व्याख्या बताता हूँ. इस समय मैं निम्नलिखित मन्त्र ले रहा हूँ जो कि ब्रह्माण्ड की रचना पर आधारित हैं-
ॐ ऋतं च सत्यन्चाभि द्धातापसो अध्यजायत ततो रात्र्य जायत ततः समुद्रो अर्णवः
।।6।।
वेदों के प्रकाशक परमात्मा ने अपनी अनंत सामर्थ्य के कुछ भाग से कारण रूप प्रकृति से कार्य रूप जगत की रचना की और अपने सहज स्वभाव से जल कोष की रचना की ।
ॐ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत अहोरात्रणि विदधद्विशस्य मिषतोवशी।।7।।
समुद्र रचना के पश्चात प्रभु ने ऐसी गति को उत्पन्न किया कि जिससे कि दिन रात और संवत्सर के बारह महीने उत्पन्न होते हैं।
ॐ सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्  दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथौ स्वः.।8।।

पूर्व कल्प कि भांति प्रभु ने इस कल्प में भी सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, द्यौ और पृथ्वी आदि को रचा।

इस संध्या के शेष भाग हिस्सों के रूप में मैं अगली पोस्टों में प्रकाशित करूंगा।
इस पोस्ट में मैंने आपको बताया कि कैसे इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई. ये मन्त्र संध्या के मुख्य अंग हैं. जिसमें हम सृष्टि रचना के विषय में नियमित रूप से विचार किया करते हैं।

संध्या का दूसरा भाग यहां पढ़ें

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

शनिवार, 8 जनवरी 2011

अतिथि देवो भव

जब एक मानव बिना किसी पूर्व सूचना के आता है तो उसको अतिथि कहते हैं. और हमारे साहित्य में अतिथि को देवता कहते हैं. एक अतिथि जो अध्यात्मिक ज्ञान से युक्त, सत्यवादी, सबका हित चाहने वाला, विद्वान व योगी हो, जब हमारे घर आये तो हमें उसका मधुर वाणी, भोजन और उसकी पसंद के विभिन्न पदार्थों से सत्कार करना चाहिए. हमें इन पदार्थों से उसे प्रसन्न करना चाहिए. उसके पश्चात हमें उससे वार्तालाप करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए. और उसके उपदेश के अनुसार हमें अपने आचरण और कर्मों को बनाना चाहिए. एक राजा और अन्य गृहस्थी भी इस प्रकार के सत्कार प्राप्त करने योग्य होता है. एक अतिथि देवता कहलाता है. (देवता उसे कहते हैं जो कुछ दिया करता है) क्योंकि वह हमारे घर पर आने के पश्चात हमें प्रसन्नता, तरह तरह का ज्ञान व विभिन्न पदार्थ आदि दिया करता है इसलिए हम उसे देवता कहते हैं.
अब हमें अच्छी प्रकार समझ लेना चाहिए कि हरेक अतिथि देवता नहीं होता. वह आदमी जो कुतर्की हो, सत्य ज्ञान का खंडन करने वाला हो, जिसका व्यवहार वेद और संविधान के अनुकूल न हो, झूंठा, जो बिल्ली की भांति हो जो कि अपना पेट भरने के लिए दांव लगाकर झट से चूहे को पकड़ लेती है, सत्कार पाने योग्य नहीं होते. हमें उनका अपनी वाणी मात्र से भी सत्कार नहीं करना चाहिए. हमें उन्हें कुछ भी नहीं देना चाहिए. और न ही उनसे मधुर वचन बोलने उचित हैं. क्योंकि अगर हम उनकी सेवा करते हैं और सोचते हैं कि वह अतिथि देव है तो हम अपनी उन्नति उसके बुरे जीवन से प्रभावित होकर खो सकते हैं. ये लोग उलटे कार्य किया करते हैं और अन्य लोगों को भी यहीं प्रेरणा दिया करते हैं. इसलिए इस तरह के लोग सत्कार प्राप्त करने के योग्य नहीं होते हैं. ऐसे लोग पाखंडी कहलाते हैं. हमें निम्नलिखित श्लोक को देखना चाहिए जो कि मनु स्मृति से लिया गया है. -
पाखंडिनो विक्रमस्थान वैडाल वृत्तिकान शठान. हेतुकान वाक़ वृत्तींश्च वान्ग मात्रेणपि नार्चयेत..

वास्तव में जिनका सत्कार नहीं किया जाता उनको कटु शब्द भी नहीं बोलने चाहिएं क्योंकि यदि हम उनपर क्रोध करते हैं तो उनका भविष्य में सुधार संभव नहीं है. इसलिए हमें मीठे शब्द ही हर किसी से बोलने चाहिएं. इसलिए ऐसा कहा है - 'समय के अनुकूल कर्म करना चाहिए' भगवान कृष्ण ने यह वाक्य अपने जीवन में सत्य कर के दिखाया है.

अब जब हम दूसरा पहलू देखते हैं तो हम समझ जाते हैं कि सेवा कभी व्यर्थ नहीं जाती. और स्त्रियों का तो यह बल भी है. अब मैं भगवान मनु महाराज जो हमारे सर्व प्रथम राजा थे, के बारे में एक कहानी लिख रहा हूँ-

एक बार राजा मनु प्रातः काल नदी में स्नान करने गए. जब उन्होंने स्नान के लिए अपना पात्र नदी में डुबाया तो जल के साथ एक मछली(बच्चा मछली) पात्र में आ गयी. मनु ने उसे देखा. वह अन्य बड़ी मछलिओं से काफी डरी हुई थी. उसने मनु से उन बड़ी मछलिओं से रक्षा करने की प्रार्थना की. उसने कहा कि वे उसे निगल जाएँगी (वास्तव में मनु एक योगी भी थे. और योगी अन्य जीवों की भाषा समझ सकता है. आयुर्वेद में ऐसी औषधियां भी हैं जिनके सेवन से अन्य प्राणियों की भाषा समझ में आने लगती है) अब मनु उसको अपने महल में ले गए. और उसके लिए तालाब बनाया. उसमें स्वच्छ जल भरवा कर उसे उसमें छोड़ दिया. कुछ समय पश्चात जब वह प्रबल और पर्याप्त बड़ी हो गयी तो उसको फिर से नदी में छुडवा दिया. जब वह समुद्र की और जा रही थी तो उसने भगवान मनु से कहा "हे राजन! आप बहुत दयालु राजा हो. जब आप को आवश्यकता होगी तब मैं भी आपकी सहायता अवश्य करूंगी. और उसने भविष्य वाणी की कि कुछ समय पश्चात जल प्लवन आयेगा. और सारी पृथ्वी जल मग्न हो जाएगी. तब मैं आप के पास आऊंगी . और मैं भी आपका जीवन इसी प्रकार बचाऊँगी जैसे आपने मेरी रक्षा की है. कुछ वर्ष बाद जल प्लवन आया. जैसा कि मछली ने वायदा किया था वह मनु के पास आ गयी. मनु ने अपने और अन्य कुछ जीवों के लिए एक बड़ी नौका तैयार कर रखी थी. उस समय पृथ्वी पर कहीं भी स्थल शेष न रहा. सिर्फ पर्वत ही शरणस्थल बन सकते थे. अब तक वह मछली बहुत बड़ी हो गयी थी. वह मनु के जहाज को ऊँची पहाड़ियों पर ले गयी. और मनु और उसके साथियों की रक्षा की. मनु जी ने कहा है, "आज तुम दूसरों की रक्षा करो, वे तुम्हारी बुरे समय में अवश्य ही रक्षा करेंगे." इसलिए हर आदमी को हर किसी की रक्षा करनी चाहिए. हम नहीं जानते कि कौन हमारे बुरे समय में हमारी सहायता करेगा.
इसी प्रकार सेवा करने से मानव का बल बढ़ता है. हम जो भी कार्य करते हैं वह निष्फल नहीं जाता. इसलिए हमें कुछ न कुछ धनात्मक करना ही चाहिए. और अपना समय व्यर्थ नष्ट नहीं करना चाहिए.
कुछ दुष्ट लोगों दो छोड़ कर हमें सभी से मधुर वचन बोलने चाहिएं.

मैंने उर्दू साहित्य भी पढ़ा है. इसमें लगभग यहीं कहानी कुछ अंतर के साथ पाई जाती है. इस साहित्य में यह कहानी 'नूह की कश्ती' नाम से पाई जाती है.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

योग का चमत्कार: कृष्ण द्वारा

जैसा कि आप जानते हैं कि हमारे धर्म में बहुत से देवताओं की पूजा होती है. मेरे ज्ञान के अनुसार केवल एक ही महाशक्ति परमात्मा नाम की होती है. और अन्य इतनी अधिक विलक्षण आत्माएं होती हैं जो कि संसार में अपने महान कर्मों से देवता कहलाई जाती हैं. और भगवान के नाम से संसार इन्हें पुकारता है.
सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी प्रभु तो केवल एक ही है. और मैं उसकी उसी प्रकार पूजा करता हूँ जैसे कि उन महान ज्ञानवान जिनकी आत्मा इतनी पवित्र और बलवान थी और उन्हें भगवान ने ऐसे चमत्कारिक गुणों को दिया था कि उनको भी भगवान नाम से जाना जाता है संसार में, ने की थी.
राम, कृष्ण, शिव और हनुमान आदि उस के इतने इतने निकट थे कि उसने उनको बहुत सी शक्तियां प्रदान की थीं. जो शक्तियां साधारण मानव के द्वारा प्राप्त करना संभव नहीं है. राम और कृष्ण की आत्माएं वह थीं जो कि मुक्ति के बिलकुल निकट की  थीं. उन्होंने संसार की  स्थिति सुधारने  के लिए ही जन्म धारण किया था. आप को यह जानकार बहुत आश्चर्य होगा कि हमारी इस सृष्टि के प्रथम मनु ने ही भगवान कृष्ण के रूप में जन्म लिया था. 
वास्तव में कृष्ण जी दो प्रकार के योग में पारंगत थे. पहला तो वहीं  महान पवित्र योग और द्वितीय भृष्ट योग. प्रथम योग के द्वारा जो कि पूर्ण सत्य पर आधारित होता है, भगवान कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को विराट रूप दिखाया था. यह रूप कोई भी महान योगी दिखा सकता है. जिसमें वह अपने शरीर में ही पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन करा देता है. 
अब मैं भृष्ट योग के प्रयोग से सम्बंधित एक कथानक प्रस्तुत कर रहा हूँ. जो हमारे धर्म ग्रंथों में मिलता है. और बिलकुल सत्य है.
एक बार पांडवों के वनवास के काल में माता द्रोपदी को एक बटलोही प्राप्त हुई(यह विज्ञान ही की खोज थी. यह उन्होंने एक ऋषि से प्राप्त की थी) [वास्तव में ऋषि वे पवित्र लोग होते हैं जो अध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही विज्ञानों में पारंगत होते हैं.] इस बटलोही की यह विशेषता थी कि उसमें तब तक भोजन बनना बंद नहीं होता था जब तक द्रोपदी स्वयं भोजन न कर ले . इस बटलोही की सहायता से युधिष्ठिर वनों में ही महान यज्ञ कर रहे थे. जहाँ बहुत से ऋषि मुनि व साधू भोजन करने और उनको दर्शन देने के लिए नित्य आया करते थे. जब दुर्योधन को इस यज्ञ के बारे में पता चला कि युधिष्ठिर साधुओं की भोजन के द्वारा सेवा किया करता है तो उसने विचारा  कि यह कैसे संभव है और ईर्ष्या से भर गया.  उसने अपने मन में एक योजना बनाई  और दुर्वासा मुनि को आमंत्रित किया जो कि अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे. इस गुण की वजह से वह बहुधा लोगों को श्राप दे दिया करते थे. उसने दुर्वासा का बहुत उच्च रीति से स्वागत किया. उनको बहुत अधिक सम्मान व विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने के पश्चात उसने उनसे एक वर माँगा. इतना अधिक सत्कार पाने के कारण ऋषि ने उसे एक वर दे दिया. और कहा वह जो चाहे मांग सकता है. अब दुर्योधन को युधिष्ठिर का यज्ञ भंग करने का मौक़ा मिल गया. उसने दुर्वासा से युधिष्ठिर के यज्ञ में जाने की प्रार्थना की. और कहा कि आप कृपा करके उन्हें श्राप दे दें. क्योंकि दुर्वासा ऋषि ने पहले ही उसको वचन दे दिया था इसलिए उन्हें उसको यह वरदान देना पड़ा.
अब, अपने शिष्य मंडल के साथ, दुर्वासा युधिष्ठिर के यज्ञ को देखने गया. रास्ते में वह कुछ साधुओं से मिला जो उस यज्ञ से भोजन व सत्कार प्राप्त करके लौट रहे थे. दुर्वासा ने साधुओं से भोजन का प्रबंध करने के स्रोत के विषय में पूछा. उन्होंने बताया कि द्रोपदी के पास एक ऐसा चमत्कारिक पात्र है कि जिसमें जब तक वह स्वयं भोजन नहीं कर लेतीं भोजन समाप्त नहीं होता. दुर्वासा ने पांडवों को श्राप देने की एक योजना बनाई. उसने योग के द्वारा जान लिया कि अब द्रोपदी ने भोजन कर लिया है और पांडव अब भोजन का प्रबंध नहीं कर पाएंगे यदि वह अचानक वहां पहुँच जाए. अब, वह अपने शिष्यों के साथ वहां पहुंचा  जहाँ द्रोपदी अकेली ही थी क्योंकि किसी कारण वश पांडव कहीं बाहर चले गए थे. द्रोपदी ने उन सबका मधुर वचनों द्वारा स्वागत किया और पूछा, "मैं आपकी किस प्रकार सेवा कर सकती हूँ?" दुर्वासा को अवसर मिल गया और उसने कहा, "हे पुत्री! हम बहुत भूखे हैं. जैसा कि तुम यज्ञ कर रहे हो व प्रतिदिन बहुत से साधुओं को भोजन भी कराते  हो. हमें भी कुछ भोजन चाहिए. यदि संभव हो तो हमें भी कुछ भोजन प्रदान करो." द्रोपदी को समझते देर न लगी कि दुर्वासा  का भोजन मांगने का कुछ और ही कारण है. क्योंकि वे इतनी महान थीं कि उनको अपने सात जन्मों का ज्ञान था. कुछ सोचने के पश्चात उसने उत्तर दिया, "महाराज! आप नदी पर स्नान कर आइये तब तक मैं आपके लिए भोजन का प्रबंध करती हूँ."
तब सभी नदी पर स्नान के लिए चले गए. अब द्रोपदी ने दुर्वासा के भीतर के दुष्ट विचारों का अनुमान लगा लिया कि वह पांडवों को श्राप देने के लिए आया है. वह शस्त्र गार में प्रविष्ट हो गयीं और एक खंजर आत्महत्या के लिए उठा लिया. जिससे कि दुर्वासा के श्राप से पांडवों को बचा सकें.
परमात्मा को धन्यवाद! तभी भगवान कृष्ण वहां पहुँच गए. उन्होंने उनसे पूछा "प्यारी बहना! यह क्या कर रही हो?" द्रोपदी ने उत्तर दिया,"हे कृष्ण! दुर्वासा यहाँ पर पांडवों को श्राप देने के लिए आया है. वह भोजन मांग रहा है और वह मेरे पास अब है नहीं. वह निश्चित रूप से उन सबको श्राप दे देगा. इसी कारण से मैं मृत्यु को प्राप्त हो रही हूँ."
सारी स्थिति समझने के पश्चात वे बोले, "द्रोपदी! मैं बहुत भूखा हूँ. मुझे वह पात्र लाकर दो."
"हे भ्राता! आप विनोद कर रहे हो. मेरे पास भोजन का एक अंश भी नहीं है."
"कृपया वह पात्र मुझे लाकर तो दो."
उसने उन्हें वह पात्र लाकर दे दिया. कृष्ण ने उसमें से एक शेष चावल का दाना ढूंढ़ कर निकाला. उन्होंने उसे खा लिया. और डकार लेते हुए बोले कि अब मेरी भूख शांत होने वाली है. और भृष्ट योग के द्वारा उन्होंने उस चावल का प्रभाव उन आगंतुकों पर डाला.
अब पांडव भी लौट आए. उन्होंने कृष्ण से उनके परिवार का कुशल मंगल पूछा. उसके पश्चात कृष्ण ने भीम से नदी के किनारे पर जाकर उन सभी को भोजन के लिए बुला लाने  को कहा. उन्होंने उससे गदा भी साथ में लिए जाने को कहा. और बताया कि अगर वे आने को मना करें तो गदा के भय से लाओ. जब भीम नदी पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सभी नदी के किनारे पर लेटे  हुए हैं. क्योंकि अब उनको किसी प्रकार की भूख शेष नहीं थी. वे तृप्त थे. यह सब कुछ कृष्ण ने ही भृष्ट योग की सहायता से किया था. भीम ने दुर्वासा से प्रार्थना की कि वे भोजन करने चलें जैसा कि उन्होंने प्रार्थना की थी. दुर्वासा एक ऋषि थे, और ऋषि कभी भी किसी से नहीं डरता, परन्तु क्योंकि उसके मन में पांडवों को श्राप देने का पाप छिपा था, वह तुरंत अपनी शिष्य मंडली के साथ भीम के साथ हो लिया. भीम गदा लेकर पीछे चल रहे थे. अब वह भय से व्याकुल होकर पांडवों की कुटिया की और चल दिए. जब दुर्वासा वहां पहुंचे, कृष्ण ने द्रोपदी से कहा कि उनसे पूछो कि क्या खायेंगे. दुर्वासा को आसन देने के पश्चात द्रोपदी बोलीं," हे भगवन! आप भोजन में क्या खाना पसंद करेंगे?" उसने सोचा कि यद्यपि मुझे भूख नहीं है लेकिन मुझे कुछ न कुछ तो माँगना पड़ेगा क्योंकि पांडवों को श्राप तो देना ही था और उसे पता था कि उनके पास भोजन है ही नहीं. इसलिए उसने जानबूझ कर अन्य ऋतु का फल 'आम' माँगा.
ऐसा सुनने के पश्चात् वह कृष्ण के पास आयीं और बोलीं कि वह आम मांग रहा है. तथा बोलीं कि अब वह अवश्य ही पांडवों को श्राप दे देगा क्योंकि आम इस ऋतु में पैदा ही नहीं होता. और इसलिए उसको हम आम दे नहीं पाएंगे."
कृष्ण ने उनको सांत्वना दी और कहा "उनसे पूछो कि किस तरह का आम लेंगे - कच्चा या पक्का?"
द्रोपदी वहां गयी और दुर्वासा से यहीं पूछा यह सुनकर उसे संदेह हुआ कि शायद आम उनके पास हैं. इसलिए उसने सोचा कि उसे ऐसा आम मांगना चाहिए जो उनके पास न हो. उसने कुछ सोचने के पश्चात कहा, "मुझे दोनों ही चाहिएं - कच्चा भी और पक्का भी."
द्रोपदी कृष्ण के पास पहुँचीं "वह दोनों प्रकार के आम मांग रहे हैं ."
कृष्ण ने द्रोपदी से कहा "उनसे कहो कि अपना मुख ऊपर की और करके विराजमान हो जाएँ. दोनों तरह के आम आने वाले हैं." यहीं शब्द द्रोपदी ने दुर्वासा से कह दिए.
दुर्वासा ने अपना मुंह ऊपर की ओर  खोल लिया.
अब भृष्ट योग के द्वारा कृष्ण भगवान ने क्या किया? -
दुर्वासा के आसन के समीप एक आम का वृक्ष पैदा होकर बढ़ना शुरू हो गया. धीरे धीरे यह एक बहुत बड़ा वृक्ष बन गया. अब उसपर फल आने प्रारंभ हो गए. कुछ कच्चे रह गए और कुछ पक गए. फिर प्रचंड वेग से वायु चलनी प्रारंभ हो गयी. और फल गिरने शुरू हो गए. जब पका आम उसके मुख पर गिरता तो उनका मुख पके गूदे से सन जाया करता. और जब कच्चा आम गिरता तो उसकी चीख निकल जाया करती. और उसका मुंह सूज कर मोटा हो गया. अब वह पूर्ण रूप से आतंकित हो गया. और दर्द के मारे  द्रोपदी माता से बोला, "हे मेरी पुत्री! मेरी मदद करो."
कृष्ण द्रोपदी से बोले कि उनसे पूछ कर आओ कि उन्हें कुछ और तो नहीं चाहिए?
जब द्रोपदी ने दुर्वासा से ऐसा पूछा तो वह बोले, "हे पुत्री! मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरे प्राणों की रक्षा करो."
कुछ समय पश्चात् कृष्ण ने अपनी योग माया समाप्त कर दी.
अब दुर्वासा उनको श्राप देना भूल गया और स्थान छोड़ कर चला गया. और मन ही मन द्रोपदी और पांडवों को आशीर्वाद दिया. जब वह आश्रम की और जा रहे थे तो मार्ग में उसने अपने शिष्यों से कहा, "हे पुत्रों! हमें दुर्योधन जैसे अधम को किसी भी प्रकार का वचन नहीं देना चाहिए था . ये पांडव व द्रोपदी बहुत ही उदार और पवित्र हैं. मैंने दुर्योधन के कहने पर इन्हें श्राप देने का निश्चय कर लिया था. यह ही मैंने ग़लत किया. मुझे अनुमान है कि इस बुरे कार्य से मेरे सात जन्मों के पुण्य समाप्त हो गए है.
इसलिए हे पाठकों! हमें वास्तविक योग को जानना चाहिए और किसी भी दुष्ट की सहायता नहीं करनी चाहिए. कृष्ण जी ने  योग के द्वारा बहुत से चमत्कार किये. यह योग महान वस्तु है. आजकल वास्तविक योग के स्थान पर बहुत सी भ्रामक प्रथाएँ चल पड़ी हैं.
मैं आपको अपने बारे में एक बात बता रहा हूँ. मैंने भी योग में बहुत कुछ उपलब्धि प्राप्त की है. जो कि साधारण मनुष्य के लिए चमत्कारिक है. लेकिन यह संभव है. मैं योग को महान मानता हूँ. क्योंकि यह मेरा अपना अनुभव भी है.
अगले ब्लॉग में फिर मिलते हैं.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

शान्ति कैसे पायें द्वितीय

जब नारद मुनि को ब्रह्मचर्य की महत्ता बताई गयी तो उन्होंने पुनः प्रश्न किया "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि ब्रह्मचर्य से बढ़कर भी कोई पदार्थ है?"
अन्न
नारद द्वारा इस प्रकार पूछने पर सनत कुमार ने कहा, "हे नारद! अन्न ब्रह्मचर्य से बढ़कर है. अन्न और इस वनस्पति जगत की याचना करो. अन्न हमें ओज और ब्रह्मचर्य प्रदान करता है. अन्न हमारे लिए अमूल्य पदार्थ है. सदा अन्न की याचना करनी चाहिए.
नारद मुनि ने कहा, "क्या अन्न ही सबसे ऊँचा है?"
कामधेनु(पृथ्वी माता)
महर्षि सनत कुमार बोले, "नहीं नारद! पृथ्वी अन्न से भी बड़ी है. पृथ्वी की याचना करो. वह हमारी माता है. हमारी दो प्रकार की माताएं होती हैं. एक तो भौतिक माता जो हमारी जननी है. और दूसरी पृथ्वी माता है. (जो हमें गर्भाशय से मृत्यु पर्यंत पालती है) जब हम भौतिक माता के गर्भाशय से पृथक होते हैं, हम पृथ्वी माता के गर्भाशय में प्रविष्ट हो जाते हैं. जिस प्रकार माता के गर्भ में हम भोजन प्राप्त करते हैं और लोरियों द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं, हम विभिन्न वनस्पतियों दे द्वारा माता पृथ्वी के गर्भ में भोजन प्राप्त करते हैं. वह हमारा पालन करती है. उसे धेनु कहते हैं(कामधेनु एक ऐसी गाय है जो ऋषि वशिष्ठ से सम्बंधित थी और सम्पूर्ण कामना पूर्ण कर देती थी.) इस पृथ्वी को अन्य बहुत से नामों से पुकारा गया है. हे नारद! यह पृथ्वी हमारी माता है. हम इसके गर्भ में रहते हैं. हमें पृथ्वी की याचना करनी चाहिए. हमें उसे वैज्ञानिक खोजों के द्वारा जानना चाहिए. यह पृथ्वी इतनी भोली है कि यदि कोई वैज्ञानिक बनना चाहता है तो इसके लिए वैज्ञानिक बनना संभव है. यह अध्यात्मिक वैज्ञानिक को शांति प्रदान करती है. और भौतिक वैज्ञानिक को ज्ञान. हे माता पृथ्वी! तुम निश्चित ही कामधेनु जो. तुम हमारी इच्छाओं को पूर्ण करती हो. तुम देवी हो. वेदों ने तुम्हें इस नाम से पुकारा है.
जो लोग पृथ्वी के गर्भ से रत्नों को प्राप्त करना चाहते हैं, उन्हें वह रत्न प्रदान करती है. जिस महान पदार्थ की मानव खोज करता है वह उसे पा लेता है. हे माता पृथ्वी! हम विद्युत् उर्जा की खोज करते हैं. तुम हमें यह देने में बहुत उदार हो. हम एक अनुशासित समाज के बारे में विचारते हैं तुम हमें पवित्र राष्ट्र प्रदान कर देती हो.
हे पृथ्वी! हम निश्चय आप के गर्भ में हैं. अपनी जननी माँ के गर्भ से हम आपके गर्भ में प्रविष्ट हो जाते हैं. जहाँ हम इस महान संसार सागर को पवित्र कर्म करते हुए पार किया करते हैं.
पृथ्वी के बारे में ऐसा सुनने के बाद नारद मुनि ने सनत कुमार से पूछा, " भगवन ! में यह जानना चाहता हूँ कि पृथ्वी से बड़ा भी कुछ है?"
अग्नि तत्व
सनत कुमार ने उत्तर दिया, "पृथ्वी से बड़ा यह अग्नि तत्व है. जो कि सारे ब्रह्माण्ड को चला रहा है. जिसने सारे कायनात में चेतना का प्रसार कर रखा है. अग्नि तत्व के कारण वर्षा होती है. जिससे हर प्रकार का अन्न पैदा होता है. जब यह समुद्र पर कार्य करती है तो वाष्प बनती है. जिससे बादल बनते हैं. जो वर्षा का कारण होते हैं. वर्षा से वनस्पति जगत उत्पन्न होता है. जिससे हमें ब्रह्मचर्य प्राप्त होता है. जब ब्रह्मचर्य को सुरक्षित और पवित्र बनाया जाता है तो स्मृति तीव्र होती है. जब स्मृति तीव्र होती है तो अंतःकरण पवित्र और शुद्ध होता है. जिससे बुद्धि में पवित्रता आती है. और फिर मन भी पवित्र होता है. जब मन शुद्ध होता है तो वाणी पवित्र बन जाती है. और जब वाणी यथार्थ होती है तो हम इस संसार की जानकारी करने में सक्षम हो जाते हैं.
इसके पश्चात नारद ने पूछा, "भगवन! इस अग्नि तत्व से बड़ा क्या है?"
आकाश(अंतरिक्ष)
सनत कुमार बोले, "हे नारद ! अंतरिक्ष अग्नि से महान है. हम जो भी शब्द उच्चारण करते हैं वह इस अंतरिक्ष में विचरण करते रहते हैं. अंतरिक्ष से इनको लिया जाता है और अपनी बुद्धि के अनुसार इनको ग्रहण किया जाता है. मेधा बुद्धि का सम्बन्ध अंतरिक्ष से होता है. अंतरिक्ष हमारी बुद्धि को बढ़ने वाला है. यह हमारे भीतर जीवन को प्रबल करता है. इसी से वायु को गति मिलती है. इसी में अग्नि भी विद्यमान रहती है.
इस पर नारद मुनि ने पूछा, "भगवन! अंतरिक्ष से बड़ा क्या हो सकता है?"
अम्बर
सनत कुमार बोले, "हे नारद! यह अम्बर अंतरिक्ष से बड़ा है. देखो कितने सारे मंडल जैसे चन्द्र मंडल, सूर्य मंडल, ध्रुव मंडल, सप्तर्षि मंडल, भू, भुवः, स्वः, महः, जनः, तपः और सत्यम मंडल. इसी प्रकार ऐसे मंडल जो आरुणी, अगस्त्य और अचंग आदि नामों से जाने जाते हैं. सभी इस अम्बर के भीतर समाहित हैं. और उसका प्रभाव अपने अपने लोकों में रखते हैं.
नारद मुनि तब बोले, "भगवन! इस अम्बर से ऊँचा क्या है?"
प्राण
सनत कुमार ने कहा, "हे नारद! प्राण अम्बर से ऊँचा है. यह प्राण समस्त जीवों में व्याप्त है. प्राण ही संसार को चला रहा है. यह आत्मा के सानिध्य में गमन करते हैं. ये प्राण सारी प्रकृति में व्याप्त हैं. हे नारद! तुम प्राणों की याचना करो. ये प्राण तुम्हें शांति प्रदान करेंगे.
परमात्मा(सर्वश्रेष्ठ और सर्वोच्च)
प्राणों तक जानने के पश्चात नारद मुनि शांत हो गए और अब वह आत्मिक शांति को प्राप्त होने लगे. तब सनत कुमार बोले, "हे नारद! प्राणों से बड़ा भी एक पदार्थ है और वह सर्वोच्च परमात्मा है. वह ही है जो प्राणों का प्राण है. और जो हमारी आत्मा का प्रेरक है. हे नारद! यदि तुम अध्यात्मिक शांति चाहते हो तो तुम उसकी शरण में जाओ.
नारद मुनि शान्ति को प्राप्त हो गए. और आश्चर्य करने लगे कि उन्होंने कितनी प्रेरणा उस मुनि से प्राप्त की जिन्होंने उन्हें अध्यात्मिक और भौतिक वाद से सम्बंधित इतनी सारी जानकारी दी.

इसलिए प्यारे पाठकों! यह नारद मुनि और सनत कुमार के संवाद का अंत हो गया है. यह संवाद भौतिक और अध्यात्मिक वाद दोनों ही क्षेत्र में बहुत प्रेरणा प्रद है. अगले ब्लॉग पोस्ट में पुनः मिलते हैं.
धन्यवाद
अनुभव शर्मा
इस पोस्ट को इंग्लिश में पढ़ें.

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

दुष्ट को नमन और शान्ति कैसे पायें प्रथम

हमें अपने प्राणों को नमन करना चाहिए, न सिर्फ प्राणों को अपितु दुष्टों को नमन. ठगों को नमन. परन्तु ठगों को कैसे नमन करें? उनको हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं करना चाहिए. यदि उसकी दुष्टता या ठगी सिद्ध हो जाए तो उसे डंडे से नमन करना चाहिए और यह सिद्ध कर देना चाहिए कि हम अपने स्थान पर दृढ हैं. उस समय तुम्हें उन्हें डंडे से नमन करना चाहिए.
वेदों में वनराज का नमस्कार भी स्वीकार किया गया है. परन्तु सिंह इसे दो तरीके से करता है. जो व्यक्ति आत्मा को जानता है वह प्रेम के साथ नमस्कार स्वीकार करता है.
एक बार लोमश मुनि कदली वनों से गुज़र रहे थे. शेर आकर उनके चरणों में ओतप्रोत हो गया. उस आत्मा के बल की क्या सीमा है. जिसके समक्ष सिंह भी श्रृद्धा से अपना शीश झुका देते हैं. इसी प्रकार कि घटना हमें माता गार्गी के जीवन से मिलती है एक बार वह महर्षि याज्ञवल्क्य से मिलने जा रही थीं. रास्ते  में एक शेर ने उनको नमन किया और उनके चरणों में ओतप्रोत हो गया. वेदों में नमस्कार भिन्न सन्दर्भों में आया है. हमारे ऋषि मुनियों ने जिन्होंने वेदों का स्वाध्याय किया है इसका सुन्दर तरीकों से वर्णन किया है. प्राणों को नमन, हे प्राण! तुम पवित्र हो और महान हो. तुम हमारे शरीर के भीतर रमण करते हो. हम महानता चाहते हैं. आज हम उन प्राणों का आह्वान करते हैं जिसके द्वारा हमारे योगी अपनी बौद्धिक क्षमताओं को वश में करते आये हैं और मूलाधार से ब्रह्मरंध्र में रमण करते हुए योगिक पूर्णताओं को उन्होंने प्राप्त किया है. आज हम उन प्राणों कि याचना करते है.
हे पाठकों! हमें निस्वार्थ होना पड़ेगा. हमें परमात्मा को अनुभव करना चाहिए. हमें अपनी तुच्छताओं को त्यागना पड़ेगा. यदि हमारे मस्तिष्क में नाना बुरे विचार हैं, स्वार्थ है और साथ साथ हम भगवान की पूजा भी करते हैं तो यह किसी लाभ का नहीं है. यह तभी लाभदायक होगा जब हम निस्वार्थी होकर परमात्मा की गोद में जाने का प्रयत्न करेंगे. आज हमें अपनी अंतरात्मा को पवित्र करने की आवश्यकता है.
अब मैं एक कहानी प्रस्तुत कर रहा हूँ जो कि महर्षि  श्रृंगी (पूज्यपाद ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी), जो मेरे अध्यात्मिक गुरुदेव हैं, के प्रवचनों से ली गयी है. यह नारद मुनि व सनत कुमार संवाद पर आधारित है.
एक बार किसी कारणवश देवर्षि नारद को अशांति छा गयी. उन्होंने सोचा कि उन्हें इस को समाप्त करने के लिए किसी अन्य स्थान को गमन करना चाहिए. अपना स्थान छोड़ने के बाद वे महर्षि पापड़ी  मुनि महाराज के पास गए. जिन्होंने उनका यथायोग्य स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे शांति को प्राप्त हैं? नारद मुनि ने कहा, "भगवन! शांति कहाँ है. मुझे आज अज्ञान छा गया है. मुझे आत्मिक शांति प्राप्त नहीं हो रही है. मुझे इसकी प्रबल आवश्यकता है." इस पर महर्षि पापड़ी मुनि महाराज ने कहा, "मेरे मंतव्य से आप को सनत कुमार के पास जाना चहिए. वहां आप निश्चित रूप से अध्यात्मिक शांति को प्राप्त कर लेंगे." ऐसा आदेश पाकर देवर्षि नारद वहां से चल दिए और महर्षि सनत कुमार के पास पहुंचे. महर्षि ने उनका ऊंचा स्वागत किया और उनको ऊँचा आसन प्रदान करते हुए विराजमान होने की प्रार्थना की. नारद मुनि ने आसन ग्रहण कर लिया. महर्षि सनत कुमार ने जानना चाहा, "हे देवर्षि नारद! आपका ह्रदय मग्न प्रतीत नहीं हो रहा है. आपका विनोदी स्वभाव कहाँ चला गया?" इसपर नारद मुनि बोले," महाराज! आज मैं आपके चरण वंदन के लिए आया हूँ जिससे मैं आत्मिक शांति प्राप्त कर सकूँ." उन्होंने पूछा आपको आत्मिक शान्ति क्यों प्राप्त नहीं हो रही है?" नारद ने इस बात का उत्तर देने में असमर्थता जताई. सनत कुमार ने पूछा "मुझे बताओ कि ज्ञान की कौन सी शाखाओं को आपने जाना है? और क्या क्या नहीं जाना?" उस समय नारद ने उत्तर दिया, "भगवन! मैंने दार्शनिकता के ६ भागों, चार वेद, उपवेद, गणित और अन्य सभी विज्ञानों का अध्ययन किया है. परन्तु मैं आत्मिक शांति प्राप्त करने में असमर्थ हूँ.
आत्मिक शांति का मार्ग
महर्षि नारद से यह सुनकर महर्षि सनत कुमार ने कहा, "हे नारद!यह ज्ञान बहुत ऊँचा है. केवल यह ही तुम्हें ऊँचा बना देगा. ज्ञान बहुत ग्रहणीय और विचित्र होता है. इसमें गहनता से उतरो यह तुमको संसार से एक रस कर देगा.
नारद ने पूछा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या ज्ञान से बढ़कर भी कोई पदार्थ है संसार में?"
सत्य
ऐसा पूछने पर महर्षि सनत कुमार बोले, "हाँ एक पदार्थ इससे भी बड़ा है. और यह वाणी है. आज तुम्हें वाणी की अर्चना करनी चाहिए. सत्य बोलो. जो कुछ भी तुम बोलो वह सत्य होना चाहिए. सत्य बोलने से वाणी सबल और प्रभावशाली बन जाती है. महर्षि श्रृंगी ने ८४ वर्ष तक एक भी शब्द मिथ्या उच्चारण नहीं किया. वह जो भी कह देते थे, हो जाता था. यदि वे किसी को मृत्यु प्रदान कर देते थे, तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता था. अरे नारद! महर्षि अत्री ने अपने जीवन में १२० वर्ष सत्य का पालन किया. यदि वह किसी पक्षी से आने को कहते थे तो वह उनके पास आ जाता था. हे नारद! यह वाणी बहुत महान है. इसमें कभी मिथ्यावाद न मिलाओ, तो यह वाणी बल व प्रभाव से युक्त हो जाएगी. यह ऐसा पदार्थ है कि यह तुम्हें भगवान तक ले जा सकती है. यह एक ऐसा साधन है कि यह इस संसार सागर से भी पार ले जा सकती है. तुम वाणी की साधना करो. सत्य बोलो.
देवर्षि नारद ने कहा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या कोई वस्तु वाणी से भी बढ़ कर है?"
मन
सनत कुमार ने बताया,"एक ऐसा पदार्थ भी है जो सत्य से भी बढ़कर है. और वह मन है. यह मन बहुत अमूल्य है. यह वायु से भी तीव्र गमन करता है. यह मन तुम्हें इन्द्रलोक में ले जा सकता है. इस मन को स्थिर करो. यह तुम्हें ऊँचाइयों पर पहुंचा देगा.
इस सन्दर्भ में गंभीर विचारकों ने विश्लेषण किया है कि यदि कोई मानव सुन्दरता को देखता है, वह चक्षुओं से नहीं देखता, बल्कि वह मन से देखता है. ऑंखें, पुतलियाँ, तन्मात्राएँ और पीला पटल आदि तो सभी निर्जीव और यंत्र कि भांति है. मन ही है जो उसको महसूस करता है. यदि यह मन स्थिर है तो वह सही निर्णय देगा परन्तु यदि यह मन चलायमान है तो यह कुदृष्टि में परिवर्तित हो जायेगा. यही मन मानव की मृत्यु का कारण बन जाता है. एक अलंकार मेरे मन में आया है. सनत कुमार ने यह नारद को बताया था. यह महान रूपक है.
एक धनी व्यक्ति था. एक नौकर उसके पास नौकरी के लिए आया. सेठ ने पूछा, "तुम क्या वेतन पसंद करोगे?"  सेवक बोला, "श्रीमान! मुझे कोई वेतन नहीं चाहिए परन्तु मेरा एक सिद्धांत है. जब मेरे पास करने के लिए कोई कार्य शेष नहीं रहेगा तो मैं तुम्हें मृत्यु को प्राप्त करा दूँगा." सेठ उसे अपनी सेवा में रखने को तैयार हो गया और उसको एक के बाद एक कार्य देने प्रारंभ कर दिए. जैसे ही वह उसे कार्य सोंपता वह तुरंत उसे कर दिया करता. कुछ समय पश्चात् सेठ को चिंता हो गयी क्योंकि जल्दी ही उसने पाया कि उसके पास देने के लिए अन्य कार्य उस विलक्षण सेवक के लिए शेष नहीं है.  एक बार वह एक मार्ग से जा रहा था. वहां उसे एक बुद्धिमान मिला जिसने उससे उसकी परेशानी का कारण पूछा. उस धनिक ने सारी बात उस बुद्धिमान को बताई और अपने ही सेवक के द्वारा मृत्यु प्राप्त होने के भय से अवगत कराया क्योंकि जल्दी ही सेवक के लिए कोई कार्य शेष नहीं रह जायेगा. इस पर उस बुद्धिमान ने राय दी, "भैया, तुम उसे अपने ही कामों में क्यों लगाये हुए हो? उसे संसार के कार्यों में लगा दो." वह सलाह मानकर वह धनिक अपने घर लौट आया और उसने वहीँ किया. उसने अपने नौकर से संसार के शुभ कार्यों में व्यस्त होने को कह दिया. नौकर को इस प्रकार के कार्यों की कोई सीमा नहीं प्राप्त हुई और धनिक की रक्षा हो गई. यहीं स्थिति मानव के मन की है. यदि हम अपने मन को संसार के शुभ कार्यों और भगवान के चिंतन में लगाये रखते हैं तो हम सुरक्षित रहते हैं. परन्तु जैसे ही हम ने उसको स्वतंत्र किया यह महान अनर्थ करने लगता है. और विनाश कि गर्त में धकेल देता है.
नारद मुनि ने पूछा, "भगवन! मैं ये जानना चाहता हूँ कि क्या अन्य कुछ भी मन से ऊँचा है?"
बुद्धि
सनत कुमार ने कहा, " हे नारद! बुद्धि मन से ऊँची है. यह परमात्मा की अमूल्य देन है. तुम परमात्मा से प्रार्थना करो कि वह तुम्हें बुद्धि प्रदान करें जिससे कि हम इस संसार के बारे में अच्छी प्रकार निर्णय ले सकें.यह मन सारी वासनाओं को बुद्धि के समक्ष नियुक्त कर देता है. बुद्धि ही निर्णय दिया करती है कि क्या क्या पदार्थ है. इसलिए देखो! बुद्धि हमारे जीवन की प्रेरक है. हमें बुद्धि से कार्य लेना चाहिए. यह आत्मा तीन प्रकार की बुद्धियों मेधा, ऋतंभरा और प्रज्ञा, को प्राप्त करने के बाद उस महान प्रभु से मिला करती है. और मुक्ति को प्राप्त करती है. आजकल हम अपनी बुद्धिओं को विकसित करने पर विचार नहीं कर रहे हैं. इसके पश्चात नारद मुनि पुनः बोले, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या बुद्धि से बढ़कर भी कुछ है?"
अंतःकरण
सनत्कुमार ने कहा, "हे नारद! अंतःकरण बुद्धि से बड़ा है. तुम्हें यह अंतःकरण पवित्र बना लेना चाहिए. ऐसा करने पर तुम्हारा जीवन भी पवित्र हो जाएगा. इस छोटे से अंतःकरण में यह परमात्मा का सारा ब्रह्माण्ड समाहित हो जाता है. अंतःकरण महान होता है. अपनी बुद्धियों को अंतःकरण में विलय करो.
पुनः देवर्षि नारद बोले, "भगवन! मैं अंतःकरण की अधिक व्याख्या नहीं चाहता. मैं जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसा कोई और पदार्थ है जो अंतःकरण से भी बढ़कर है?"
स्मृति
अब सनत कुमार बोले, "हे नारद! स्मृति अंतःकरण से श्रेष्ठ है. अन्य बातें त्याग कर तुम मेरे ही जीवन को देख लो मैंने जिन वेद मन्त्रों का लाखों वर्ष पूर्व अध्ययन किया था अब पुनः अपने कर्मों के अनुसार तुम्हारे समक्ष बोलने में सक्षम हूँ. हमारे बहुत से जन्मों के संस्कार अंतःकरण में अंकित रहते हैं. इसके जाग्रत होने पर स्मृति आती है.
इसके पश्चात नारद मुनि ने आगे कहा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ स्मृति से भी बढ़कर श्रेष्ठ क्या है?"
ब्रह्मचर्य
सनत कुमार ने कहा, "ब्रह्मचर्य स्मृति से महान है. ब्रह्मचर्य से प्रतिभा और ओज मिलता है. यह मानव को परमात्मा तक ले जाता है. तुम्हें ब्रह्मचारी होना चाहिए. यदि हम ब्रह्मचर्य नहीं रखते तो हमारा जीवन केवल नाम मात्र है. हे नारद! माता गार्गी ने भी ब्रह्मचर्य के विषय में बहुत ऊँचा बोला है. उन्होंने स्वीकार किया है, "ब्रह्मचारी संसार में एक महामानव होता है. वह सूर्य के समान तेजवान होता है. वह मृत्युंजय कहलाता है. वह रूद्र कहलाता है." हमें ब्रह्मचर्य संग्रहीत करना चाहिए क्योंकि यह मृत्यु को भी विजय कर लेता है. लोमश मुनि ने जीवन भर ब्रह्मचर्य धारण किया था. वह कितने वर्ष जिए और फिर मुक्ति भी प्राप्त कर ली. महर्षि अगस्त्य, ब्रह्मचर्य के महान धारक ने समुद्र को केवल तीन आचमन में पीने की क्षमता प्राप्त की. आज के मानव ने इस तथ्य के अन्तर्निहित अर्थ को नहीं जाना. मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ब्रह्मा ने मुझे अगस्त्य की इस महानता के बारे में बताया था. वे तीन आचमन क्या हैं? वे ज्ञान, कर्म और उपासना हैं. और समुद्र यह महान संसार है.
शान्ति कैसे प्राप्त करें का द्वितीय भाग मैं बाद में प्रकाशित करूंगा. अगले ब्लॉग में नारद मुनि और सनत कुमार संवाद का द्वितीय भाग लेकर मैं फिर उपस्थित होऊंगा.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

गुरुवार, 6 जनवरी 2011

मनुष्य जीवन के दो पक्ष

एक महीने में दो पक्ष होते हैं - कृष्ण और शुक्ल. कृष्ण पक्ष में चन्द्रमा लगातार दिन प्रतिदिन घटता चला जाता है. और अंत में पूर्णतः अदृश्य हो जाता है. लेकिन पुनः शुक्ल पक्ष आता है और यह बढ़ना शुरू होता है और अंत में पूर्ण कलाओं को प्राप्त कर लेता है. इसी प्रकार मानव के जीवन में भी अन्धकार का काल आता है. परन्तु तब उसे सद्गुणों का मार्ग नहीं त्यागना चाहिए और सभी विसंगतियों को सहना चाहिए जो भी उसके समक्ष आती है. और तब निश्चित रूप से वह दिन भी आयेगा जब उसका अंधकार का काल समाप्त हो जायेगा और वह अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा के साथ संसार में चमकेगा.
मैं दो पक्षों के विषय में कह रहा हूँ - अन्धकार का पक्ष और प्रकाश का पक्ष. इस सम्बन्ध में मैं एक कहानी प्रस्तुत करना चाहता हूँ जो त्रेता युग की है जिसे मैंने अपने गुरुदेव ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी कि पुस्तक में पढ़ा है.
एक बार त्रेता युग में जब राजा रघु का राज्य था, बहुत समय तक वृष्टि नहीं हुई. पृथ्वी सूखने लगी और गर्मी बहुत बढ़ गयी. तथा अकाल पड़ गया. राजा बहुत चिंतित हुए. उसी समय महर्षि उदांग ने साकल्य एकत्रित करना शुरू किया. उनहोंने आवश्यक पदार्थ लगभग १५ दिवस तक एकत्रित किये. और तब उस साकल्य से एक महान यज्ञ करना प्रारंभ किया. ज्यों ही यज्ञ पूर्ण हुआ देवता प्रसन्न हो गए और वृष्टि प्रारंभ हो गयी.
अब ऐसा हुआ कि नेवला(नवल ऋषि) जो कि वनों में रहता था, यज्ञ के पूर्ण होने पर वहां पर आया और अपने शरीर को यज्ञ शेष में डुबाया. परन्तु जल पर्याप्त न होने कि वजह से उसका केवल आधा भाग स्वर्ण का हो पाया. तब नेवले ने अपने दिनों को इस आशा में व्यतीत करना शुरू कर दिया कि किसी और काल में भी ऐसा यज्ञ होगा और उस यज्ञ शेष में डूबने का मौक़ा मिलेगा. जिससे कि उसका शेष आधा भाग भी स्वर्ण का हो जायेगा. इसी आशा में दिन गुज़रते गए और द्वापर युग आ गया. द्वापर में महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया. यह यज्ञ महान विचित्र था. सभी राजाओं को वहां निमंत्रित किया गया था. उस यज्ञ की महानता का वर्णन करना असंभव है. नेवला भी वहां आया और उसने अपने को यज्ञ शेष में डुबाया. लेकिन उसका शेष भाग स्वर्ण का नहीं हो पाया. तब नेवला दुखी हो गया. महाराज युधिष्ठिर ने कहा, "अरे नेवले! आप दुखी क्यों हैं? नेवले ने उत्तर दिया, "हे महाराज! एक बार उदांग ऋषि ने एक यज्ञ किया था जो कि इतना बड़ा भी नहीं था जैसा कि तुम्हारा है लेकिन फलस्वरूप वृष्टि हुई थी. मैंने वहां यज्ञ शेष में अपने को डूबने का प्रयत्न किया था, लेकिन यज्ञ शेष पर्याप्त न होने के कारण मेरा आधा भाग ही उसमें डूब सका और वह स्वर्ण का हो गया. हे महाराज! आपने इतना बड़ा यज्ञ किया है. मैं यह आशा करता था कि मेरा शेष भाग भी स्वर्ण का हो जायेगा यदि मैं अपना शरीर इस यज्ञ शेष में डुबा लूँ. मैंने ऐसा ही किया, मैंने अपना शरीर इस यज्ञ शेष में डुबाया परन्तु मुझे निराशा ही हाथ आई. मेरा शेष भाग स्वर्ण का न हो सका. मेरे दुःख का यहीं कारण है. मैं यह समझने में असमर्थ हूँ कि यह किस प्रकार का यज्ञ है? जिसने मेरे आधे शेष शरीर को स्वर्ण का न बनाया.
यह सुनकर युधिष्ठिर बहुत व्याकुल हो गए. उनकी चिंता देखकर नेवले ने उनसे पूछा, "हे महाराज! आप व्याकुल क्यों हैं?" युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, "मेरी चिंता का कारण यह है कि मैंने इतना बड़ा यज्ञ किया है लेकिन यह आपके शेष आधे भाग को स्वर्ण का न कर सका. इसलिए यह प्रतीत होता है कि मेरा यज्ञ निष्फल है." उसी समय महाराज कृष्ण जो १६ कलाओं के ज्ञाता थे, बोले "अरे नेवले! शांत रहो. अभी अन्धकार का काल आने वाला है. जब हर तरह का अज्ञान संसार में छा  जायेगा. मानव प्रगति समाप्त हो जाएगी. उस समय तुम्हारा ये आधा भाग भी जो स्वर्ण का है एसा नहीं रहेगा."
जो कुछ भी कृष्ण जी ने तब कहा था वह सत्य हो रहा है. कुछ लोग कहते हैं कि इस काल में कर्म करने की आवश्यकता नहीं है. कोई कहता है कि वह कृष्ण का अवतार है. कोई अन्य कहता है कि वह मुक्त आत्मा है. परन्तु ये सभी कथन इस संसार को भ्रमित कर रहे हैं. कृष्ण जी वेद की १६ हज़ार ऋचाओं के साथ विनोद किया करते थे. लेकिन लोग कहते हैं कि उनके पास १६ हज़ार पत्नियाँ थीं. लेकिन उनका उन मन्त्रों पर पूर्ण आधिपत्य था और वे एकांत में उन्हीं का चिंतन किया करते थे.
कलयुग नाम का यह युग अज्ञान का काल है जहाँ पर अध्यात्मिक प्रकाश लोगों के द्वारा अच्छी प्रकार जाना नहीं गया है. बहुत से लोगों को अन्य लोग इसके भ्रम में ग़लत राह पर ले जाते हैं क्योंकि सही मायने में योग के बारे में अधिकतर लोग नहीं जानते.
हमीं आज वेद की शिक्षा पर विचार करना चाहिए कि किस प्रकार ये शिक्षाएं मानव का हर तरह से (all round ) उत्थान करती हैं. हमें पता होना चाहिए कि मानवोत्थान इन्हीं शिक्षाओं पर आधारित है. इन शिक्षाओं के दो भाग हैं - आध्यात्मिक और भौतिक. जब आदमी इन दोनों को लेकर चलता है तब ही वह अपने जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

कुछ प्रेरक विचार

हे रक्षक! सत्यस्वरूप! चेतन स्वरुप! आनंद स्वरुप! प्राण स्वरुप! दुःख हर्ता! सुख दाता परमात्मा! हम आपके उन रूपों को स्वीकार करते हैं जो ये हैं- आत्मा के प्रकाशक, वैज्ञानिक  प्रकाश से युक्त, ग्रहण करने योग्य, शुद्ध स्वरुप, जो हमारी सभी आवश्यकताओं को पूर्ण करता है. ये सभी रूप हमारी बुद्धि को सत्कर्मों में प्रेरित करें

जिस प्रकार सूर्य पृथ्वी को प्रकाश, ऊष्मा व प्रसन्नता आदि देकर उसको धारण कर रहा है. जैसे अध्यापक अपने शिष्य(वेदों में उन्हें पुत्र भी कहा है) को भिन्न भिन्न विषयों का ज्ञान व प्रसन्नता देकर उनको धारण कर रहा है. शासक और  नेता को अपनी प्रजा के लिए ऐसा ही होना चाहिए, सारी वेद वाणियाँ यहीं प्रतिपादित करती हैं.

दो सुनहरे पंखों के पक्षी साथ साथ रहने वाले मित्रों के समान एक ही वृक्ष का आश्रय लिए हुए हैं. जिनमे से एक उसके फलों (सुख ओर दुःख रूपी) को स्वाद लेकर खा रहा है तथा दूसरा उसको मात्र साक्षी भाव से देख रहा है. पहला तो आत्मा है और  दूसरा भगवान है और  उस वृक्ष का मतलब यह जगत है. (यह हमारी वास्तविक दशा है जो कि  भगवान ने वेदों में स्वतः बताई है).

जो हमारे भ्राता  के सामान सुखदायक, हमारे समस्त कार्यों का पूर्ण करने वाला, जो हमारे समस्त नाम, स्थान व पूर्व जन्मों को जानता  है. जिस मोक्ष प्रदाता भगवान में मोक्ष को प्राप्त होकर विद्वान लोग स्वेच्छा पूर्वक विचरते हैं. वह परमात्मा हमारा राजा, आचार्य व न्यायधीश है. हमें उसकी शुभ कर्मों के द्वारा भक्ति करने में सदैव तत्पर रहना चाहिए.

सत्य के पात्र का मुख एक स्वर्ण की चमकीली भित्ति से ढका है. हे प्रभु! कृपा करके वह भित्ति हटा दीजिए जिससे हम वास्तविकता को समंझने की क्षमता पा सकें ओर केवल धन की चमक की  ओर न भागें. हमें अपनी आत्मा के तीर को वैराग्य या इन्द्रियजन्य सुख से दूर रहकर तेज करना चाहिए. तथा हे प्यारे! तब सत्य को पाने के लिए लक्ष्य बांध उस वाण को छोड़ दे जिससे की वह सीधा उस भित्ति को बेध सत्य को पा ले.

हे भगवान! आप महान हो. आप हमें सभी सुख देते हो. आप पवित्र ओर हमारे भाई हो. उस व्यक्ति के दुःख जो आपके पास आता है, समाप्त हो जाते हैं. कृपा करके हमें हरेक दुष्कर्म व दुर्व्यसन से बचाइए और हमें श्रेष्ठ वस्तुएं, कर्म और गुण प्राप्त कराइये.

भगवान कहते हैं कि मैं विभिन्न विचित्र प्रभावशाली क्रियाएं हर जगह लगातार दिया करता हूँ. आत्मशासक, संयमीं व विचारवान पुरुष उसे ज्ञान पूर्वक प्राप्त करें.

विशेष छुपा रहस्य - G  (जेनेरेटर   - बनाने वाला) ब्रह्मा
O  (ओपरेटर   - चलाने  वाला) विष्णु
D (डेस्ट्रोयर    - विनाश करने वाला) महेश, शिव.
यह GOD शब्द हमारी हिन्दू संस्कृति से मिल रहा है.

भगवान हर जगह उपस्थित है और यह जगत परिवर्तनीय है. इसलिए हमें इस संसार की वस्तुओं को कुछ न कुछ देकर ही ग्रहण करना चाहिए. लालच नहीं करना चहिए क्योंकि न तो शासक ही और न ही प्रजा इस पृथ्वी धन की वास्तविक स्वामी है. सोचो यह किसका है? ......... उत्तर है भगवान का.

ये विचार वेद मन्त्रों से लिए गए हैं. मुझे आशा है कि आप लोग इसे पढ़ कर आनंद प्राप्त करेंगे.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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संसार की स्थिति

यह कहानी हमारी धार्मिक पुस्तक महाभारत में मिलती है. जो कि महात्मा विदुर ने महाभारत काल में ध्रतराष्ट्र  को संसार की स्थिति बताने के लिए सुनाई थी जो अपनी दूरदर्शिता के लिए प्रसिद्ध है.
एक बार एक आदमी जंगलों में भटक रहा था. अचानक उसने देखा कि वन के वृक्षों में आग लग गयी है और वे बहुत गर्मी उत्पन्न कर रहे हैं. शेर और हाथी भी चिंघाड़ रहे हैं. वह बहुत डर गया. वह एक बहुत बड़े वृक्ष की और भागा जो कि एक तालाब के किनारे पर था. परन्तु जब उसने नीचे की और देखा तो एक सांप वृक्ष की जड़ों की और से उसकी और बढ़ रहा है. जिस शाख पर वह बैठा था उस को दो चूहे काले और सफ़ेद रंग के, काट रहे थे. एक छः सूंड वाला हाथी उस वृक्ष को गिराने के लिए उसे हिला रहा था. उसे जल्दी ही अपने भविष्य का पता चल गया जो निश्चित मौत था. परन्तु उस शाख पर ऊपर की और के एक मधुमक्खी के छत्ते से शहद की बूंदें गिर रहीं थीं. उसने अपनी जिव्हा उन बूंदों के नीचे लगा ली. और वह अपनी आने वाली मृत्यु को भूल गया.
अब यह कहानी क्या कहती है? विदुर जी ने समझाया-
जब बच्चा जन्म से पहले माता के गर्भ में होता है, वह वहां की उष्णता तथा प्राण व रुधिर के बहाव से काफी कष्ट में रहता है. वह भगवान से मन ही मन प्रार्थना किया करता है की हे भगवान मुझे इस नरक से पृथक करो. निश्चित ९ महीने और ९ दिन की अवधि के बाद परमात्मा उसे बाह्य जगत दिखता है. (यहाँ गर्भाशय की तुलना उस वन से है जहाँ हाथी और सिंह की गर्जना हो रही है.) संसार एक वृक्ष की भांति है. उस वृक्ष में छः सूंड वाला हाथी ६ ऋतुएँ हैं. (एक ऋतु दो महीने की हुआ करती है). जो की मानव की आयु को लगातार समाप्त कर रही है. सफ़ेद और काले चूहे दिन व रात हैं जो लगातार आयु को नष्ट कर रहे हैं. वह सर्प अवश्यम्भावी मृत्यु है. यहाँ हर कोई काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार रुपी शहद के कारण अपनी आने वाली मृत्यु को भूला हुआ है और इन पांचों में अपने को व्यस्त किए हुए है.
इसलिए ए प्यारे पाठक! इन पांचों को छोड़ अन्य कुछ प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए. और अब अपने सत्य ज्ञानार्जन, पवित्र कर्म और भगवान के चिंतन करने में व्यस्त करने का समय है. मृत्यु हमारी ओर उसी सर्प की तरह आ रही है जो की एक दिन अवश्य ही हमारे समीप पहुँच जाएगी.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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बुधवार, 5 जनवरी 2011

मृत्यु क्या है?

कुछ ऐसे तथ्य भी होते हैं जो हमारे तर्क से परे होते हैं. और उन्हें खोजने की आवश्यकता होती है. वास्तव में मृत्यु के बारे में हम जैसा सोचते हैं वह उससे भिन्न पदार्थ है.
जैसा हम जानते हैं कि इस संसार में हर किसी के लिए मृत्यु आवश्यक है, हम फिर भी इस बात से भागने कि कोशिश करते हैं. और अपने को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार में व्यस्त रखते हैं. हम अपनी आने वाली मृत्यु के विषय में नहीं विचारते. यदि हम मृत्यु को विजय करना चाहें तो यह भी संभव है. क्या आप इस तथ्य को जानते हैं? मैं आपको इसके बारे में कुछ बताऊंगा.
वास्तव में वैज्ञानिक और योगियों के लिए मृत्यु भयावह नहीं होती. एक ऋषि ने कहा है कि अज्ञान में मृत्यु और ज्ञान में सदैव जीवन है. यह ज्ञान कुछ कम मात्र में मैं आपको देने का प्रयास करूंगा.
माना एक मानव मरता है. जैसा हम जानते हैं कि शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना होता है - जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथ्वी. मृत्यु के बाद भी इन पञ्चतत्वों का शरीर देखा जा सकता है. हम यह नहीं कह सकते कि शरीर मर गया. शरीर नहीं मरा बल्कि इसने कार्य करना बंद कर दिया है. जीव विज्ञान के अनुसार शरीर के सारे अंग वैसे ही दिखाई देते हैं. लेकिन यहाँ पर हमारे विद्वान कहते हैं कि शरीर इसलिए कार्य नहीं कर रहा क्योंकि आत्मा ने इसे छोड़ दिया है. जब हम शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह शरीर, भोजन जो इसने लिया था, तथा अन्य सहायक पदार्थ जैसे प्रकाश, ऊष्मा, वायु व जल कि मदद से बना था. और अब वे सारे परमाणु वैसे के वैसे ही शरीर में उपस्थित हैं. और जैसा कि परमाणु सिद्धांत के अनुसार कहा गया है कि परमाणु न तो नष्ट होता है और न ही बनाया जा सकता है, उस आत्मा को छोड़कर सभी परमाणु उपस्थित भी रहते हैं.
अब क्योंकि आत्मा अमर है. क्योंकि यह स्वयं भगवान ने वेद में कहा है. यह शरीर को त्याग कर अन्य स्थान को गमन करती है. लेकिन वह आत्मा भी वह आदमी नहीं रह जाती.
यदि हम आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट रूप से समझते  हैं तो हम यह नहीं कह सकते कि वह मर गयी. तो ए पाठकों! मुझे बताओ कि कौन मरा?
वास्तव में इस शरीर को त्यागने के बाद आत्मा उन स्थानों और जन्मों में जाती है जहाँ पर परमात्मा ने निश्चित किया है और यह निश्चय उसी आत्मा के पूर्व कर्मों के अनुसार होता है. उसे किसी दूसरे स्थान पर जाना ही पड़ता है. इसलिए यह मृत्यु स्थान और शरीर का परिवर्तन है. और जब योग के द्वारा, हमें पता चलता है कि हम अपने पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म लिया करते हैं तो हमें मृत्यु का भय नहीं रहता.
किसी एक स्थान पर रहने का समय निश्चित होता है और जब समय समाप्त हो जाता है तो आत्मा शरीर को त्याग देती है. इसलिए हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए. क्योंकि यह हमें समय से पहले नहीं आयेगी. इसलिए हमें अपने अच्छे कार्यों और उपासना आदि निर्भय होकर करनी चाहिए. जैसा कि सरदार भगत सिंह ने किया. वह और बहुत से अन्य लोगों ने अपनी भारत माता की स्वतंत्रता के लिए जीवन दान देदिया. वह भी इस बात को जानते थे वरना कौन अपना जीवन दूसरों के लिए उत्सर्ग करता है.
हमारी पुस्तकें इस तथ्य की व्याख्या करती हैं. बहुत से तथ्य उपनिषदों में इस विषय में लिखे हैं. और मृत्यु को अज्ञान में बताया गया है. इसलिए चलो अपने सत्य ज्ञान की वृद्धि करे.
हम इन तथ्यों को योग समाधी में भी साक्षात् कर सकते है.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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क्या शिक्षा बच्चों के लिए आवश्यक है?

बच्चों के लिए शिक्षा की आवश्यकता

हमें अपने बच्चे के लिए अच्छी शिक्षा की  व्यवस्था करनी चाहिए। लेकिन अगर हम उनको शिक्षा नहीं दिलाते तो क्या होगा? क्या उनको शिक्षित करना आवश्यक है?

जैसे कि एक सुशिक्षित व्यक्ति बलवान कहा जाता है। हम कह सकते हैं कि शिक्षा एक शक्ति है। कई प्रकार के बल होते हैं - बुद्धि बल, धन बल, ज्ञान बल, शारीरिक बल और राज बल आदि ।
इसलिए अगर हमारे माता पिता हमें शिक्षा दिलाते हैं तो हम एक प्रकार का बल रखेंगे। शिक्षा के द्वारा हम नोकरी पा सकते हैं, समाज में एक माननीय स्थान प्राप्त कर सकते हैं और हम अपने सामान्य निर्णय भी स्वयं लेने में सक्षम हो जाते हैं। शिक्षा प्राप्त करना बहुत ही आवश्यक है। यदि हम अपनी धार्मिक और दार्शनिक पुस्तकों में देखें, तो हम पाते हैं-

माता शत्रु पिता वैरी येन बालोभ्याम् न पाठयेत्। न शोभते सभा मध्ये हंस मध्ये बको यथा॥ - भर्तृहरि

यह श्लोक कहता है-

वे माता पिता अपने बच्चों के शत्रु हैं जो उनको शिक्षित नहीं करते हैं। क्योंकि वे सभाओं को विजय नहीं कर पाते और घोड़ों की  सभा में गधे(हंसों की  सभा में बगुले) की  भांति लगते हैं। इस श्लोक में रूपक अलंकार प्रयोग किया गया है ।

धन, अपने बच्चे पर खर्च किया गया, व्यर्थ नहीं जाता। बदले में यह एक प्रकार की  बचत है। जब अच्छी शिक्षा पाकर हमारा बच्चा विद्वान हो जाता है तो वह हमें भी ख्याति दिलाता है, धन कमाता है और अन्य भी बहुत से लाभ कराता  है।

जैसा हम जानते हैं कि 'विद्या ददाति विनयम्' एक विद्वान ने कहा है जिस का अर्थ है कि विद्या से हममें विनीत भाव आते हैं। यह बात बिलकुल सत्य है। इसलिए विनय, हमारे और हमारे माता पिता के लिए बहुत लाभदायक है। विनीत भावों के कारण हम लोग प्रसन्नता प्राप्त करते  हैं। यहीं वजह है कि हमें अपने बच्चों की शिक्षा के लिए खुले हाथों से खर्च करना चाहिए।
किसी और ने कहा है, "विद्या धनं परमम् धनं" - अर्थात विद्या रुपी धन सर्वोपरि धन है। यह कथन हमें सत्य प्रतीत होता है।

हमें यह भी सोचना चाहिए, यदि हम अपने बच्चे को नहीं पढ़ाते हैं, तो वह मूर्ख रह जाएगा जिसे हम इस समाज को सौंप रहे हैं। समाज के लिए हमारा योगदान अच्छा ही होना चाहिए। ऐसे व्यक्ति का समाज में देना  अच्छा नहीं होगा। हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम समाज को कम से कम सुशिक्षित व्यक्ति तो सोंपें ही।

अब मैं इस शीर्षक से सम्बंधित एक और तथ्य जोड़ रहा हूँ। जैसा कि हरेक व्यक्ति शीघ्र ही सफलता चाहता है , तो हमें पता होना चाहिए कि ऐसा कैसे संभव है? यदि हम शीघ्र सफलता चाहते हैं तो हमें सांसारिक विज्ञान के साथ साथ अध्यात्मिक विज्ञान का भी अध्ययन करना चाहिए।
हमें अपनी वृद्धावस्था के विषय में भी विचारना चाहिए, यदि हमारे बच्चे सुशिक्षित हैं, हमें किसी भी प्रकार का दुःख नहीं मिलेगा। क्योंकि सुशिक्षित व्यक्ति सदा दूसरों के लिए सहायक होता है। वह निश्चित रूप से उस समय हमारे लिए सहायक होगा।

जैसा हमें पता है कि 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं' - हमें अपने सभी अच्छे या बुरे कर्मों का फल भोगना पड़ता है। हमें अपने बच्चों की शिक्षा के लिए धन खर्च करना चाहिए जिससे हमें भविष्य में प्रसन्नता का फल प्राप्त हो और हमारे बच्चे हमारे लिए धन कमाने में भी समर्थ हो सकें।
यह बच्चों कि शिक्षा के बारे में था। हमें उन्हें मेहनत से कमाए धन के द्वारा शिक्षा दिलानी चाहिए. और किसी भी कीमत पर उन्हें अशिक्षित नहीं रहने देना चाहिए। वरना हम उनके साथ शत्रुता का व्यवहार करते हैं।
धन्यवाद
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
9639277229
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भगवान के दर्शन कैसे हों?

योग के द्वारा हम भगवान के दर्शन कर सकते हैं. पहले मुझे शरीर के आठ चक्रों के बारे में कुछ बताना है. पहला मूलाधार नाम का चक्र हमारे शरीर में जननेंद्रिय के समीप होता है. दूसरा नाभि चक्र, नाभि के समीप होता है. तीसरा हृदय चक्र हमारे हृदय के समीप होता है. चौथा चक्र हमारे गले में कंठ चक्र नाम से होता है. पांचवां  चक्र हमारे नाक के स्थान पर नासिका चक्र नाम से होता है. छटा चक्र हमारे मस्तक में आज्ञा चक्र नाम से होता है. सातवां चक्र ब्रह्म रंध्र के नीचे होता है. जो ब्रह्म रंध्र हमारे शरीर में सबसे ऊपर खोपड़ी में स्थित होता है. आठवां चक्र हमारी रीढ़ में स्थित होता है जिसे पुष्प चक्र कहते हैं. हमारे शरीर में नौ रंध्र है जिन्हें हर कोई गिन सकता है.
हमारे शरीर में दस इन्द्रियां होती हैं जो कार्य करती हैं. पांच ज्ञानेन्द्रियाँ और पांच कर्मेन्द्रियाँ. मैं आपको बता रहा हूँ कि वे क्या हैं? पांच ज्ञानेन्द्रियाँ - १. त्वचा जिससे स्पर्श होता है. २. ऑंखें जिससे देखा जाता है. ३. नाक जिससे सूंघते हैं. ४. कान जो सुनते हैं. ५. जीभ जो स्वाद लेती है. अब अगली पांच कर्मेन्द्रियाँ ये हैं - १. हाथ २. पैर ३. मुंह जो खाता  है. ४. उपस्थ ५. गुदा. अब अगर हम योगी बनना चाहते हैं तो हमें अपनी ज्ञान और कर्म इन्द्रियों को संयमित करना होता है. अब मैं आपको अष्टांग योग के बारे में  बताऊंगा - इसमें हमें आठ प्रकार के कार्य पूरे करने होते हैं. पहला यम, फिर नियम, आसान, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधी. यम के बाद नियम आता है. जिसमें ये हिस्से हैं - शौच (सफाई और शुद्धि), संतोष(संतुष्ट रहना), तप (कठिन कार्यों को करना), ईश्वर प्रणिधान (भगवान का चिंतन), स्वाध्याय(अध्ययन). जब हम इन यम और नियमों को पार करते हुए आगे बढ़ते हैं तब हमें व्यायाम, आसान, प्राणायाम, धारणा (लक्ष्य को बंधना), ध्यान (एक लक्ष्य पर मन को बांध लेना) और समाधी(भगवान के साथ एक रस हो जाना) में क्रमशः आगे बढ़ना चाहिए. इस समाधी में हम ऐसी बहुत सी चीज़ें सीख सकते हैं जो कि सामान्य अवस्था में नहीं पता चल सकतीं. 
अब हम अपने प्राण व मन को एकाग्र करने योग्य हो जाते हैं. जिसके द्वारा एक यान बनता है. अब धीरे धीरे इस यान को (जिसमें आत्मा विराजमान है) मूलाधार से ऊपर के चक्रों में ले जाया जाता है. अंत में जब यह यान पुष्प चक्र में पहुँचता है तो हम परम पिता के दर्शन कर लेते हैं.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

सत्य

सभी धर्मों में यह सामान्य रूप से कहा गया है कि हमें सदा सत्य बोलना चाहिए. इसलिए इस शब्द का अपने वार्तालाप का विषय बनाना आवश्यक है क्योंकि मैं  आपसे हिन्दू संस्कृति के मुख्य शीर्षकों को शेयर करना चाहता हूँ.
जब हम सत्य बोला करते हैं तो हमारी वाणी बलयुक्त व प्रभावशाली बन जाती हैं. महर्षि श्रृंगी ने ८४ वर्ष तक एक भी शब्द झूंठ नहीं बोला था. जो कुछ भी वह कहते थे वह होना ही होता था. अगर वह किसी को मृत्यु दंड दे देते थे तो उसे मरना पड़ता था. इसी प्रकार महर्षि अत्री मुनि ने अपने जीवन में सत्य का १२० वर्ष तक पालन किया. अगर वह उडती चिड़िया को आने को कहते थे तो उसे उन के पास आना ही पड़ता था. हमारी वाणी में इतनी महान क्षमता है कि वह हमें भगवान तक ले जा सकती है. यही वजह है कि हिन्दू संस्कृति में भी सत्य बोलना बहुत ही आवश्यक माना गया है. जब हम असत्य अपनाते हैं तो हमारी वाणी बल खो देती है और कुछ समय बाद हम स्वतः सत्य कि महत्ता समझने लगते हैं. यदि हम योगी बनना चाहते हैं तो हमें अष्टांग योग अपनाना चाहिए जिसमें आठ भाग होते हैं. पहले भाग में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य आता है. इसको समूह रूप में यम कहते हैं-
अहिंसा - किसी को भी अपने मन, वचन या कर्म से कष्ट न देना
सत्य - सत्य वादिता
अस्तेय - हर प्रकार कि चोरी का त्याग
अपरिग्रह - अत्यंत लोलुपता और स्वत्वाभिमान 
ब्रह्मचर्य - स्त्रियों के दर्शन, स्पर्श और चिंतन से पृथक रहना
इसलिए एक योगी के लिए सत्य बोलना आवश्यक है. और यदि हम अपनी वाणी को बलयुक्त करना चाहते हैं तो हमें सत्यवादिता अपना लेनी चाहिए.
एक बात जो मैंने जानी  है कि वैज्ञानिकों और विद्यार्थियों को सत्य बोलना परम आवश्यक है. ज़रा सोचो जब हम सदा सत्य बोलते हैं, सत्य कि तरंगे ही हमारे पास आया करती हैं. हमारा सारा वातावरण सत्यता से भर जाता है. जो कोई भी हमारे संपर्क में आता है वह भी सत्य ही बोलता है. यहाँ पर कुछ ही लोग अपवाद हुआ करते हैं. इस वातावरण में हम सही-सही वास्तविक चीज़ें विचारने में सक्षम होते हैं. हमारे मस्तिष्क में कोई भी अवास्तविक तरंग नहीं टकराती. यही कारण है कि हम उस समय अपने में सत्य ज्ञान का अर्जन करते हैं. और तब हम अपने सपनों में भी समस्या सुलझाया करते हैं. निश्चित रूप से तब हमें स्वप्न भी सत्य तथ्यों पर आधारित विचार दिया करते हैं. और सत्य यह है कि इस वातावरण में हम बहुत कुछ उपलब्धि प्राप्त किया करते हैं. 
इसलिए प्यारे पाठकों! यदि आप कुछ उपलब्धि प्राप्त करना चाहते हो तो आपको सत्य बोलना चाहिए. अभी तो मैं  इतना नहीं लिख पा रहा हूँ, परन्तु मैं  आपको सत्य वादन से सम्बंधित और भी तथ्य  दूंगा यदि मुझे मौक़ा मिला.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

मंगलवार, 4 जनवरी 2011

वामनावतार

एक बार दैत्यों के राजा बाली ने यज्ञ करने प्रारंभ किये. वह एक बहुत बड़ा यज्ञ कर रहा था. जिसमें वह नाना वस्तुओं का दान कर रहा था. वह इस भूमि, पाताल और आकाश तीनों लोकों का स्वामी था इसलिए त्रिलोकपति कहलाता था. ऐसा कोई स्थान नहीं था जहाँ पर उसका राज्य नहीं था. सभी देवता उससे डरते थे. जब देवताओं के राजा इन्द्र ने भगवान  विष्णु से प्रार्थना की तो उनहोंने पृथ्वी पर वामनावतार के रूप में जन्म लिया. वामनावतार भगवान  विष्णु के अनेक जन्मों में से एक जन्म है. अन्य जन्म राम, कृष्ण व नरसिम्हा आदि हैं.
वह उस स्थान पर गए जहाँ पर बाली यज्ञ करने और दान देने में व्यस्त था. बाली  के गुरु शुक्राचार्य ने बाली को संकेत कर दिया था कि अगर कोई तुम से ब्राह्मण   के रूप में दक्षिणा लेने आए  तो  उसे  कुछ न देना. परन्तु जब वामनावतार ब्राह्मण के रूप में बाली के समक्ष आये और उनहोंने उससे एक वर माँगा तो उसने तुरंत स्वीकार कर लिया और कहा कि वे जो चाहें मांग सकते हैं. यह सुनकर वामन ने चार पग भूमि मांगी. उसने यह बहुत ही आसान कार्य जाना और सहमति दे दी. अब क्योंकि वामन वास्तव में विष्णु जी थे, उनहोंने एक पग में पूरे आकाश लोक (स्वर्ग) को नाप लिया. दूसरे में पाताल और तीसरे में पूरी पृथ्वी नाप ली. और फिर बाली से पूछा कि चौथा पैर कहाँ रखें? उसने चौथा पैर अपने सर पर रखने को कहा. वामन ने वहीँ किया और चौथे पग से बाली को पाताल पुरी (अमेरिका) पहुंचा दिया.
प्यारे पाठकों! वास्तविक अर्थ जो इस कहानी के पीछे छिपा है वह बहुत स्पष्ट और काबिल-ए-तारीफ है. जब यहाँ आधी पृथ्वी पर अंधकार होता है और बलि(रात्रि) का साम्राज्य होता है तथा आकाश और पाताल में भी रात्रि का साम्राज्य होता है. लोग (इन्द्र) भगवान  (विष्णु) से प्रार्थना करते  हैं कि प्रभु हमें इस अन्धकार से पृथक करो यह हमें कष्ट देता है. सूर्य वामन को कहते हैं क्योंकि वामन का अर्थ होता है जो वमन(उल्टी)  करे. यह प्रकाश और ऊष्मा का उत्सर्जन करता है इसलिए इसे वामन कहते हैं. सुबह को इसकी उषा  नाम की प्रथम किरण पृथ्वी से बाली(रात्रि) के साम्राज्य को छीन लेती है. द्वितीय किरण(पग) पाताल  व तृतीय किरण आकाश लोक में जाकर उसका राज्य समाप्त करती है तथा चौथे पग से अन्धकार को पातालपुरी (अमेरिका) में धकेल देती है. इस प्रकार वामन का राज्य पूरे संसार पर हो जाता है.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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शनिवार, 1 जनवरी 2011

अहिल्या

हमारी धार्मिक पुस्तकों में एक कहानी दी हुई है जो गौतम, इन्द्र और अहिल्या के बारे में है. देखते हैं इसमें क्या कहा गया है-
ब्रह्म ने अहिल्या का निर्माण किया. जब देवताओं के राजा इन्द्र ने उसकी सुन्दरता को देखा तो उसने ब्रह्म से अहिल्या को मांग लिया. ब्रह्म ने उसको उसे देने का वचन देदिया. कुछ दिनों बाद जब  अहिल्या युवती हो गयी तो ब्रह्मा ने उसे ऋषि गौतम को, इन्द्र को देने के लिए सोंप दिया. वह अपूर्व सुंदरी थी. इसलिए गौतम ने उसको इन्द्र को नहीं दिया तथा उसका पाणिग्रहण अपने साथ ही कर लिया. जब इंद्र को यह पता चला कि उसकी अहिल्या गौतम के पास है तो वह चन्द्रमा के साथ गौतम के आश्रम में आया. वहां पर इंद्र मुर्गा बना और आधी रात को ही बोल पड़ा. चन्द्रमा को द्वारपाल बनाया कि अगर गौतम लौटे तो वह इन्द्र को सूचित कर सके. और इंद्र ने गौतम का छद्मवेश धारण कर के अहिल्या के साथ छल किया.
उधर गौतम मुर्गे कि आवाज़ सुन ब्रह्म मुहूर्त समझ गंगा नदी पर स्नान के लिए जब पहुंचा और उसने अपना कमंडल भरने के लिए उसे नदी में डाला, तो माता गंगा बोलीं, "अरे भाई! तुम इस समय यहाँ क्या कर रहे हो?"
"माता गंगा! में यहाँ प्रतिदिन सुबह को स्नान के लिए आया करता हूँ. लेकिन आप ऐसा प्रश्न क्यों पूछ रही हो?"
"गौतम! अभी तो अर्धरात्रि ही है. अपने घर वापस जाओ क्योंकि राजा इंद्र तुम्हारी पत्नी के साथ छल कर रहा है."
अब गौतम फ़ौरन जल्दी जल्दी अपने घर कि और को लौटे.जब वह वहां पहुंचे तो उनहोंने चन्द्रमा को प्रहरी के रूप में पाया. उन्होंने अपने गीले वस्त्र चन्द्रमा को सोंप दिए. इसीलिए चन्द्रमा गदला हो गया. अब वह कुटिया के अन्दर गए और अहिल्या को वज्र कि होने का श्राप देदिया. और इंद्र को श्राप दिया कि तू सहस्रों भागों वाला हो जा.
मेरे मित्रों! हमें इस कहानी के बारे में सोचना चाहिए. इस के पीछे छुपा मुख्या तथ्य यह है कि गौतम चन्द्रमा को कहते हैं. इंद्र सूर्य को कहते हैं. रात्री के समय चन्द्रमा(गौतम) रात्रि (अहिल्या) का उपभोग करता है और उसको प्रकाश देता है. साथ साथ वह वनस्पतियों में रस का भरण भी करता है. जब सूर्य(इंद्र) आता है तो वह रात्रि का उपभोग करके वहां प्रकाश ही प्रकाश फैला देता है. साथ साथ वह वनस्पतियों से रसों का शोषण भी किया करता है. यह इस लेन देन की विचित्र क्रिया के द्वारा वनस्पतियों में फल आदि को पकाया करते हैं. सूर्य सहस्रों किरणें रखता है इसलिए इसे सहस्रों भगों वाला कहते हैं.
अब मैं यहीं कलम रोकता हूँ. इस कहानी के पीछे छिपी शिक्षा अब आप को स्पष्ट होगी. मैं अब आप से अगली पोस्ट में और नए अलंकारों के साथ फिर मिलूँगा.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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विजय कैसे प्राप्त करें?

आज मैं विदुर नीति में दिए कुछ तथ्य प्रकट करना चाहता हूँ जो कि महात्मा विदुर के द्वारा लिखी गयी है. वे महाभारत कल के महाराज ध्रतराष्ट्र के सबसे छोटे भाई थे. विदुर नीति से लिए गए एक श्लोक को देखें-
अभिवादन शीलस्य नित वृद्धोप सेविन चत्त्वारी तस्य वर्धयानते आयुर्विद्या यशोबलम.
एक व्यक्ति जो सदा वृद्धों को नमस्कार करता है, उनकी सेवा करता है; अपनी उम्र, ज्ञान, प्रसिद्धि व बल को बढाता है. आप यह सोचेंगे कि यह कैसे संभव है? लेकिन यह अक्षरशः सत्य है. जो लोग वृद्धों के पैरों को छूता है वह ज्ञान तो प्राप्त तो करता ही है, बल प्राप्त करने का ज्ञान भी प्राप्त करता है. और उन के द्वारा प्रशंसा को प्राप्त करता है. आयु को बढ़ने कि विधियाँ भी जान जाता है. इसी कारण विदुर जी ने यह श्लोक लिखा है. यह बात एक तरह कि युक्ति कि भांति है, जो ऐसा करता है उसे इस के अनुकूल फल भी मिलता है.
इस पुस्तक में उनहोंने यह भी कहा है कि किस प्रकार हम अपने मित्र, शत्रु और उदासीन व्यक्तियों पर विजय प्राप्त कर सकते हैं.
चार प्रकार के कार्य हैं जिनके द्वारा हम दूसरों का हृदय जीत सकते हैं- साम, दाम, दंड और भेद. साम(प्रशंसा), दाम(धनादि देकर), दंड(दण्डित करके) और भेद(फूट डालकर). माना हम अपने शत्रु पर विजय पाना चाहते हैं तो हमें उसे किसी प्रकार कि कटु बात नहीं कहनी चाहिए बल्कि उसकी अच्छी बातों कि प्रशंसा करनी चाहिए. हमें उसको प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कुछ देना भी चाहिए तथा इस प्रकार कि युक्तियाँ प्रयुक्त करनी चाहिएं कि वह अपने साथियों को बढ़ा न सके जिससे वे जुड़ न पायें अर्थात उनके बीच फूट दाल देनी चाहिए. दूसरी बात, अगर हम किसी को विजय करना चाहते हैं तो हमें ये युक्तियाँ प्रयोग करनी चाहिएं-
यान, आसन, समाश्रय, संधि, द्वैतिभाव व विग्रह.
यान का अर्थ है कि यदि सारी परिस्तिथियाँ हमारे अनुकूल हों तो हमें फ़ौरन उस पर प्रहार कर उसको विजय करना चाहिए. आसन का अर्थ है कि यदि अनुकूल परिस्तिथियाँ न हों तो शांत रहना चाहिए. समाश्रय का अर्थ यह है कि उससे से बड़े व्यक्ति का आश्रय लेना. संधि का अर्थ यह है कि जब आवश्यकता हो तो हमें उससे मित्रता कर लेनी चाहिए. द्वैतिभाव का अर्थ यह है कि हमें ऊपर से मित्रता और भीतर से वहीँ शत्रुता का भाव बनाये रखना चाहिए. उसे हृदय से मित्र न बना कर केवल बातों से ही मित्र बनाये रखना चाहिए. विग्रह का अर्थ यह है कि आवश्यकतानुसार उससे मित्रता या संधि तोड़ लेनी चाहिए.
आप ये युक्तियाँ किसी के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं. अब में अपना कलम बंद कर रहा हूँ.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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ज्ञान, कर्म और उपासना

हमारी धार्मिक पुस्तकों में एक कथानक पाया जाता है इसकी व्याख्या हमारे जीवन के लिए बहुत आवश्यक है एक समुद्र के किनारे एक पेड़ पर एक टिटहरी रहती थी। उसने अपने घोंसले में दो अंडे दिए। वह अपने इन अण्डों को बहुत प्यार करने लगी। एक बार जब समुद्र में ज्वार आया तो अंडे बहकर समुन्द्र में चले गए। जब टिटहरी लौटी तो उसने अपने अण्डों को वहां पर नहीं पाया। उसने फ़ौरन  अनुमान लगा लिया कि अण्डों को दुष्ट समुद्र ने ही निगल लिया है। अब वह समुद्र के किनारे की बालू को अपनी चोंच में उठा उठा कर समुद्र में डालने लगी जिससे वह जलनिधि सूख जाए। अगस्त्य नाम के ऋषि उधर से गुज़र रहे थे उन्होंने यह देख कर उससे पूछा , "हे देवी! तुम ये क्या कर रही हो?" वह बोली भगवन! इस समुद्र ने मेरे अण्डों को निगल लिया हे इसलिए में इसे सुखा दूंगी।" अगस्त्य बोले, "तुम ऐसा नहीं कर सकती हो। यह काम तुम्हारे लिए असंभव है। लेकिन मैं  इस विशाल जलनिधि को मात्र तीन अचमानों  में पी सकता हूँ।" उनहोंने ऐसा ही किया और फिर उपस्थ के द्वारा सारा जल बाहर निकाल दिया तथा योग के द्वारा अण्डों को बाहर निकाल कर उनकी रक्षा की। कहा जाता है कि समुद्र तब से ही खारी है।


इस कथानक को सभी लोग ऐसा का ऐसा ही मान लेते हैं। परन्तु मैं  इस के पीछे छुपे रहस्य पर प्रकाश डालना चाहता हूँ तभी आप लोग इस रहस्य को समझने में समर्थ होंगे। टिटहरी आत्मा को कहते हैं और उसके दो प्रिय पुत्र मन और बुद्धि हैं जब ये दोनों संसार रूपी सागर में पूर्णतः भ्रमित हो जाते हैं तो आत्मा अपने पुत्रों की  रक्षा के लिए ज्ञान रूपी कणों को संसार में डाला करती है। लेकिन इस तरह संसार को विजय करना असंभव है। कुछ समय पश्चात विवेक उत्पन्न होता है जिसका अर्थ है "सत्य व असत्य का ज्ञान"। और वे तीन आचमन हैं ज्ञान, कर्म और उपासना के। विवेक आने पर मानव ज्ञान, वृद्धि, श्रेष्ठ कर्म तथा उपासना में अपने को मग्न कर लेता है और संसार को खारी समझ कर उसे त्याग देता है। इस प्रकार मन व बुद्धि की रक्षा होती है।

इसलिए भाइयों बहनों! यदि आप इस संसार को विजित करना चाहते हैं तो ये आचमन अपनाओ  तभी आप लोग इस दुःख से भरे संसार को त्यागने में समर्थ होंगे और सफलता व  आनंद को प्राप्त कर सकेंगे।

वेदों में सत्य ही कहा है कि -

ॐ कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समाः एवं त्वयि नान्य थेतोSस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥यजुर्वेद।४०।२॥



अर्थात् अच्छे कर्मों को करते ही करते सौ  वर्षों तक जीने कि इच्छा रखें कभी ख़ाली न रहें।

ऋषि अगस्त्य का द्वितीय आचमन कर्म है। इसी प्रकार और दोनों आचमन ज्ञान व उपासना भी वेदों में मिलते हैं।

अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए गुरु, आर्ष पुस्तकों, प्रकृति व अपनी स्वयं की आत्मा का सहारा लेवें व ज्ञान बाँटना भी अपना कर्तव्य जानें। उपासना का अर्थ है परमात्मा के निकट होना। परमात्मा की उपासना के लिए नित्य योग, संध्या व उनके गुणों का गुणानुवाद करना चाहिए।

इसप्रकार  मूल विचार यह हुआ कि "ज्ञान, कर्म और उपासना" सफलता की कुंजी हैं।




ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
(लेखक)
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