सोमवार, 30 जनवरी 2017

तीन तत्वों (प्रभु, प्रकृति व आत्मा) को जान, उपासना करने का फल

ओ३म्


तीन तत्वों (प्रभु, प्रकृति व आत्मा) को जान, उपासना करने का फल

विनाशशील जड़वर्ग जिसे भगवान् की अपरा प्रकृति तथा क्षरतत्व कहा गया है और भगवान् की परा प्रकृतिरूप जीवसमुदाय, जो अक्षरतत्व के नाम से पुकारा जाता है- इन दोनों के संयोग से बने हुए, प्रकट (स्थूल) और अप्रकट (सूक्ष्म) रूप में स्थित इस समस्त जगत् का वे परमपुरुष पुरुषोत्तम ही धारण-पोषण करते हैं, जो सबके स्वामी, सबके प्रेरक तथा सबका यथायोग्य संचालन और नियमन करनेवाले परमेश्वर हैं। जीवात्मा इस जगत् के विषयों का भोक्ता बना रहने के कारण प्रकृति के अधीन हो इसके मोहजाल में फँसा रहता है, उन परमदेव परमात्मा की ओर दृष्टिपात नहीं करता। जब कभी यह उन सर्वसुह्रद् परमात्मा की अहैतुकी दया से महापुरुषों का संग पाकर उनको जानने का अभिलाषी होकर पूर्ण चेष्टा करता है, तब उन परमदेव परमेश्वर को जानकर सब प्रकार के बंधनों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं, जीव अल्पज्ञ और अल्प शक्तिवाला है, ये दोनों ही अजन्मा हैं। इनके सिवा एक तीसरी शक्ति भी अजन्मा है जिसे प्रकृति कहते हैं, यह भोक्ता जीवात्मा के लिए उपयुक्त भोगसामग्री प्रस्तुत करती है। यद्यपि ये तीनों ही अजन्मा हैं- अनादि हैं, फिर भी ईश्वर शेष  दो तत्वों से विलक्षण हैं, क्योंकि वे परमात्मा अनन्त हैं। सम्पूर्ण विश्व उन्हीं का स्वरूप - विराट् शरीर है। वे सब कुछ करते हुए- सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करते, क्योंकि वे कर्तापन के अभिमान से रहित हैं। मनुष्य जब इस प्रकार इन तीनों की विलक्षणता और विभिन्नता को समझते हुए ही इन्हें ब्रह्मरूप में उपलब्ध कर लेता है अर्थात् प्रकृति और जीव तो उन परमेश्वर की प्रकृतियाँ हैं और परमेश्वर उनके स्वामी हैं- इस प्रकार प्रत्यक्ष कर लेता है तब वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

प्रकृति तो क्षर अर्थात् परिवर्तन होनेवाली, विनाशशील है और इसको भोगनेवाला जीव-समुदाय अविनाशी अक्षरतत्व है। इन क्षर और अक्षर (जड़ प्रकृति और चेतन जीव-समुदाय) - दोनों तत्वों पर एक परमदेव परमेश्वर शासन करते हैं, वे ही प्राप्त करने के और जानने के योग्य हैं, उन्हें तत्वों से जानना चाहिए - इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उन परमदेव परमात्मा का निरंतर ध्यान करने से, उन्हीं में रात-दिन संलग्न रहने और उन्हीं में तन्मय हो जाने से अन्त में यह उन्हीं को पा लेता है। फिर इसके सम्पूर्ण माया की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है, अर्थात् मायामय जगत् से इसका संबंध सर्वथा छूट जाता है।


साभार - ‘श्वेताश्वतरोपनिषद् ।।1।8-9-10।।

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ब्रह्मचारी अनुभव आर्यन्

चाणक्य नीति

ओ३म्

चाणक्य नीति से कुछ मोती 


शत्रु, मित्र व उदासीन इन तीन को साम, दाम, दंड व भेद इन चार से वश में करें।



साम नीति: किसी के गुणों की प्रशंसा करना साम कहलाता है।

भाइयों बहनों दूसरे के एक गुण की प्रशंसा करने पर भी उसका रझान आप की ओर हो जाता है। अर्थात् इस नीति से किसी को भी अपने वश में किया जा सकता है ।

जिस आचार्य चाणक्य ने अपना अपना अपमान होने पर पाकिस्तान से भी बड़े राजा  घनानन्द के राष्ट्र का सर्वनाश कर दिया था। उनही की नीतियाँ हैं ये । इनको कन्ठस्थ कर लें तो आप भी ऐसे बन जाओगे ।

साम अर्थात् किसी के गुणों का गुणानुवादन। सबसे पहले अपने इष्ट मित्रों पर इसका उपयोग करें और प्रभाव को महसूस करें। यह प्रैक्टिकल होगा। हाँ प्रयोग करते समय व्याख्या न करें कि हम तुम पर साम नीति चल रहे हैं। फल मिलेगा। विदुर जी ने इसे अत्युत्तम नीति बताया है।


प्रश्न: साम किसे कहा जाता है.??

पहली बार कब साम शब्द का प्रयोग किया गया था.?

उत्तर:साम का अर्थ है गुण गान अर्थात् किसी के गुणों की प्रशंसा में बोलने वाले शब्द चाहे वे कसीदे हों या गद्य में। आज से १,९७,२९,४९,११६ वर्ष पहले परमात्मा ने सूर्य व पृथ्वी बनाए। १,९६,०८,५३,११६ वर्ष पहले परमात्मा ने मानव जाति का पृथ्वी पर जन्म दिलाया। तभी वेद भी दिये। सामवेद में औषधि, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि व परमात्मा की प्रशंसा अर्थात् गुणानुवादन किया गया है अतः यह शब्द तभी प्रथम बार प्रयोग हुआ। लगभग दो अरब वर्ष पहले ।

दाम नीति: वस्त्र आभूषण आदि से स्त्रियों को तथा उपहार आदि से सभी को प्रसन्न रखना।। आदि।।

भेद नीति: अपने मित्रों को अपने से अलग न होने देना  तथा एक दूसरे की अच्छाई व बुराई आदि बता कर के दो शत्रुओं को आपस में संधि न होने देना जिससे कहीं दुष्ट शत्रु अधिक बलवान न बनने पाए  ।।

ये दोनों नीतियां महात्मा विदुर ने मध्यम श्रेणी की बताई हैं।  यदि उत्तम साम नीति से काम न चले तब ही इन्हें प्रयोग करना चाहिए।

समय समय पर हमारे यहाँ गिफ्ट करने की प्रथा है यह भी दाम नीति का अंग पारम्परिक रूप से समाज में प्रचलित है। हमें समय समय पर धन, उपहार, ज्ञान व धन दान आदि करके इच्छित शत्रु मित्र वा उदासीन को अपने वश में रखना चाहिए ।

कहते हैं समझदार को इशारा ही काफी है इसलिए इतने को ही आप विस्तार कर लेंगे यह उम्मीद है। इन नीतियों को परमात्मा ने वेद में कहा है सृष्टि के प्रारंभ से चली आ रही हैं।

भेद नीति के तहत अपने मित्रों को किसी अन्य से मित्रता अधिक न बढ़ाने देवें फूट डालकर मित्रों को अपने अधीन रखें।

शत्रुओं के बीच में फूट डाल देना चाहिए जिससे वे आप से बलवान न होने पाएँ। शत्रु को अपने शत्रु से मिलने ना दें इस नीति की सहायता से ।

दंड नीति: मित्र आदि भी यदि धर्म विरुद्ध कभी चलें तो उनको यथार्थ दंड़ देकर उनकी नित्य उन्नति कराना ।
दुष्ट शत्रु को परिस्थिति अपने पक्ष में होने पर दंड देकर उसे सबक सिखाना ।।

हाथ में आए दुष्ट शत्रु को यथोचित दंड दिये बिना न छोड़ना।

महात्मा विदुर जी ने इस दंड को अधम नीति बताया है। उत्तम साम, मध्यम दाम व भेद तथा दंड अधम कोटि का है।



शत्रु को पराजित करने की विधि ६ हैं - आसन, यान, संधि, विग्रह, द्वैति भाव व समाश्रय  १- आसन वह यह है  ....


१- आसन ... अर्थात् चुप्पी साध लेना ।। यदि शत्रु आदि से कम बल हो तो भी अधिक हो तब भी उचित समय का इंतजार करें और मौन बल का प्रयोग करें यही आसन है  इसका तोड़ नहीं।।

२-यान -उचित अवसर तथा अपना बल दुष्ट शत्रु से दुगना चौगुना होने पर आक्रमण कर के उसे जीत लेना।। हाथ में आये दुष्ट शत्रु को अवश्य ही यथोचित दंड देना चाहिए।।

३- संधि -शत्रु से मित्रता कर लेना परंतु अपने शुभ गुण तथा शुभ नियमों से कभी न भटकना।।

४- विग्रह - अपने पास पर्याप्त बल एकत्र हो जाने पर या दुष्टता बढ़ जाने पर शत्रु से संधि तोड़ लेना।।
चुप रह कर अपना बल बढ़ाते रहना। हमारी चुप्पी के कारण हमारा दुष्ट शत्रु एक्टिव रहेगा और ईर्ष्या, भय, अधिक चिन्तन के कारण अपना बल खोता रहेगा इधर हम शान्त व प्रसन्न रहकर इस नीति को प्रयोग करें तो हमारा बल उससे कई गुना हो सकता है।

परिस्थिति अनूकूल न होने तक आसन प्रयोग करें ।

जब बल की मात्रा अपने पक्ष में हो तब ही यान प्रयोग करें पहले नहीं। शत्रु की बल-कमजोरी अर्थात् बलाबल को जान इस प्रकार आक्रमण कर उसे वश में करें कि निश्चित तौर पर जीत  ही हो वरना यान प्रयोग न करें।

यदि दुष्ट शत्रु सदाचार पर चले व धर्म विरोध न करता हो तो उससे मित्रता कर लेवें अर्थात् संधि ।

कुछ विशेष परिस्थितियों में भी मित्रता कर लेवें। यह गूढ़ विषय है।

दुष्ट शत्रु से संधि अधिक नहीं चलती। साम दाम आदि नीतियां जारी रखें।। उसकी दुष्टता बढ़ने पर व अनुकूल परिस्थितियां देख कर विग्रह कर लें।

अर्थात् संधि तोड़ लेवें!!!

५- द्वैतिभाव- भीतर से शत्रुता व बाहर से मित्रता रखना।।

६- समाश्रय-समाश्रय का अर्थ है अपने दुष्ट शत्रु से बलवान पुरुष या शत्रु के बलवान शत्रु की शरण ले लेना।


आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव आर्यन 

शनिवार, 28 जनवरी 2017

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - 10

ओ3म्
जय गुरूदेव
महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - 10


साहित्य और चरित्र को शुद्ध बनाओ

हे ब्राह्मणों! आओ तुम पुनः से अपने पात्रों को शुद्ध बना लो। यदि आधुनिक काल का ब्राह्मण पात्रों को शुद्ध बना लेगा तो साहित्य जीवित रह सकेगा, अन्यथा समाज का, आर्यत्व का साहित्य पतित हो गया है तो उनके द्वार रह क्या गया है? महाभारत के काल में परीक्षित काल के पश्चात् यह अज्ञानता आई। जो वाममार्ग आया, इसमें धर्म और वैदिकता को नष्ट करने के लिए वह तत्पर रहे। यहाँ तक कि वेदों के भाष्यकारों में भी मांस भक्षण की त्रुटि आई। जहाँ वेद में कोई भी मंत्र, कोई भी शब्द उस प्रकार का नहीं है, जिसमें मांस भक्षण करने की वृत्ति मानव की बनाई जाये। आयुर्वेद का जहाँ प्रसंग है वह द्वितीय प्रसंग है। विचारना यह है कि उन कारणों को विचारे जिन परंपराओं में हमारे साहित्य के जो पात्र हैं उनको अशुद्ध किया गया। उन्हीं पात्रों को लेकर आधुनिक काल में तार्किक पुरुषों ने इन साहित्यों को नष्ट करके अपने आप में उपाधियुक्त बनते चले जा रहे है। क्योंकि जब साहित्य के पात्र अशुद्ध हो जाते हैं तो अज्ञानी पुरुष, तार्किक पुरुष बन जाते हैं, वे नास्तिकवाद में परिणत होते हुए पात्रों को भ्रष्ट रूप में दृष्टिपात करके अपनी उपाधियों को प्राप्त किया करते हैं। आज हमंे पुनः इनके शुद्ध रूप को लाने के लिए सदैव प्रयास करना है।

रामायण और महाभारत के पात्र

आधुनिक काल में जिस साहित्य को दृष्टिपात किया जाता है उनमें रामायण के पात्रों को भी बौद्ध काल और जैन काल में भ्रष्ट किया गया। मुहम्म के मानने वाले मुस्लिम काल में भी उनको ह्रासता में परिणत कराया गया उनके ऊपर नाना प्रकार की टिप्पणियाँ कीं। महात्मा बुद्ध और जैन समाज से पूर्व वाममार्ग समाज का एक वृत्त था और राष्ट्र में उनकी पताका थी। उन्होंने जो अट्ठारह पुराण कहलाए जाते हैं उनकी रचना कराई।  जो हमारा पुरातन साहित्य है, हमारी जो पुरातन ऋषि मुनियों की सूक्ष्म प्रणालियाँ हैं, राजाओं की परंपरा है वह त्याग कर वह वाममार्गियों ने मांस भक्षण करने की यागों में मांस की आहुति देने की परंपरा प्रारंभ की। जैसे गौमेध याग में गौ के मांस की आहुति देना। अजामेध याग में बकरी के मांस की आहुति देना और अश्वमेध याग मे घोड़े की आहुति देना, देव याग में मानव के मांस की आहुति देना, इस प्रकार की जो परंपरा चली जिसमें उन्होंने मांस भक्षण के लिए, अपनी रसना के आनंद के लिए धर्म और मानव को भ्रष्ट करने के लिए मिश्रण किया। आज जब मैं वाममार्ग के क्षेत्र में जाता हूँ तो मुझे भ्रांति उत्पन्न होने लगती है। परंतु द्रव्य की लोलुपता के कारण वे रूढ़िवाद में परिणत हो गये। उन्होंने राम के साहित्य को नष्ट किया तथा महाभारत के पात्रों को भी विकृत किया। महाभारत के काल में द्रौपदी, पितामह भीष्म, गांधारी, पांडव पुत्रों तथा धृतराष्ट्र के पुत्रों के संदर्भ में बड़ी विचित्र गाथाएँ चलित की गई हैं और उन पात्रों में अशुद्धियों का समावेश किया गया है। आज से लगभग चार हजार वर्ष पूर्व एक चेतांग नाम का ब्राह्मण हुआ और एक रमाशंकर नाम का ब्राह्मण हुआ जैन समाज और बौद्ध समाज ने दोनों को द्रव्य देकर महाभारत के पात्रों को विकृत बनवा दिया । महाभारत के जो पात्र हैं उनको अशुद्ध बनाया (अर्थात् मूल महाभारत ग्रंथ में परिवर्तन करवा दिया)। उसी काल में रेनकेतु नाम के ब्राह्मण थे और एक स्वाति नाम के ब्राह्मण थे इन्होंने रामायण के पात्रों को विकृत किया (अर्थात् मूल रामायण के ग्रंथ में परिवर्तन करवा दिया)। इसी प्रकार हमारे साहित्य में समय-समय पर अनेक प्रक्षेप करके साहित्य को ही नष्ट करने का प्रयास किया जाता रहा है।

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अगले पोस्ट में - रूढ़िवादी काल व संस्कृति पर आघात

आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव आर्यन्

संगीत का जीवन में महत्व व तबले का जन्म

संगीत का जीवन में महत्व व तबले का जन्म



संगीत से चंचल मन एकाग्र चित्त होता है तथा संगीत एक भक्ति करने की कला है। संगीत के द्वारा हम भगवान का ध्यान आसानी से लगा सकते हैं। प्राचीन काल में ऋषि मुनियों ने संगीत के द्वारा ही भक्ति रस प्राप्त किया है। आज (आधुनिक काल में) भी हमारे जीवन में संगीत का अत्यधिक महत्व है। भक्ति संगीत के द्वारा ही हम आजकल भक्ति करते लोगों को अधिकता से देखा करते हैं जैसे - माँ भगवती का जागरण, कृष्ण व राम के भजन हम संगीत के माध्यम से गाते बजाते हैं जिसमें शास्त्रीय संगीत का प्रयोग भी किया जाता है। इस शास्त्रीय संगीत का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में रागों को गाने-बजाने से भी संगीत को आगे ले जाया जा रहा है। विशेष रूप से शास्त्रीय संगीत ही संगीत की नींव है।

भारतीय संगीत में गायन, वादन तथा नृत्य के साथ लय-ताल संबधी वाद्यों का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता चला आ रहा है। उप्लब्ध प्राचीन संगीत के इतिहास में इन वाद्यों का प्रयोग हमें कही-कहीं देखने को मिलता है। पौराणिक कथाओं में भी ऐसे वाद्यों की चर्चा हुई है। प्राचीन काल के जिन ताल संबंधी वाद्यों का उल्लेख मिलता है उनमें आघाती, आदम्बर, वानस्पति, भेरी, दर्दुर, ढोल, नगाड़ा तथा मृदंग आदि मुख्य हैं। मृदंग या पखावज का तो प्रयोग आज भी कभी-कभी देखने को मिलता है और ढोलक का प्रयोग उत्तर भारत के लोक गीतों के साथ खूब किया जाता है। आधुनिक युग के ताल संबंधी वाद्यों में सबसे प्रमुख स्थान तबले को प्राप्त है। इसकी उत्पत्ति के विषय में अनेक मत हैें। कुछ विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल के दुर्दुर नामक वाद्य का आधुनिक रूप तबला है। कुछ लोग तबले के जन्म का संबंध फारस के वाद्य तब्ल या तबल से जोड़ते हैं। तब्ल फारसी का शब्द है। जिसका अर्थ संदूकची है, पिटारी या खाल से मढ़ा हुआ एक पक्षीय वाद्य है। आधुनिक दाहिने-बाँये की जोड़ी तबला का इससे संबंध जोड़ना उचित नहीं है। कुछ अन्य लोगों के अनुसार यवनों ने भारतीय वाद्य पखावज को दो टुकड़ों में काटकर तबला और डग्गे का निर्माण किया। यह कथन भी अस्वाभाविक जान पड़ता है, क्योंकि कोई वाद्य बीच से कट जाने के बाद वादन के योग्य नहीं रह जाता।

कुछ लोग तबला का संबंध प्राचीन काल के ऊध्र्वक, दर्दुर तथा अन्य आकृति वाले वाद्यों से जोड़ते हैं, परंतु उन वाद्यों की वादन पद्धति का विवरण प्राप्त न होने के कारण उनसे तबले का संबंध जोड़ना उचित नहीं जान पड़ता।

बहुत से लोगों की यह धारणा है कि बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के राज्यकाल के प्रसिद्ध फारसी कवि अमीर खुसरो ने तबला वाद्य को निर्माण दिया। इतिहासकारों और शोधकर्ताओं ने इसका सभी का खंडन किया है, क्योंकि अमीर खुसरो का समय तेरहवीं शताब्दी माना जाता है और उसके बाद के किसी ग्रंथों में तबला वादक या तबला वाद्य की चर्चा तक नहीं मिलती। अतः तबले का इतना प्राचीन होना प्रमाणित नहीं होता।

उत्तरी भारत के पूर्व मध्य युग में ध्रुवपद-ध्मार जैसे गंभीर गायन शैली का प्रचार था, जिसके साथ पखावल का प्रयोग किया जाता था। परंतु उसके पश्चात् उत्तर भारत में राज्य परिवर्तन हुआ। मुगल बादशाहों के हाथ में शासन की बागडोर गई और धीरे-धीरे लोगों की मानसिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन होने लगा। उसके प्रभाव से संगीत अछूता न रह सका। जौनपुर के सुल्तान हुसेन शर्की ने बड़े ख्याल को तथा अमीर खुसरो ने कव्वाली के आधार पर छोटे ख्याल को जन्म दिया, जो ध्रुवपद गायन की अपेक्षा कहीं अधिक कोमल तथा मधुर गायन शैली था। उस नवीन गायकी के साथ पखावज जैसे गंभीर तथा जोरदार वाद्य का बजाया जाना उपयुक्त न था। फलस्वरूप किसी मधुर ताल वाद्य की आवश्यकता पड़ी और संभवतः उसी आवश्यकता ने तबले को जन्म दिया।

उपरोक्त विवरण की पुष्टि में आचार्य कैलाश चन्द्र देव बृहस्पति का यह मत विचारणीय है- संगीत प्रिय बादशाह महम्मद शाह रंगीले के समय में एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ नियामत खाँ थे, तो अपने उपनाम सदारंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं के छोटे भाई का नाम खुसरो खाँ था। तबले के अविष्कार का श्रेय इस खुसरो खाँ को है, जिनका समय 1719 से 1748 ई0 के आस पास का है। यह मुहम्मद शाह रंगीले के राज्य का है।

एक अन्य विद्वान के अनुसार मुगल बादशाह मुहम्मद शाह (दूसरे) (समय 1738 ई0 के आसपास) के समय एक प्रसिद्ध पखावज वादक हुए, उनका नाम रहमान खाँ था। उनके दूसरे पुत्र का नाम अमीर खुसरो था। जिन्होंने सदारंग से कुछ समय तक ख्याल गायन की शिक्षा ली और इस गायन शैली की संगति के लिये ही उन्होंने तबला नामक एक अधिक उपयुक्त वाद्य का निर्माण किया।

ऊपर दिये गये तथ्यों के अनुसार तबला निर्माण का समय 18 वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में माना जाना चाहिए और उसका आधार वाद्य पखावज ही स्वीकार करना चाहिए। इस नव-निर्मित वाद्य में अनेक सुधार करने का श्रेय सिद्धार खाँ नामक कलाकार को जाता है। उन्होंने ही पखावज के बोलो को तबले पर बजाये जाने योग्य परिवर्तित किया। दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन तबले के वाम-भाग (डग्गा) में पक्की स्याही का प्रयोग करके किया। पहले पखावज के बाँये के समान तबले के बाँये या डग्गे में भी गुँथा हुआ आटा लगाया जाता था। उसका परिणाम यह होता था कि ढोलक के समस्त अंगों का तबले पर प्रदर्शन संभव हो गया। उस्ताद सिद्धार खाँ के शिष्यों और पुत्रों ने तबला-वादन की शैली को आगे बढ़ाया और तबले के प्रथम घराना दिल्ली घराने की नींव डाली।


- श्री राधेश्याम शर्मा

बुधवार, 25 जनवरी 2017

सुविचार भाग 5

यजुर्वेद।।5।21।।

मनुष्यों को योग्य है कि इस सब जगत का परमेश्वर ही रचने और धारण करने वाला व्यापक इष्ट देव है ऐसा जान कर सब कामनाओं की सिद्धि करें।

विदुर नीति
इस संसार में ऐश्वर्य चाहने वाले को ये छः दोष त्याग देने चाहिएं  - अधिक नींद लेना, निद्रा, श्रमादि के आलस्य से युक्त रहना, भय, क्रोध, आलस्य और किसी भी काम को करने में देरी करना आदि।  आलसी(Lazy) और सोते रहने वाले का भाग्य भी सो जाता है। आलस्य का त्याग करके जो उद्यम करता है उसे लक्ष्मी प्राप्त होती है।  

 यजुर्वेद।। ५।  १०।।

मनुष्यों को अति उचित है कि जो इस संसार में तीन प्रकार की वाणी होती है अर्थात एक शिक्षा विद्या से सुसंस्कृत, दूसरी सत्य भाषण युक्त व तीसरी मधुर गुण सहित, उनका ग्रहण करें।



मंगलवार, 24 जनवरी 2017

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - 9


ओ3म्
जय गुरूदेव

महर्षि दयानंद - भाग ३

जहाँ दयानंद की पद्धति का प्रश्न है, दयानंद की पद्धति नहीं मनु जी की पद्धति कहलाती है कि जातिवाद नहीं होना चाहिए। जातिवाद क्या वस्तु है? मानववाद होना चाहिए। यह जातिवाद कैसे नष्ट हो?  जब यहाँ ब्राह्मण हों और ब्राह्मण कैसे हों? वे त्यागी तपस्वी हों। ऐसे ब्राह्मण प्रत्येक गृह में जा करके उत्तम समाज को एकत्रित करके यह कहे कि वर्तमान काल के अनुसार तुम्हें परिवर्तित होना होगा और नहीं होंगे तो भयंकर क्रान्ति मानव के निकट आती चली जा रही है। दयानन्द के मानने वालों ने तर्कवाद को अपना करके उनके यौगिक वाक्यों को त्याग दिया है। जिससे महात्मा दयानन्द की आत्मा भी अन्तिरिक्ष में व्याकुल हो रही है कि यह मेरे मानने वाले, मेरे पुजारी क्या कर रहे हैं। महात्मा शंकराचार्य की पुनीत आत्मा भी इसी प्रकार व्याकुल होती है।

जब मुझे महात्मा दयानन्द का जीवन स्मरण आने लगता है, उनकी विचार धारा, उनका ब्रह्मचर्य उनका तप स्मरण आने लगता है तो मेरा ह्रदय गद्गद् होने लगता है। और मुझे यह प्रतीत होने लगता है कि वह महापुरुष कैसा महान था कि उसने यथार्थ क्रांति को लाने का प्रयास किया और उस यथार्थ क्रांति का परिणाम यह हुआ कि यह राष्ट्र जो दूसरे राष्ट्रों के नीचे दबायमान था, वह यहाँ से प्रस्थान कर गये। यह होता है यथार्थ महापुरुषों की क्रान्ति का परिणाम।

आचार्य दयानन्द ने ऐसा कहा है कि सत्य को मानने में किसी प्रकार की कोई हानि नहीं। वस्तुतः आधुनिक काल में उनके मानने वाले कुछ ऐसे व्यक्ति आ पहुँचे हैं जिन्होंने सत्यता को स्वीकार करना ही समाप्त कर दिया है जब वह सत्यता को  नहीं मानते तो उनके वाक्यों या उनके बनाए हुए जो नियम हैं उनको समाम्त करना प्रारंभ कर दिया है। यथार्थ को यथार्थ मानने में किसी को किसी प्रकार की आपत्ति नहीं होनी चाहिए। उसको मान लेना चाहिए। संसार में बहुत सी ऐसी वार्ताएं हैं जो बुद्धि का विषय नहीं, बुद्धि से परे का विषय हैं। आज अनुसंधान करो और बुद्धि से परे की वार्ताओं को विचारो। योगाभ्यास करो, आत्मा को परमात्मा के समक्ष पहुंचाओ। योग को जान करके संसार को जानने वाले बनो।


इस पोस्ट  को अंग्रेजी में पढ़ें  : दयानंद पार्ट ३
इस पोस्ट  को अंग्रेजी में पढ़ें : दयानंद पार्ट ४

अगली कड़ी में - साहित्य और चरित्र को शुद्ध बनाओ एवं रामायण और महाभारत के पात्र

आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

रविवार, 15 जनवरी 2017

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - 8

ओ3म्
जय गुरूदेव

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - 8

\महर्षि दयानन्द भाग-2

भाइयों बहनों! आधुनिक काल मंे तो उन्हें महर्षि नाम की उपाधि प्राप्त हो गयी है क्योंकि आधुनिक काल में ऐसा महान् व्यक्ति जब आ जाता है तो संसार को कुछ देकर चला जाता है। आचार्य दयानन्द के सिद्धांत में एक बड़ी ऊँची वार्ता है , जिसको हर व्यक्ति को मानना चाहिए। देखो, इस वेद की विद्या में कुछ लुप्तता हो गयी है। इसकी कुछ संहिताएँ नहीं मिली हैं, जिनका अभी तक प्रसार नहीं हुआ है। कुछ ऐसा तो माना है कि आचार्य दयानन्द ने चारों वेदों की संहिताओं को तो नियुक्त कर दिया है परंतु जब पूर्ण संहिताएं न मिलीं तो बिचारे कहाँ से लाते? उनका तो जितनाा ज्ञान था, उसका प्रसार कर गये। जैसे गुरुजी के द्वारा ज्ञान का समुद्र है, ऐसे ही उनकी विद्या भी समुद्र थी क्योंकि वे पूर्व काल के अटूटी नाम के ऋषि थे, उन्हीं की आत्मा ने आ करके इस संसार का कल्याण करने के लिए जन्म लिया।

भाइयों बहनों! कलियुग का तो काल था ही। ईसा को मानने वाले व्यक्ति, जिनका यहाँ राज्य था, उनसे और यवनों इत्यादियों से उन्होंने शास्त्रार्थ किया। उनकी विद्या अब तक चल रही है परंतु उनके अनुयायी उनके वाक्यों को ठीक से न समझ कर उनको अन्धकार में मिला रहे हैं। तो यह है आज संसार का वर्णन जिसमें अंधकार छाता चला जा रहा है।

जब पश्चिम से प्राणी यहाँ आकर राज्य करने लगे तो इसी मध्य में एक आचार्य दयानंद नाम के महात्मा आ गये। महात्मा दयानंद ने एक ही वाक्य कहा कि आदि ब्रह्मा से लेकर के जैमिनी पर्यन्त जो भी तुम्हारी संस्कृति है, परंपरा है जो तुम्हारे सिद्धांत कहलाते हैं, यदि उसी पर तुम आ जाओगे तो तुम्हारे राष्ट्र में शान्ति उत्पन्न होगी, तुम महान् सम्राज्यवादी बनोगे अन्यथा तुम्हारा जीवन यों ही नष्ट भ्रष्ट होता रहेगा। महात्मा दयानंद ने अपने जीवन में कितना प्रयत्न किया परंतु धर्म के ठेकेदारों ने उनको विष दे करके नष्ट करने का प्रयत्न किया, परंतु वह तो विभूति थी, परम आत्मा थी, महान आत्मा थी उसको संसार का लेपन नहीं आया, द्रव्य का लेपन नहीं आया। जिस प्रकार भगवान कृष्ण के जीवन में द्रव्य का लेपन नहीं आया। उसी प्रकार महात्मा दयानंद के जीवन में किसी प्रकार की कुरीतियों का लेपन नहीं आया, अच्छाइयों की परंपरा बनी रही। क्योंकि ऋषित्व और पाण्डित्य उनके जीवन का स्वतः अधिकार रहा है। जिनका ऋषित्व और पाण्डित्व जन्मसिद्ध अधिकार होता है वही यहाँ संसार में कुछ उत्थान कर सकते हैं। महात्मा दयानंद की आत्मा में पांडित्य से गुथे हुए उद्गम विचार कई जन्मों से चले आ रहे थे। यहाँ आ करके उन्होंने यवनों को दीर्घ वाणी से उच्चारण किया और जो यहाँ पश्चिम के राष्ट्र नेता थे उनको दीर्घ वाणी से कहा, अपने राष्ट्र में रहने वाले प्राणियों से कहा कि कहाँ जा रहे हो? आज तुम अपना समाज बनाओ, ब्राह्मणवाद चल रहा है, इस जातिवाद को नष्ट कर दो। यह जातिवाद की परंपरा है यह महाभारत के पश्चात् की है, इसे नष्ट करो। उनके द्वारा यौगिकता हाने के नाते जैसे सूर्य प्रकाशवान रहता है ऐसे ही उनका जीवन मानव के हृदयों में प्रदीप्त रहता आया है और रहता रहेगा। हम उनका जितना आदर करते चले आये हैं, वह हमारा हृदय जानता है। उनका महान् आत्मा कितना सुंदर, कितना पवित्र कितना मानवता से ऋषित्व से, पांडित्व से गुथा था, उन्होंने आदि ब्रह्मा से जैमिनी मुनि तक के सिद्धांतों को प्रकट किया। उनके हृदयों में उन सिद्धांतों की कुंजी थी। उनका हृदय पुकार कर कहता था कि वेद को अपनाऔ, समाज ने उनको अपनाने का प्रयास किया, क्रान्ति भी आई, उनके कारनामों का महान् परिणाम भी हुआ किन्तु आधुनिक काल में उनके मानने वाले तर्कवाद पर आने के लिए तत्पर हो गये, जहाँ विचार विनिमय करना था वहाँ तर्कवाद आ गया। जहाँ जातिवाद को नष्ट करना था वहाँ स्वयं भी जातिवाद में पारंगत हो गये हैं।



शेष भाग अगली कड़ी में

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आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

शुक्रवार, 13 जनवरी 2017

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - 7

ओ3म्
जय गुरूदेव

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त : भाग - 7




गोस्वामी तुलसीदास
जब यवनों ने विद्यालय समाप्त कर दिये तो यहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी आ गये। उन्होंने पुरुषार्थ किया और विद्या का कुछ प्रसार किया, बिचारे इतने बुद्धिमान तो थे नहीं, परंतु काव्य उनको बहुत सुंदर था। काव्य सुंदर होने के नाते उनकी वात्र्ताओं को समाज ने स्वीकार कर लिया, धर्म का प्रचार प्रारंभ होने लगा।

महात्मा नानक
महात्मा नानक ने क्या ही सुदर एक वाक्य कहा कि जो रक्त का मानव के वस्त्र पर एक चिन्ह लग जाता है तो वह जल से क्या नाना प्रयत्न करो परंतु वह जाता नहीं। आज मानव के अन्तःकरण में, मानव के ह्रदय में जब किसी का रक्त जाता है तो क्या उसका चिन्ह मानव के ह्रदय में नहीं होता? वह किसी भी काल में नष्ट हो सकता है?

महात्मा नानक ने मानव बल को उँचा बनाया। अपने प्यारे शिष्यों को एक नाद दिया कि धर्म की रक्षा करो। तुम्हारे केश जाएं या न जाएं परंतु धर्म की रक्षा करो। आज तुम्हें भी रक्षा करने की शिक्षा दे रहा हँू, महात्मा नानक के अनुयायियो ने धर्म की रक्षा की। यवनों द्वारा जब वीर बन्दा बैरागी के शरीर को नोचा जा रहा था तो वह मग्न हो रहा था और क्यों मग्न हो रहा था कि मैं धर्म पर अपने मानव जीवन को नष्ट कर रहा हूँ जिससे मुझे काई शोक नहीं है। अरे! यह थी उन महात्माओं की एक महान चिन्हता। हम उन्हीं के पद चिन्हों पर चलें जिससे हमाने मानवत्व में उच्चता आती चली जाये और हमारा जीवन विशाल बनता चला जाए।

आज मैं विशेष चर्चा प्रकट करने नहीं आया हूँ केवल गुरुदेव को यह उच्चारण करने आया हूँ कि यहाँ कैसे कैसे महान व्यक्ति हुए। देखो, महात्मा (गुरू) गोविंद सिंह हुए, जिनका आदर्श कितना उँचा था, दोनों को धर्म रक्षा के लिए यवनों द्वारा दीवार में चिनवा दिया। आज के इस राष्ट्र का क्या बनेगा जो स्वार्थ में इतना बहता चला जा रहा है। एक समय यह आयेगा जब यह स्वार्थ तुम्हारे लिए विष का कार्य करता चला जाएगा। क्या स्वार्थ है, जो दूसरों को नष्ट करने की भावना तुम्हारे अन्दर आ चुकी है? इसे अपने ह्रदय से दूर कर दो।

महर्षि दयानन्द

भगवन उसके बाद अभी सौ वर्ष भी नहीं हुए हैं, जब यहाँ एक दयानन्द नाम के आचार्य आ पहुँचे। जब उन्होंने संसार को इस प्रकार का देखा तो क्या किया? गुरुदेव! हमने तो कुछ ऐसा अनुभव किया है कि द्वापर काल के जो महर्षि अटूटी (महर्षि शमीक मुनि) थे, उनकी आत्मा ने आ करके दयानन्प्द के शरीर में प्रवेश किया। संसार बड़ा अधोगति में चला जा रहा था। उन्होंने अपने माता पिता का ऐश्वर्य त्याग दिया और पूर्व ऋषियों का जो मार्ग था, उसे अपनाया। जैसे शंकराचार्य ने पूर्व महान आत्माओं के कथन को अपनाया, ऐसे ही इस महान दयानंद ने यहाँ आ करके संसार में ज्ञान का प्रसार किया। वह नाना मूर्ति पूजकों के समक्ष पहुँचे, उनसे शास्त्रार्थ किया और पराजित किया। जैसे शंकराचार्य के उपर बड़ी-बड़ी महान् विपत्तियाँ आयीं, इसी प्रकार दयानन्द के समक्ष भी आयीं। पूर्व जन्म के ऋषि होने के नाते इस संसार का उत्थान करने के लिए, परमात्मा के नियमों का पालन करने के लिए वह संसार में आए थे और नाना पर्वतों में भ्रमण कर उन्होंने वेद की विद्या को खोजा। जहाँ भी वेद की विद्या मिली उसे ग्रहण करके, उन्होंने वेद की विद्या का प्रसार किया, उन्होंने उन शास्त्रों की वार्ताओं को अपनाया जिन्हें हमारे जैमिनी मुनि ने, हमारे गुरु ब्रह्मा आदि सबने अपनाया था। स्वामी शंकराचार्य ने जिस मत और जिस दार्शनिक विषय को माना, वहीं मान करके उंन्होंने इस संसार में उसका पुनः प्रसार आरंभ कर दिया। जो मानव समझ नहीं पाते, वे उन्हें न समझे। परंतु वह वेद क विद्या के एक बहुत ही उँचे महान विद्वान माने गये हैं।

शेष भाग अगली कड़ी में


गोस्वामी तुलसीदास के विषय में अंग्रेजी में पढ़ें

महात्मा नानक के विषय में अंग्रेजी में पढ़ें

 स्वामी दयानंद के विषय में अंग्रेजी में पढ़ें 

 आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

गुरुवार, 12 जनवरी 2017

आत्मा को अपनी ऐसे सजा


भाइयों बहनों अगर आपको सच्चा मनुष्य बनना है तो ईश्वर में बताया है -
 
आत्मा को अपनी ऐसे सजा जिससे तुम्हारा मोक्ष हो।

जीवन को अपने ऐसे सजा जिससे उजाला पूर्ण हो।

मन को तू अपने ऐसे सजा जिससे मधुरता पूर्ण हो ।

तन को तू अपने ऐसे सजा जिससे भरा बल पूर्ण हों ।
बुद्धि को अपनी ऐसे सजा जो ज्ञान से भरपूर हो ।
इन्द्रियों को अपनी ऐसे सजा  जिससे सदा दुःख दूर हो।
प्राणों को अपने ऐसे सजा मृत्यु भी  जिससे दूर हो।
सत्यानंद योगाभ्यास से सजा जिससे सदा आनन्द हो।
सत्यानंद सत्य से सजा जिससे सदा आनन्द हो।
सत्यानंद ओ३म् से सजा जिससे सदा आनन्द हो।
आत्मा को अपनी ऐसे सजा जिससे तुम्हारा मोक्ष हो॥

और ये तभी हो सकता है-

श्वांस श्वांस पर ॐ भज वृथा श्वांस मत खोवे। 
न जाने ये स्वांस भी आये या ना आवन होवे।
परमात्मा हर जगह मौजूद है पर नजर आता नहीं।
योग साधन के बिना कोई उसे पाता नहीं।
रात के चौथे प्रहरों में एक दौलत लुटती रहती है।
जो जागत है सो पावत है, जो सोवत है सो खोवत है।
उठ जाग मुसाफिर भोर भई अब रैन  कहाँ जो सोवत है।
प्रभु जागत है तू सोवत है।



आप का
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

संसार में चार धामों की प्राप्ति



ओ३म्
संसार में चार धामों की प्राप्ति




# जो मनुष्य विनाशशील स्त्री पुत्र धन मान कीर्ति अधिकार आदि इस लोक और परलोक की भोग सामग्रियों में आसक्त होकर उन्हीं को सुख का हेतु समझते हैं तथा उन्हीं के अर्जन सेवन में सदा संलग्न रहते हैं एवं इन भोग सामग्रियों की प्राप्ति संरक्षण तथा वृद्धि के लिए उन विभिन्न देवता पितर और मनुष्यादि की उपासना करते हैं, जो स्वयं जन्म मरण के चक्र में पड़े हुए होने के कारण अभाव ग्रस्त और शरीर की दृष्टि से विनय शील हैं, उनके उपासक वे भोगासक्त मनुष्य अपनी उपासना के फलस्वरूप विभिन्न देवताओं के लोकों को और विभिन्न भोग योनियों को प्राप्त होते हैं। यही उनका अज्ञान रूप घोर अंधकार में प्रवेश करना है।

दूसरे जो मनुष्य शास्त्र के तात्पर्य को तथा भगवान के दिव्य गुण प्रभाव तत्व और रहस्य को न समझने के कारण न तो भगवान भजन ध्यान ही करते हैं और न श्रद्धा का अभाव तथा भोगों में आसक्ति होने के कारण लोकसेवा और शास्त्र विहित देवोपासना में ही प्रवृत्त होते हैं, ऐसे वे विषयासक्त मनुष्य झूठ मूठ ही अपने को ईश्वरोपासक बतलाकर सरल ह्रदय जनता से अपनी पूजा करवाने लगते हैं। ये लोग मिथ्याभिमान के कारण देवताओं को तुच्छ बतलाते हैं और शास्त्रानुसार अवश्य कर्तव्य देवपूजा तथा गुरु जनों का सेवा सत्कार करना भी छोड़ देते हैं। तथा दूसरों को भी अपने वाग्जाल में फँसाकर उनके मनों में भी देवोपासना आदि के प्रति अश्रद्धा उत्पन्न कर देते हैं। ये लोग अपने को ही ईश्वर के समकक्ष मानते मनवाते हुए मनमाने दुराचरण में प्रवृत्त हो जाते हैं। ऐसे दम्भी मनुष्यों को अपने दुष्कर्मों का कुफल भोगने के लिए बाध्य होकर कूकर शूकर आदि नीच योनियों में और अतल वितल रौरव व कुम्भी पाक आदि नरकों में जाकर भीषण यंत्रणाएं भोगनी पड़ती हैं। यही उनका विनाश शील देवताओं की उपासना करने वालों की अपेक्षा भी अधिकतर घोर अन्धकार में प्रवेश करना है।

जो मनुष्य समस्त जड़ जगत के अनादि नित्य कारण का उपासना भाव से स्वीकार करते हैं वे अविद्या को प्राप्त होकर क्लेश को प्राप्त होते और जो उस कारण से उत्पन्न स्थूल सूक्ष्म कार्यकारणाख्य अनित्य संयोग जन्य कार्य जगत को इष्ट उपास्य मानते हैं वे गाढ़ अविद्या को पाकर अधिकतर क्लेश को प्राप्त होते हैं इसलिए सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा या विद्वान की ही सब सदा उपासना करें।

# हे मनुष्यों जैसे विद्वान लोग कार्य कारण वस्तु से भिन्न भिन्न वक्ष्यमाण उपकार लेते और लिवाते हैं तथा उन कार्य कारण के गुणों को जानकर जनाते हैं। ऐसे ही तुम लोग भी निश्चय करो।

# हे मनुष्यों! कार्य कारण वस्तु निरर्थक नहीं है किन्तु कार्य कारण के गुण कर्म और स्वभावों को जानकर धर्म आदि मोक्ष के साधनों में संयुक्त करके अपने शरीरादि कार्य कारण को नित्यत्व से जान के मरण का भय छोड़ कर मोक्ष की सिद्धि करो। इस प्रकार कार्य कारण से अन्य ही फल सिद्ध करना चाहिए। इन कार्य कारण का निषेध परमेश्वर के स्थान में जो उपासना उस प्रकरण में करना चाहिए।

# जो जो चेतन ज्ञानादि गुण युक्त वस्तु है वह जानने वाला, जो अविद्या रूप है वह जानने योग्य है और जो चेतन ब्रह्म तथा विद्वान का आत्मा है वह उपासना के योग्य है जो इससे भिन्न है वह उपास्य नहीं है किन्तु उपकार लेने योग्य है। जो मनुष्य अविद्या अस्मिता राग द्वेष और अभिनिवेश नामक क्लेशों से युक्त हैं वे परमेश्वर को छोड़ इससे भिन्न जड़ वस्तु की उपासना कर महान दुखसागर में डूबते हैं और जो शब्द अर्थ का अन्वय मात्र संस्कृत पढ़कर सत्यभाषण पक्षपात रहित न्याय का आचरण रूप धर्म नहीं करते अभिमान में आरुढ़ हुए विद्या का तिरस्कार कर अविद्या को ही मानते हैं वे अत्यंत तमोगुण रूप दु:खसागर में निरन्तर पीड़ित होते हैं।

# अनादि गुण युक्त चेतन से उपयोग होने योग्य है वह अज्ञान युक्त जड़ से कदापि नहीं और जो जड़ से प्रयोजन सिद्ध होता है वह चेतन से नहीं। सब मनुष्यों को विद्वानों के संग, योग, विज्ञान और धर्माचरण से इन दोनों का विवेक करके दोनों से उपयोग लेना चाहिए।


# जो मनुष्य विद्या और अविद्या को उनके स्वरूप से जानकर इन के जड़ चेतन साधक हैं ऐसा निश्चय कर सब शरीरादि जड़ पदार्थ और चेतन आत्मा को धर्म अर्थ काम और मोक्ष की सिद्धि के लिए साथ ही प्रयोग करते हैं वे लौकिक दुख को छोड़ परमार्थ के सुख को प्राप्त होते हैं। जो जड़ प्रकृति आदि कारण वा शरीरादि कार्य न हो तो परमेश्वर जगत की उत्पत्ति और जीव कर्म उपासना और ज्ञान के करने को कैसे समर्थ हो। इससे न केवल चेतन से अथवा न केवल कर्म से तथा न केवल ज्ञान से कोई धर्मादि (चार धाम- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) पदार्थों की सिद्धि करने में समर्थ होता है।


सन्दर्भ :
यजुर्वेद॥४०।९-१४॥
ईशावास्योपनिषद॥९-१४॥


आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

बुधवार, 11 जनवरी 2017

महाभारत के बाद का आर्यावर्त भाग - 6

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त : भाग - 6

 
महात्मा मुहम्मद भाग-2
 
जिसको आधुनिक काल में ईरान कहते हैं  वहाँ हमारे महर्षि गौतम जी का आश्रम रहा है। उन्होंने वहाँ वेद का बड़ा प्रसार किया था। ईरान से पूर्व उस राष्ट्र का नाम श्वांगनी था। वह आर्यत्व कहलाया जाता था। इसी प्रकार जिस राष्ट्र को आधुनिक काल में अरब रूपों से वर्णन किया जाता है, यह नाम मुहम्मद के द्वारा रूपांतर है, इससे पूर्व अरब का नाम शोनध्ेतु नाम का राज्य कहलाता था। जहाँ महर्षि जैमिनी जी का प्रायः भमण होता था। मुहम्मद के मानने वालों ने इस भारत भूमि पर आक्रमण करना प्रारंभ किया परंतु यहाँ राजा भोज के काल में काली हुए जिन्होंने मुहम्मद को नष्ट कर दिया और मृत्यु को प्राप्त करा दिया। मुहम्मद चाहता था कि यदि इस भारत भूमि पर उसका साम्राज्य हो जाए, प्रभुत्व हो जाए तो सारे संसार को अपनी छत्र-छाया में लाया जा सकता है। राजा भोज के महामंत्री काली ने उन्हें नष्ट कर दिया। आगे समय आया और मुहम्मद के मानने वालों ने इस भारत भूमि पर आक्रमण किया और वह विजयी हो गये, यहाँ उनका साम्राज्य हो गया। उस साम्राज्य में क्या हुआ इस घृणित चर्चा को मैं लाना नहीं चाहता, सूक्ष्म चर्चा यह देना चाहता हूँ कि उनका चरित्र, उनकी मानवता, उनका इतिहास प्रकट करता है कि यदि मुहम्मद के मानने वालों में अराजकता न होती तो उनके यहाँ से जाने का प्रश्न उत्पन्न नहीं होता थां यवनों ने क्या किया? माता के श्रृंगार का हनन और अपना प्रभुत्व स्थापित करना यह उनका कार्य थां उनके राष्ट्र की परम्परा चली। उनके राज्य में यहाँ कोई ऐसा राजा नहीं हुआ जिसमें पांडित्य हो और जिसने पांडित्य की दृष्टि से राष्ट्र को उन्नत बनाने का प्रयत्न किया हो। रहा यह कि क्यों इतने काल तक उन्होंने यहाँ राज्य किया? तो इसके वही कारण, जो आधुनिक काल में भी प्रायः चल रहे हैं कहीं भाषा का विवाद, कहीं मानवता का विवाद है। अरे! जब समाज में स्वार्थवाद आ जाता है तो प्रायः मानव पराधीन हो ही जाता हैं यदि मानव के द्वारा अपनी संस्कृति हो तो कोई कारण नहीं बन सकता कि हमारे पांडित्य को किसी प्रकार की हानि पहुँचाने के लिए कोई आ पहुँचे।

यहाँ देखो, सबसे पूर्व जो मुहम्मद के मानने वाले थे स्वार्थी व्यक्ति मुहम्मद गौरी को लाये। मुहम्मद की बनाई हुई जो पुस्तक है उसमें केवल एक ही नाद है कि आज जो मुझे स्वीकार न करे उसे नष्ट करो। क्या तुमने इस शब्द को किसी काल में विचारा है। कदापि नहीं विचारते। मुहम्मद ने उन्हें केवल एक ही पाठ दिया। वास्तव में उन्होंने सुधारक कार्य बहुत कुछ किये परंतु एक वाक्य कहा कि जो उसे न माने इसे काफिर और घृणा की दृष्टि से पान करो। इसका विशेष कारण क्या है? विचारों में, धर्म में अधूरापन। जहाँ धर्म में अधूरापन रहता है वहाँ विचार नहीं मिलते। जहाँ विचार नहीं मिलते वहाँ का स्वार्थ भी समाप्त नहीं होता। जहाँ स्वार्थ समाप्त नहीं होता वहाँ मानवता किस प्रकार बन सकती है। मुहम्मद ने उन्हें एक ही पाठ पढ़ाया कि आज राष्ट्रीय बनो, नुम राष्ट्र की रक्षा करो। धर्म को उन्होंने व्यापक नहीं माना, राष्ट्र को व्यापक माना। राष्ट्र को व्यापक मानकर आज सीमा पर संग्राम हो रहा है उनके स्वरों में वहीं मुहम्मद का नाद। स्वार्थी व्यक्तियों ने नहीं जाना कि हमारा कर्तव्य क्या है, हमें क्या करना है कहाँ तो एक मानव नष्ट हो रहा है कहाँ एक भोेगविलास में लगा हुआ है एक माता के श्रृंगार को लूटा जा रहा है और एक माता भोग विलासों में मग्न है। आगे जो काल आया देखो, जब यहाँ यवन आये तो जैसे मुहम्मद ने अपने जीवन में 13 संस्कार कराये ऐसे ही इनकी विचारधारा वालों ने यहाँ आ करके जो कार्य किये उसने इस संसार को अधोगति में पहुँचा दिया। हमारी जो माताएँ थीं, भगिनियाँ थीं वह बड़ी विदुषी होती थींं। महान् सीता का आदर्श उनके समक्ष था परंतु विद्या लुप्त होने के नाते माताओं की विद्या समाप्त हो गई। महान् पुस्तकालय तो जैनियों के काल में ही समाप्त हो चुके थे। यवनों का काल आया तो विद्यालयों को और समाप्त कर दिया गया और समाज में अज्ञानता फैला दी। माताओं को बड़े-बड़े कष्ट देकर तथा उनके साथ महान् दुराचार कर इस संसार को अधोगति में पहुँचा दिया।
 



अगली कड़ी में - गोस्वामी तुलसीदास, महात्मा नानक, महर्षि दयानंद

आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

महाभारत के बाद का आर्यावर्त: भाग - ५

महाभारत के बाद का आर्यावर्त:  भाग - ५
ओ3म्
जय गुरुदेव
 
महात्मा मुहम्मद 
 
आगे चल करके मुहम्मद नाम के एक यवन हुए। वास्तव में देखा जाए तो वह यवन ही थे, जैसा कि वेद की विद्या में कहा है। एक छोटे से घर में जन्म ले करके एक राजा बनने की अपेक्षा की और राजा बने। अबुबक्र उनके एक मित्र थे परंतु उनके अन्तुत बनाया और मन्त्रियों में अपने नाना शिष्य बनाये, शिष्य बना करके संग्राम किया और अन्त में राष्ट्र पर उनका अधिकार हो गया। अज्ञानी काल था, विद्या थी नहीं, भाइयों बहनों! जब वह राजा बने तो उन्होंने आसवाती नाम के वृक्ष में एक पुस्तक बना करके अर्पण की और उसके पश्चात् राष्ट्र के महान चुने हुए व्यक्तियों का समाज एकत्रित किया और कहा कि भाई! मुझे परमात्मा के दर्शन हुए हैं और परमात्मा ने मुझे एक पुस्तकालय दिया है जिसको मैं महान बनाना चाहता हूँ आज मेरे इस वाक्य को स्वीकार करो। उन्होंने इस वृक्ष का वर्णन किया। उन व्यक्तियों ने उस वृक्ष को समाप्त कराया तो उन्होंने देखा कि उसमें वह पुस्तक वैसे ही थी। उन्हें विश्वास हो गया। भाइयों बहनों! पाहि पनः वाचे, उनकी विचारधारा जो पुस्तक में थी, वह प्रजा के समक्ष आ गई। उन्होंने सोचा कि भाई! यह तो बड़ा सुन्दर है और उन्होंने मुहम्मद की वार्ता को स्वीकार कर लिया। इस प्रकार देखो, यवन मत बन गया।

उन्होंने द्वितीय राष्ट्रों पर आक्रमण करना प्रारंभ कर दिया। कितना बड़ा संसार में अन्धकार आया। एक माह के संग्राम के पश्चात् मुहम्मद ने यूनान पर विजय प्राप्त की। उस संग्राम में वे दिवस में युद्ध करते और सांयकाल युद्ध करने वालों से कहा करते कि अरे भाई! तुम रात्रि को भोजन किया करो और दिवस में युद्ध किया करो। वह दो समय रात्रि को भोजन किया करते थे। उन्होंने उका एक सम्प्रदाय बना लिया। बड़ा अच्छा वाक्य है, क्या उच्चारण करें उसे वह रोजे कहा करते थे। युद्ध का काल था वह रोजे प्रारंभ हो गये। कैसा काल आ गया। आपको तो बड़ा कष्ट हो रहा होगा क्योंकि आपने तो दार्शनिक समाज को देखा है जिस दार्शनिक समाज में मानव का बहुत बड़ा विकास होता है।

जिन्हें महात्मा मुहम्मद कहा जाता है, उनका जीवन राष्ट्रीयता में रहा। यहूदियों को नष्ट करने के लिए जिस राष्ट्र में मुख्य कार्य होते थे वहाँ, मुहम्मद का जन्म हुआ। वहाँ मानव प्रीति से दूर रहता था और नाना घृणित कार्य करता था। जहाँ मानव में दूसरे को अपने अधीन बनाने की प्रवृत्तियाँ आ जाती हैं वहाँ, कोई न कोई सुन्दर पुरुष आ ही जाता है। किन्तु महात्मा मुहम्मद राष्ट्र को अपनाने के पश्चात् स्वयं पाखंडता में परिणत हो गये। उन्होंने पाखंड का प्रसार करना आरंभ किया। उन्होंने एक पुस्तक को बनाया और किसी वृक्ष के आंगन में स्थिर कर दिया और राष्ट्र के पुरुषों  को किसी भी प्रकार भी वशीभूत करके  उस पुस्तक का प्रभुत्व उनके उपर आ पहुँचा। राष्ट्र में आने के पश्चात् मानव का साधारण प्रजा पर प्रभुत्व आ ही जाता है। मैं (एक जीवन मुक्त आत्मा, महानन्द मुनि जी- ये आत्माएँ स्वभाव से ही पूर्ण सत्यवादी हुआ करती हैं) महात्मा मुहम्मद को महात्मा की दृष्टि से दृष्टिपात नहीं करता हूँ। मैं यह कहा करता हँू कि मुहम्मद ऐसा पुरुष था जो राष्ट्र कुछ सुधारक था परंतु जहाँ चरित्र और मानवता का प्रश्न है, महात्मा का प्रश्न है, वह मेरी दृष्टि से उसमें सुंदर प्रतीत नहीं होता। मैं प्रायः परम्परा से यथार्थ वक्ता रहा हूँं। मुहम्मद ने तरह संस्कार किये। तेरह पत्नियां उनकी रही। एक स्त्री नष्ट होती रही तो दूसरी आती रही। उन्होंने देखो! कुरिस परिवार से अपने दूर के पुत्र की स्त्री को भी अपने गृह को चलाने के लिए अपनाया, पत्नी होने के पश्चात् भी उससे संस्कार कर लिया। मैं इस दृष्टि से उन्हें स्वीकार नहीं करता हूँ, आगे इन्हीं के मानने वालों ने क्या क्या कुरीतियों का आक्रमण किया? जिससे संस्कृति का विनाश हो गया।

 
शेष भाग अगले अंक में
 
 
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आपका
ब्ररह्मचारी अनुभव शर्मा

शत्रु से बचने के लिये एवम् विपत्ति को टालने के लिये मन्त्र (वेद से)

शत्रु से बचने के लिये एवम् विपत्ति को टालने के लिये मन्त्र (वेद से)


ओ३म् पाहि नो अग्ने रक्षसः पाहि धूर्तेरराव्णः ।
पाहि रीषत उत वा जिघांसतो बृहद्भानो यविष्ठ्य। 1 ।36 ।15 । । वेद ।ज्ञान काण्ड ।


सब मनुष्यों को चाहिए कि सब प्रकार रक्षा के लिए सर्व रक्षक धार्मोन्नति की इच्छा की सर्वदा प्रार्थना करें और अपनेआप भी दुष्ट स्वभाव वाले मनुष्य आदि प्राणियों और सब पापों से मन वाणी और शरीर से दूर रहें क्योंकि इस प्रकार रहने के बिना कोई मनुष्य सर्वदा सुखी नहीं रह सकता। 

ओ३म् अग्निर्वृत्राणि जङ्घनद्द्रविणस्युर्विपन्यया। समिद्धः शुक्र आहुतः 6 ।16 ।34 । । वेद ।ज्ञान काण्ड । 

सत्प्रयासों से प्रसन्न होकर याजकों को प्रसन्नता प्रदान करने वाले हे प्रदीप्त अग्नि देव! हमें बंधन में रखने वाली दुष्ट वृत्तियों का विनाश कीजिये । 



(गुरुकुल बरनावा लाक्षागृह, बागपत,  के ब्रह्मचारी अंकुर भारद्धाज जी से साभार )


आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

गुरुवार, 5 जनवरी 2017

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त : भाग ४

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त : भाग - ४



ईसा मसीह
आगे चल करके यहाँ बहुत से अन्य मत आ गये। देखो ईसामसीह नाम के आ कूदे। वह द्वितीय राष्ट्र में उत्पन्न हुए थे। उन्होंने यहाँ आ करके काशी स्थान में आयुर्वेद की शिक्षा को पान किया। आयुर्वेद का स्वाध्याय करके इस विद्या को जाना कि नेत्रों की दृष्टि से मानव के शरीर विज्ञान को जाना जाता है। काशी में एक विरंडी नाम के आचार्य थे, उनसे उन्होंने आयुर्वेद की शिक्षा पाई और उसमें महान् बन करके इस राष्ट्र से अपने राष्ट्र को चले गए। वहाँ जाकर उन्होंने अपनी विद्या का प्रचार किया और उन्होंने एक निराला मत उत्पन्न किया। उन्होंने अच्छी प्रकार तो समझा नहीं और जाना नहीं परंतु इसी में ही उनका एक महान् मत बन गया। उनके द्वारा क्या विशेषता थी? आयुर्वेद की विद्या को जानने से और योगाभ्यास करने से नेत्रों की दृष्टि द्वारा मानव के अवगुणों को शान्त करने की शक्ति आ जाती है। जब उसमें यह सत्ता आ गई तो वह बड़ा तपस्वी बना और तपस्वी बन करके उन्होंने वहाँ के कुछ व्यक्तिियों का उद्धार किया। परंतु उसको भी इस संसार ने समापत कर दिया। उन्होंने भी एक समाज बनाया और उस समाज में यथार्थ शिक्षा दे करके ये भी चले गये। आगे उनके अनुयाइयों ने उनकी शिक्षा का दुरुपयोग करना प्रारंभ कर दिया, भाइयों बहनों! उन्हें असली रूप में न छोड़ा।

महात्मा ईसा न भी अपनी संस्कृति का अपने चरित्र बल का प्रसार किया। महात्मा ईसा ने भी इस भारत भूमि में शिक्षा पाने के पश्चात् अपने धर्म का प्रसार किया, परन्तु धर्म क्या है यह उन्होंने नहीं विचारा। हम यह उच्चारण कर सकते हैं कि आयुर्वेदाचार्य के नाते उनका पांडित्य बहुत उँचा और पवित्र था। उनका ह्रदय बड़ा निर्मल और स्वच्छ था।

महात्मा ईसा को जब यहुदी नष्ट करने लगे, परन्तु उन्होंने मृत्यु के मुख में जाते हुए कहा कि मुझे नष्ट कर सकते हो, परंतु मेरी जो यथार्थ क्रांति, आत्म विश्वास है उसे छेदन नहीं कर सकते।
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अगली कड़ी में - महात्मा मुहम्मद, गोस्वामी तुलसीदास, महात्मा नानक व महर्षि दयानन्द


आपका अपना 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

महाभारत के बाद का आर्यावर्त - भाग ३

महाभारत के बाद का आर्यावर्त : भाग - ३



महात्मा शंकराचार्य

महाभारत काल के पश्चात् संसार में अन्धकार की तरंगें ओतप्रोत हुईं और यह अन्धकार इतना बलवती बना कि धर्म और मानवता को  शान्त करने का प्रयास किया। मानवता और धर्म न रहा। अन्तिम परिणाम यह हुआ कि अज्ञान में समय-समय पर महापुरुषों ने आकर के समाज को चेतावनी दी और चेतावनी देकर के उन्हें प्रेरणा दी और प्रेरित करके उनको धर्म क्षेत्र में लाने का प्रयास किया।
 
जब दुराचार होने लगा तो आज से 2200 वर्ष या कुछ अधिक वर्ष हो गये जब महात्मा शंकराचार्य यहाँ आ पधारे। जिस समय वह 12 वर्ष के थे तब उन्होंने अपनी माता से कहा कि मैं तो इस संसार को जानना चाहता हूँ। यह संसार मुझे अन्धकारमय प्रतीत हो रहा है। महात्मा शंकराचार्य पूर्व जन्म के कुटली मुनि महाराज थे। उनकी आत्मा ने यहाँ आकर जन्म धारण किया। परमात्मा के अनुकूल ऐसी महान आत्मा, यौगिक आत्मा संसार में आती रहती हैं और आ करके धर्म का कुछ न कुछ पालन करा ही देती हैं। उसकी माता ने कहा कि बेटे! तुझे धन्य है, जो तूने ऐसे महान विचारों का संकल्प किया है। इन विचारों को संसार के समक्ष नियुक्त करो जिससे यह संसार अन्धकार से पृथक हो जाए। उस महात्मा शंकराचार्य ने आ करके इस संसार का निर्माण करना प्रारंभ कर दिया। महात्मा बुद्ध और महात्मा महावीर को मानने वाले जो अनुयायी थे, उनसे शास्त्रार्थ किया। मूर्ति-पूजा के विषय में शास्त्रार्थ करते थे। उनका कथन था कि मेरा यह नियम है कि यदि मैं शास्त्रार्थ हार जाउँगा जो मूर्ति पूजक बन जाउँगा और यदि नहीं हारा तो तुम्हारी इन मूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर दूँगा। महात्मा शंकराचार्य ऐसे देखे गए हैं कि वह आत्मा और परमात्मा के विषय में शास्त्रार्थ करते थे और जब विपक्षी थकित हो जाते थे तो अपने खाण्डे को लेकर उनकी मूर्तियों पर आक्रमण करते थे, मूर्तियों को उनके स्थान से पृथक् कर दिया जाता था। महात्मा शंकराचार्य ने समाज का बहुत कुछ उपकार किया, धर्म का बहुत बड़ा कल्याण किया था। आत्मा परमात्मा को पृथक् मान करके जैनमत और बौद्ध मत के अनुयायियों को, सबको चकित कर दिया। एक समय समाज में आ करके उन्होंने वेदान्त का पाठ किया और वेदान्त की महान उँची गहराई जा करके उन्होंने कहा कि भाई, आत्मा-परमात्मा का भाव एक ही प्रतीत होता है परंतु फिर भी उन्होंने यह नहीं कहा कि यह एक है, यह  कहा कि यहाँ भाव तो एक ही है। जैसे माता का बालक है और जब वह माता के गर्भ में रहता है उस समय वह माता के समक्ष नहीं होता, न माता को दिखता है और न ही संसार को दिखता है। ऐसे ही हम आत्मा जब मोक्ष में जाते हैं तो परमात्मा के गर्भ में चले जाते हैं। परमात्मा के गुण हममें प्रविष्ट हो जाते हैं। उस समय हम अपने को परमात्मा मान लेवें तो कोई हानि नहीं परंतु वास्तव में हम परमात्मा तो नहीं हैं। हम किसी को तब ही पावेंगे जब उनके गुण में रमण करेंगे, उसके गुणों की वार्ता उच्चारण करेंगे अन्यथा हम किसी प्रकार भी उसमें रमण नहीं करेंगे। शंकराचार्य ने इन विचारों का कथन किया। आगे चल करके उपनिषदों का स्वाध्याय करते हुए ऐसा कहा कि आध्यात्मिक विचारों को लेते हुए प्रतीत होता है कि आत्मा से बढ़ कर भी कोई सत्ता अवश्य है। जब महात्मा शंकराचार्य ने वेद की विद्या को ऐसा जान लिया तो नाना मत वालों से शास्त्रार्थ कर वेद विद्या की पुनः स्थापना की। वेदांगों का मन्थन किया, उनका पालन किया और एक महान समाज बना दिया। उन्होंने समाज से कहा कि देखो, जैसे नुम जैनियों और बौद्धों के मन्दिरों और स्थानों में जाते हो इससे तो तुम एक कार्य करो कि तुम अपने ही मन्दिर बनाओ और उन्हीं में एकान्त स्थान में विराजमान हो करके उस परमपिता परमात्मा को जानने का प्रयत्न करो जो तुम्हारी आत्मा के समक्ष बैठा, तुम्हारा पालन कर रहा है। तुम दूसरे मत वालों के स्थानों में क्यों जा रहे हो? यथार्थ वाक्य था, सबने  स्वीकार कर लिया।

आगे चलकर महात्मा शंकराचार्य ने अपनी प्रतिभा से अपनी यौगिकता से समाज में एक संस्कृति का प्रसारण करने का प्रयत्न किया परन्तु यहाँ के ही धर्मज्ञों ने, जिन्होंने जाना कि तुम्हारी पद्धति नष्ट होने जा रही है, उन्हें नष्ट-भष्ट कर दिया।

 

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अगली कड़ी में-ईसा मसीह व महात्मा मुहम्मद

आपका ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

मंगलवार, 3 जनवरी 2017

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - २

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त: भाग - २




पांडव वंश के शासक

यहाँ महाराजा युधिष्ठिर के पश्चात् अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित का राष्ट्र हुआ। परीक्षित के पुत्र जनमेजय हुए उसके पश्चात् ममानुक नाम के राजा हुए, आगे आमन्तरी हुए। आमन्तरी राजा के पश्चात् विक्रम हुए उनके पश्चात् शमिणम और उनके पश्चात् यहाँ सत्कामातुर नाम के राजा का साम्राज्य आ गया। उसके पश्चात् यह प्रणाली समाप्त हो गई। और यहाँ जैनियों का साम्राज्य आ गया, जैन मत की उत्पत्ति हो गई।
महात्मा महावीर

जब यहाँ नाना सम्प्रदाय चलने लगे तो यहाँ एक महावीर नाम के व्यक्ति आ पहुंचे। उन्होंने अपनी दार्शनिक बुद्धि से कुछ विचारा कि यह तो बड़ा अनर्थ होने लगा है समाज में। महावीर नाम के दार्शनिक ने धर्म को दार्शनिकता से विचारा और उन्होंने कहा कि अहिंसा परमोधर्मः वह दार्शनिक तो बने, वेद के कुछ अंग को तो जाना, परन्तु वेद की विद्या को नहीं जाना। और न जान करके उन्होंने कहा कि वेद की विद्या सब निरर्थक है। यह कहा कि वेद की विद्या का वाक्य सत्य नहीं और न वेद कोई पदार्थ है। अहिंसा परमो धर्मः का तो कुछ पाठ करके, वेद के कुछ अंग का प्रचार किया, परन्तु उन्होंने कहा कि आत्मा-परमात्मा एक ही हैं। न कोई इस संसार को बनाने वाला है और न संसार किसी स्थान में बनता है। यह तो ऐसे ही अनादि चला आ रहा है। यह आत्मा ही परमात्मा बन जाता है।

यहां महावीर नाम के स्वामी ने अपने मत का प्रसार किया परंतु वह प्रचार घृणात्मक था। उस महावीर से इस भारत भूमि में घृणा की उत्पत्ति हुई। इस भारत भूमि में उससे पूर्व घृणा की उत्पत्ति नहीं थी वैसे तो घृणा की उत्पत्ति महाराजा दुर्योधन के समय से ही हो गयी थी परंतु मानव के द्वारा अत्यन्त पक्षपात महात्मा महावीर के समय में आया। वास्तव में वह महात्मा थे, मैं (एक जीवन मुक्त आत्मा, महानन्द मुनि जी) उनका आदर करता हूँ परंतु उनके शब्दों में घृणा थी। आगे उनके मानने वालों ने और भी अधिक घृणा उत्पन्न कर दी और उसका परिणाम यह हुआ कि यहाँ अराजकता का प्रसार होने लगा। उनके सिद्धांत के विपरीत जो यहाँ पुस्तकें थीं, जो वैज्ञानिक थे, जो उनके आंग में नहीं आते थे, वे अग्नि के मुख में अर्पित होने लगे। उन्होंने वैदिक साहित्य को, वेद की पोथी को अपने नेत्रेां के समक्ष नहीं आने दिया। आगे यहाँ जैनियों का साम्राज्य चलता रहा। यहाँ की सब पुस्तकें अग्नि के मुख में चली गयीं। किसी महापुरुष ने कोई संहिता स्मरण की तो आगे उसकी परम्परा चलती रही और वेद की रक्षा होती रही। वेद को परमात्मा का ज्ञान कहा है। इसलिए प्रायः उसकी रक्षा होती रही।

हमारे यहाँ जैन मत आया और नाना प्रकार की अज्ञानता फैली तो भगवन्! यहाँ जो सतयुग, त्रेता और द्वापर काल के जो महान हमारे दार्शनिकों के वाक्य थे, ग्रंथ थे, जैनियों ने अग्नि में भस्म कर दिये। जब यह पुस्तकालय भस्म हो गये तो अब क्या करें। अज्ञानता तो आनी थी। वेद किसी प्रकार बच गए? वेद किसी के गृह में रह गये। आह! वह विद्या कहाँ से लाएँ जैसा हम आपसे प्रश्न करते हैं कि वह प्रमाण अब क्यों नहीं मिलते, वह इसलिए नहीं मिलते क्योंकि वह पुस्तकालय ही अब समाप्त हो चुके हैं जिसमें हमारे पूर्व दार्शनिकों के वाक्य थे।

महात्मा बुद्ध्

आगे काल ऐसा ही चलता रहा, नाना प्रकार की त्राुटियाँ समाज में आने लगीं। उसके पश्चात् परमात्मा ने कुछ विभूतियों को भेजा। आज से लगभग 2500 वर्ष का समय हो गया जब यहाँ महात्मा बुद्ध् का आगमन हुआ। उन्होंने इस संसार का कुछ निर्माण किया,  द्वितीय राष्ट्रों में भ्रमण करके उन्होंने कहा कि "अहिंसा परमोधर्म:"। जब उनके समक्ष नाना वाममार्गी शास्त्रार्थ करने के लिए आए तो उन्होंने कहा कि भाई! तुम हमें वेद का प्रमाण देते हो, जिस वेद में ऐसा प्रकरण हो, पापाचार हो, हिंसा हो, हम उस वेद को कदापि भी स्वीकार नहीं करेंगे। उनके वेद पर गहराई से विचारा नहीं। उन्होंने वेद का स्वाध्याय करना समाप्त कर दिया। वास्तव में महात्मा बुद्ध बड़े ऊँचे थे, बड़े दार्शनिक थे, राजा थे। राजा से उन्होंने सन्यास धारण  किया, सर्वस्व सांसारिक ऐश्वर्य को त्याग करके ऐसे अगाध अन्धधकार में जा कूदे। उन्होंने क्या किया? बहुत से राष्ट्रों का निर्माण किया। वेद के कुछ अंगों का पालन किया। जब महात्मा बुद्ध समाप्त हो गए तो उनके जो अनुयायी थे, उन्होंने महात्मा बुद्ध के विचारों को न मान करके नाना प्रकार का दुराचार करना प्रारंभ कर दिया। इन सभी पुरुषों का आदर करना चाहिए परंतु आदर इसलिए नहीं करना चाहिए क्योंकि उन्होंने वैदिक साहित्य को, वेद की पोथी को अपने नेत्रों के समक्ष नहीं आने दिया। परंतु आदर इसलिए करना चाहिए क्योंकि वह महान थे, विचित्र थे। उनके शब्दों में पश्चात् में आकर घृणा की दृष्टि आ गई थी।

महाभारत के पश्चात् कलियुग आया। यहाँ एक महाराजा बुद्ध नाम के आये और उनको भी यहाँ अवतार मान बैठे जिन्हें वेद का पूरा ज्ञान न था। परंतु उन्हें ज्ञान था "अहिंसा परमोधर्म:" का। जिसको लेकर वह चले और संसार का पुनः उत्थान कर दिया, आज हम उन महान आत्मा ने तो यह भी कहा कि परमात्मा ने यह संसार रचा ही नहीं, यह अनादि काल से चला आ रहा है। जो क्या हम उनको अवतार मान बैठे? अपना भगवान मान बैठे। जिन्होंने परमात्मा के ऊँचे स्वरूप को, उस महान विश्वकर्मा को अच्छी प्रकार जाना ही नहीं। हम यह नहीं कहते कि कुछ नहीं जाना, बहुत कुछ जाना। हम यह अवश्य कहेंगे इस अन्ध्कार के संसार को प्रकाश देकर चले गये। परंतु यह नहीं कह सकते कि वह परमात्मा का अवतार बनकर आ गये, इसको कोई भी महान् आत्मा, कोई भी योगी कदापि भी स्वीकार नहीं करेगा।

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ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

सोमवार, 2 जनवरी 2017

महाभारत के बाद का आर्यावर्त भाग १

ॐ 
जय गुरुदेव

महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त: भाग - १




जातिवाद का प्रारंभ:

जब महाभारत काल के पश्चात्  राजा परीक्षित के पुत्र जनमेजय राजा हुए और  उन्होंने एक सर्वस्व यज्ञ किया  तो जितनी उनके द्वारा सम्पत्ति थी सब यज्ञ में अर्पण कर दी। जब महाराजा जनमेजय ने यह निश्चय किया कि जितनी मेरी सम्पत्ति है वह सब यज्ञ में अर्पण हो तो वहाँ कुछ ऐसा पाया गया कि उस कार्य में आदि ब्राह्मणों को निमंत्रण न देकर यजन किया गया। महर्षि जैमिनी मुनि उस यज्ञ के ब्रह्मा बने और ब्रह्मा बन उस यज्ञ को पूर्ण कराया। महाराजा जनमेजय यजमानी सहित विराजमान थे। तभी कुछ ऐसा कार्य हुआ कि आचार्य जी ने भविष्य की वार्ता उच्चारण करते हुए कहा कि आपका यज्ञ सफल नहीं होगा। वहाँ जब एक ब्राह्मण ने मग्नता मनाई तो महाराजा जनमेजय के ह्रदय में यह भावना प्रकट हुई कि यह ब्राह्मण तेरी मग्नता मना रहा है तो जनमेजय ने उस ब्राह्मण के कंठ से ऊपर के भाग को अपने वज्र से अलग कर दिया।  जब उसने यज्ञशाला में यह कर्म कर दिया तो यज्ञ भ्रष्ट हो गया। जब यज्ञ भ्रष्ट हो गया तो वहाँ ब्राह्मणों ने यज्ञ का त्याग किया और कहा कि हम कदापि भी द्रव्य न लेंगे दान के पात्र नहीं बनेंगे। जब महाराजा जनमेजय ने यह वार्ता सुनी तो उन्हें ज्ञान हुआ कि तेरे गुरु ने तुझे संकेत किया था परन्तु तब भी तूने ब्राह्मण के शीश को समाप्त कर दिया अब तुझे क्या करना चाहिए? इस प्रकार ऐसा हुआ है कि ब्राह्मणों को द्रव्य न देकरके भूमि का दान दे करके वहाँ से पृथक कर दिया। वहाँ से ही जाति का प्रारंभ हो गया उसके पूर्व वर्ण व्यवस्था थी। जो ब्राह्मण कर्म करने वाले थे वह ब्राह्मण बने रहे और इसके पश्चात् जिन्होंने त्याग दिया उन्हें त्यागी रूपों से पुकारने लगे। अब यहाँ से जातिवाद का भेद बन गया।

इसके पश्चात् आगे काल चलता रहा। जब अज्ञानता आई तो ब्राह्मणों ने विद्या की सूक्ष्मता कर दी। सूक्ष्मता के कारण क्षत्रियों में जो वास्तविक शिक्षा थी वह समाप्त होने लगी वेद की विद्या लुप्त होने लगी। आगे काल आया कितने सन्यासी बने परन्तु कोई यथार्थ सन्यासी बना तो उसकी यथार्थ विद्या को न मानना और अपने स्वार्थ के वशीभूत हो मनमानी वार्ता चलने लगी। अब यहाँ नाना प्रकार का जातिवाद चलने लगा और एक दूसरे से घृणा होने लगी। मनु महाराज ने जो भी आदेश दिया उन पर न चलना। राजाओं में नाना प्रकार की त्रुटियां आ गईं। नाना देवियाँ उनके स्थान में रहा करतीं। यहाँ देवियों की विद्या और उनकी प्रतिभा थी वह समाप्त होने लगी। उसके पश्चात् यहाँ धर्म के विषय पर सम्प्रदाय चल गए। जिससे घृणा की उसी का सम्प्रदाय पृथक बन गया।

वाममार्गी सम्प्रदायः

जब यहाँ सम्प्रदाय बनने लगे तो यहाँ एक वाममार्गी सम्प्रदाय चला। इनका दुराचार जो साफ़ देखा गया था, उस दुराचार को यहाँ वर्णन नहीं करेंगे परन्तु वेद की विद्या उन्होंने नष्ट कर दी। वेदों का कुछ भाष्य किया परन्तु वह भाष्य भी अनुचित कर दिया, जिससे संसार में नास्तिकता दौड़ने लगी। कुछ व्यक्तियों ने तो ऐसा कहा है कि यह परमात्मा कोई पदार्थ नहीं और न परमात्मा की यह वेद विद्या है। यह तो धूर्त विद्या हैं, हम इस वेद की विद्या को कदापि स्वीकार नहीं करेंगे। तो जब वाममार्गियों ने ऐसा किया तो वेद की विद्या यहाँ से लुप्त होने लगी। यह सम्प्रदाय बड़ा दुराचारी था। दुराचारी सम्प्रदाय होने के कारण राष्ट्र में अज्ञानता आने लगी।

उस काल में क्या होता था? इन वाममार्गियों ने ऐसा किया कि जब अजामेध यज्ञ करते तो बकरी के अंगों की उसमें आहुति देते। अजा कहते हैं बकरी को, जैसा पूर्व कहा है- अजामेध यज्ञ को जब इन्होंने समझा नहीं तो क्या किया कि यज्ञ में अजा को लेकर वेद मंत्र का पाठ करते हुए 'चक्षुस्ते-शुन्धामि', जिस अंग का नाम आये उस अंग की आहुति देने लगे और उसे अजामेध यज्ञ वर्णन करने लगे। जब गौ मेध यज्ञ का वर्णन आता तो वहाँ गौ माता की आहुति देकर यज्ञशाला में अर्पण करने लगे। वह यहाँ ऐसा अधोगति का काल आया। जिसमें दार्शनिक समाज और वैज्ञानिक समाज सब तुच्छ होने लगे। वेद की विद्या लुप्त होने से संसार अधोगति को चला गया। गौ मेध यज्ञ को समझा नहीं कि गौ कहते हैं पृथ्वी को और पृथ्वी की विद्या को जानना ही गौ मेध यज्ञ है, उन्होंने इसको समझा नहीं। उन्होंने केवल यहीं समझा कि गौ मांस की आहुति दो तब ही तुम्हारा यज्ञ सफल होगा।

अज्ञानता आ जाने के कारण आगे चलकर अश्वमेध यज्ञ भी विकृत होने लगे।उन्होंने अश्वमेध का अभिप्राय जो वेद में वर्णन किया है कि जब राजा अश्वमेध यज्ञ करता था तो वह घोड़ा छोड़ता था और जो उस घोड़े को रोक लेता था राजा उसके साथ युद्ध करता था। उसके विजय होने के पश्चात् उसे अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार था उन्होंने इस कर्मकाण्ड को त्याग दिया और भगवन्! हमने उन वाममार्गियों को देखा जिन्होंने देखो, "प्राह गणे ते अचते!" देखो, "इनके लिङ्गम यज्ञते महान यज्ञ मानस्य"। वहाँ दुराचार, भ्रष्टाचार होने लगे समाज में नास्तिकता आने लगी, परमात्मा को शान्त कर दिया और कहा कि परमात्मा कोई पदार्थ नहीं।

महाभारत के पश्चात् के काल में वाजपेयी यागों में पशुओं की बलियों का वर्णन किया गया। एक कान्तकेतु वाममार्गी था, उन्होंने एक समय यह वाजपेयी याग किया और उसमें गऊ की बलि प्रदान की गयी परन्तु उसका परिणाम यह हुआ कि समाज में नास्तिकवाद आ गया, वेदों के प्रति, मन्त्रें के प्रति, आस्था न रही। इसलिए वैदिक साहित्य लुप्त हो गया।



(क्रमशः)


अगली कड़ी में - पांडव वंश के शासक एवं महात्मा महावीर


आपका  
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

रविवार, 1 जनवरी 2017

माई आश्रम भाग-2

एक रहस्यमयी पेशकश 
भारत की एक विरासत - माई आश्रम, इस्माईलपुर, बिजनौर 
भाग-2
 
 
 
लेखकः डा0 नेतराम सिंह
महात्मा गोपालदास जी ने सपने में ही वचन दिया और एक गाय का सींग इस स्थान पर गाढ़ गए। भ्रमण के 6 माह बाद अपने आश्रम झज्जार (हरियाणा) पहुँचे। एक दरोगा जिसका नाम नरसिंह था वह हरियाणा पुलिस में तैनात था। एक हत्या के केस में रिश्वत खा गया व परेशान रहने लगा। उसने यह गाथा सुनी और कुल मिला कर बात यह कि माई की जीवंत गाथा पढ़कर वैराग्य हो गया। वह गुरु गोपाल दास जी की शरण में पहुँच गया। उनका प्रवचन सुनकर वह उन से बहुत प्रभावित हुआ तथा नौकरी से त्यागपत्र देकर गोपाल दास जी का शिष्य बन गया। जब नरसिंह गोपाल दास जी का शिष्य बन गया तब गुरुदीक्षा देने के बाद गोपालदास जी नरसिंह को इसी (माई आश्रम) में लाये। गाय का सींग दिखा कर स्थान बताया और कहा कि आपको ही यहाँ सेवा करनी है, प्रभु भजन करना है। नरसिंह दास जी ने गुरु वचनों को मान इसी स्थान पर तपो भूमि समझकर तप किया। भरी दोपहर को नंगे पैर धूप में रेत में पड़ा रहना। जो कुआँ हजारों वर्ष का था (महाभारत काल का) उसे उजागर कर फिर से कुआँ बनवाया और पियाऊ बनवायी और पशुओं, चरवाहों व ग्वालों को पानी पिलाते थे। इस प्रकार 20 वर्ष तक यहाँ सेवा की। मंदिर, सुरंग व अंडरग्राउंड बिल्डिंग आदि भी बनवाए। परंतु बड़े दुःख के साथ लिखना पड़ रहा है कि झज्जर में गऊ स्थान पर उनके आसपास बिराल, नसीरपुर, चहला से मदारीपुर, कुलचाना आदि के शिष्य उनके साथ गये। वे बताते थे कि उनके गुरुभाई जब नरसिंह आश्रम झज्जार में बैठे विचार कर रहे थे तभी नरसिंह दास जी ने बताया कि मेरा अन्तिम समय आ गया है। आप सब चले जाओ। देख अपनी भाले तलवार लिए लोग आ रहे हैं। उन्होंने ताबड़ तोड़ महात्मा जी पर वार किया और उनके टुकड़े टुकड़े कर दिये। उनके शिष्य भाग गये।
अन्य महात्मा लटधारी नारायण दास जी महाराज भी यहाँ रहे (२०० साल पहले) जिन्होंने मृत्यु पर्यन्त यहाँ तप व सेवा की। तत्पश्चात गऊ दस जी महाराज व उनके बाद एक अजनबी महात्मा जोधानाथ भी आये। उन्होंने भी यहाँ बहुत सेवा की। पेड़ों को पानी देना एवं पंचवटी का नदी शिखर आदि बनवाये। उन्होंने नूरपुर(बिजनौर) चौराहे पर शिव मंदिर की नींव रख निर्माण कराया इसी समय रहस्यमयी दुर्घटना में उनकी मृत्यू हो गई। उसके बाद मध्यप्रदेश से सुरेशगिरी जी महाराज आये जो बिल्कुल सीधे साधे थे। उन्हें भविष्यवाणी आदि का ज्ञान नहीं था। उन्होंने कोई विशेष वेशभूषा भी नहीं धारण की हुई थी। बिल्कुल साधारण व्यक्ति थे। क्षेत्र वर्तमान चहला निवासी डा0 नेतराम सिंह के बड़े प्रेमी रहे। अर्थात् लेखक को उन के साथ समय बिताने का काफी मौका मिला। उन्होंने चौ0 चमन सिंह, विजय सिंह, राज बाबू, मंत्री जी, डा0 नेतराम सिंह, मा0 बालकरन सिंह आदि के सहयोग से एक कमरा बनवाया उसी में विश्राम करते व वह साधारण कमरा ही उनका मंदिर था। मंदिर की सफाई, पेड़-पौधों की सेवा आदि बड़ा कर्म करते थे। 27 वर्षों तक बड़ी सेवा की। उन्होंने अपनी मृत्यु को 24 घंटे पहले बता दिया था। उनकी मृत्यु का समाचार सुनकर क्षेत्र में शोक की लहर दौड़ गयी बड़ी संख्या में श्रद्धालु लोग आये। और चर्चा की कि इस वन ने एक महात्मा खो दिया।

उनके बाद नरसिंह जी के शिष्य स्वामी धर्मपाल जी, निवासी मीरापुर ने एक वर्ष सेवा की। फिर चन्द्र दास  जी महाराज भी यहाँ रहे। आज एक सरभंगी महात्मा सत्यपाल उर्फ़ बंजारागिरि
जी,  चहला निवासी रहते व सफाई, अर्चना पूजा करते हैं।

कहा जाता है कि यहाँ जो भी मुराद करते हैं वह पूरी हुआ करती है। इस आश्रम से अपनी श्रद्धा से सेवा के द्वारा एक मन की मुराद पूरी हुई जो कि लेखक के स्वयं के पारिवारिक अनुभव पर आधारित भी है। एक बार नोरंग सिंह डा0 नेतराम सिंह(लेखक) के पिता जी अपने पुत्र की गम्भीर हालत में बीमार पुत्र को तांगे से ले जा रहे थे। उसकी हालत बहुत गंभीर थी, और बचने की कोई आशा न थी। इस स्थान पर जब आश्रम इस प्रकार नहीं था। उन्हें एक महात्मा अनायास मिले जिनके शरीर पर वस्त्र भी नहीं थे। बालों से ही सारा शरीर ढका हुआ था। श्री नारंग सिंह ने अपने लाड़ले को उनके चरणों में डाल दिया। माताजी तो देखकर डर गयीं। उन्होंने पुत्र के सिर पर हाथ फेर दिया और ओझल हो गए। अतः फिर वे उसे चाँदपुर को डॉक्टर तक लेकर नहीं गए। क्योंकि वे बहुत गरीब थे। अतः अपने प्रभु पर ही विश्वास कर लिया। देखा तो पुत्र खेलने लगा। और कुछ दिनों में पूर्णतया स्वस्थ हो गया। उस समय पुत्र की आयु 5 वर्ष थी। उनके परिवार वाले आज भी लेखक पर उन्हीं का आशीर्वाद मानते हैं।
 
इस्माईलपुर निवासी भाइयों ने चारों ओर तार सेवा करायी और उनकी मनोकामनाएँ भी पूरी हुईं। उसी समय 2015-2016 में बहुत बड़ा दरवाजा भी बनवाया गया। हजारों की तादाद में दम्पत्तियों के संतान पैदा हुईं जिनके संतान नहीं हुआ करती थी वे लोग आज भी माता व संतान को साथ लेकर यहाँ झंडियाँ चढ़वाया करते हैं। हजारों की संख्या में यहाँ भक्त गण हर सोमवार को आ कर माई के लिए प्रसाद चढ़ाते देखे जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि माई आश्रम से अभी तक कोई भी खाली नहीं गया है जिसने जो भी मन्नत माँगी है वह पूर्ण हुई है।


अभी हाल ही में इस जगह का प्रस्ताव, आचार्यकुलम गुरुकुल इस स्थान पर खुलवाने के लिए इस्माइलपुर ग्रामवासियों के द्वारा बाबा रामदेव जी के आश्रम को भेजा गया है। उम्मीद है कि निकट भविष्य में ही यहाँ प्राचीन माई के गर्भ गृह के साथ-साथ आचार्यकुलम गुरुकुलम की नींव भी रखी जायेगी। जहाँ पर दूर दूर के छात्र छात्राएं वैदिक पद्यति से सी0बी0एस0सी0 बोर्ड की आधुनिकतम  शिक्षा लेने में समर्थ होंगे।


आपका अपना 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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