शुक्रवार, 29 जून 2018

प्रजातंत्र और साम्यवाद

राष्ट्र में रूढ़िवाद नहीं होता, इसमें साम्य विचार होते हैं , इसमें सभी मानवों को उच्चारण अधिकार होता है, परन्तु जो राष्ट्रद्रोही होता है उसे एक भी वाक्य उच्चारण नहीं करने देना चाहिए।  जो राष्ट्र को दूसरों को देना चाहता  राष्ट्रद्रोही है। 

प्रजातंत्र और साम्यवाद 

साम्यवाद उसको कहते हैं जहाँ कोई अविद्वान नहीं होता।  तब प्रजा साम्यता में परिणत  है।  इसमें मानव के समक्ष केवल अपने कर्त्तव्य का लक्ष्य होता है।  जब सृष्टि का आरम्भ होता है तो उस समय यह सब समाज साम्यवाद की छत्रछाया में रहता है।  उनकी परालब्ध तथा क्रियता उनके साथ साथ रमण करती रहती है।  उनका कोई राजा नहीं होता।  केवल कर्त्तव्य का पालन करते चले जाते हैं।  सब कर्तव्यवाद में संलग्न रहते हैं।  जहाँ कोई व्यक्ति निर्धन प्राणियों को लेकर चलता है तथा स्वयं को ऐश्वर्य में ले जाना चाहता है, उनको साम्यवादी कहना मानवता के लिए बहुत आघात है।  साम्यवाद तो मानव को साम्यता देता है, सबको एक सा बनाता है।  आज जो लोग
अपने को साम्यवादी कहते हैं, उनको साम्यवादी कैसे स्वीकार किया जा सकता है, जब उनमें प्रजा का नेतृत्व करने वाला राजा बना हुआ है। साम्यवाद में कोई राजा नहीं होता, वहाँ तो सभी सेवक होते हैं।  यह निश्चय है कि जो सेवक होता है वहीँ संसार में प्रबल होता है।  साम्यवादियों को यह विचारना चाहिए कि तीन प्रकार के कर्म होते हैं १. क्रियात्मक २. संचित और ३. प्रारब्ध।  ये कर्म तथा प्रारब्ध मानव को ऊँचा भी बनाते हैं तथा तुच्छ भी बनाते हैं।  उसी प्रारब्ध के साथ साथ यह समाज चलता रहता  है।  किन्तु इस प्रारब्ध पर आस्था न रहने के कारण विभिन्न प्रकार के वाद बन करके एक राष्ट्र का दूसरे के साथ संघर्ष होता है, अतः प्रारब्ध पर आस्था होना अनिवार्य है।

जब प्रजा का प्रत्येक प्राणी अपने कर्तव्यवाद में संलग्न हो जाता है और वह यह समझता है कि यह मेरा राष्ट्र है।  जो मानव प्रजा का नेतृत्व करने वाला है, जो प्रजातंत्र के तंत्र को ऊँचा ले जाना चाहता है वह अपने को प्रजा का सेवक स्वीकार कर लेता है और यह समझने लगता है कि मैं प्रजा का सेवक हूँ।  इस प्रकार की भावना आने पर प्रजातंत्र तथा साम्यवाद एक हो जाते हैं।  

साम्यवाद और प्रजातंत्र दोनों में कर्तव्यवाद की आवश्यकता होती है।  प्रजातंत्र तभी ऊँचा बन सकेगा जब प्रजा तथा राजा इतने महान हों कि राजा के राजा के चरित्र का प्रभाव प्रत्येक मानव और देवकन्या पर हो।  इसी प्रकार साम्यवाद तभी ऊँचा बनेगा जब साम्यवादी का चरित्र ऊँचा होगा, मानवता ऊँची होगी तथा उसके मन में सांत्वना होगी और वह केवल ऊँची धरा को लेकर चले, उसकी छत्रछाया में यह संसार संलग्न हो जाता है।  प्रत्येक राष्ट्र उसकी छाया में आ जाता है। 

(अतीत का दिग्दर्शन, ऐतिहासिक खंड, पेज : २९-३१ )

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

शनिवार, 16 जून 2018

स्वर्ग एवं नरक का अस्तित्व

आदि ब्रह्मा जी द्वारा अपने शिष्यों को उपदेशित संध्या में 21 मन्त्र हैं जो मानव को ओर अधिक देवता बना देती है।  यही संन्ध्या स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने ब्रह्म यज्ञ के रूप में संस्कार विधि में दी है।  उसी में एक मन्त्र है -

ॐ भूः। ॐ भुवः।  ॐ स्वः।  ॐ महः।  ॐ जनः।  ॐ तपः।  ॐ सत्यम्। 

इस मन्त्र में सात स्वर्गों का जिक्र है - भू लोक, भुव लोक, स्व लोक, मह लोक, जन लोक, तप लोक और सत्यम लोक। ये लोक सात प्रकार के स्वर्ग हैं।  पूर्व से उत्तरोत्तर ऊँची श्रेणी के स्वर्ग हैं।  भू लोक पृथ्वी को कहते हैं अतः यह सिद्ध हुआ पृथ्वी प्रथम चरण का स्वर्ग है व इसी प्रकार ऊपर से ऊपर छः स्वर्ग और हैं।  स्वर्ग का अर्थ है कि  जहाँ दुःख बहुत कम व सुख और आनन्द अधिक हो।  

जिस प्रकार ये सात स्वर्ग हैं इसी प्रकार नीचे की ओर सात प्रकार के नरक भी हैं  - अतल , वितल , रसातल, कुम्भी पाक आदि। यहाँ पर सूर्य प्रकाश व ज्ञान रूपी प्रकाश बहुत कम होने के कारण दुःख अधिक होता है।  हम यह विचार सकते हैं कि प्रकृति, मानव विज्ञान यंत्र, मानव निर्मित पदार्थ, मानव व्यहार, समाज, लोक लोकान्तरों आदि को देख व सांसारिक सुख दुःख को देख यदि हम व्याकुल होते हैं तो यह मात्र ज्ञान की कमी के कारण है।  यदि मानव पर ज्ञान हो तो प्राकृतिक घटनाएं, सामाजिक व पारिवारिक घटनाएँ देख कर जिनपर उसका वश न हो, दुःख नहीं होगा। 

अर्थात जिन लोकों में ज्ञान रूपी प्रकाश कम होता है वहाँ क्लेश, कलह, दुःख अधिक से अधिकतर होता जायेगा  कुम्भीपाक नरक सबसे दुखदायी व क्लेश कारी नरक होता है।  वहाँ की प्राकृतिक घटनाएं, सामाजिक व पारिवारिक घटनाएँ  असह्य होती हैं, ज्ञान की सूक्ष्मता के कारण और भी असहनीय हो जाती हैं। 

यजुर्वेद के 40 वें अध्याय में एक मन्त्र में कहा है -

ॐ अन्धन्तमः प्रविशन्ति येSविद्या मुपासते .... ।

अर्थात वे मानव मरे पीछे अन्धकार से आवृत्त (ज्ञान व सूर्य प्रकाश से क्षीण ) लोकों में प्रवेश हो जन्म पाते हैं जो ज्ञान की अवहेलना कर अविद्या (कर्म व उपासना को अविद्या कहा क्योंकि इसमें ज्ञान विशेष नहीं होता) को भजते हैं।  यहाँ नरक का संकेत है। 

इसी ऋचा में आगे कहा है कि जो अविद्या (कर्म और उपासना) अवहेलना करके केवल ज्ञान (निरे पुस्तकीय पंडित है)  को भजते हैं वे उससे भी भयंकर अन्धकार से आवृत्त लोकों में प्रवेश करते हैं अर्थात और भी निचले नरक में जाते हैं। 

परन्तु इस नरक से बचने का तो एक ही उपाय है वह यजुर्वेद में अगली ही ऋचा में दिया है, परमात्मा स्वतः कहते है -
कर्म, उपासना व ज्ञान का सही स्वरुप जान कर्म व उपासना से मृत्यु को तर जाते हैं तथा ज्ञान से अमृत अर्थात मोक्ष को प्राप्त करते हैं। 


आपका 
ब्र० अनुभव शर्मा 


शनिवार, 2 जून 2018

ग्रहण तथा राहु केतु का स्वरुप



देवर्षि नारद मुनि ने यह कहा था कि 'राहु' और 'केतु' का जीवन में क्या सम्बन्ध है? उन्होंने एक वाक्य कहा कि दोनों की भिन्न भिन्न तरंगे आती हैं तो वह 'राम बृहिः कृताम्  देवाः' उसकी जो कान्ति यदि चन्द्रमा की आभा में परिणत होती है, दोनों का मिलान हो जाता है, तो कुछ वायुमंडल में विष की उत्पत्ति हो जाती है।  वही 'राहु' और 'केतु' दोनों की किरणें यदि चन्द्रमा को न हो करके वे पृथ्वी की आभा पर हो जाती हैं, तो वहाँ प्राणवर्धक वायु का सञ्चार होने लगता है।  यदि वही किरणें सूर्य को ओतप्रोत करती हुई और दोनों के मध्य में यदि चन्द्रमा की तरंगें आ जाती हैं अथवा चन्द्रमा आ जाता है तो उस समय प्राणवर्धक जो वायु है, उसकी सूक्ष्मता हो जाती है।  माता के गर्भस्थल में हम जैसे जो प्यारे पुत्र जो गर्भस्थल में विद्यमान रहते हैं, उनकी एक रुवेणकेतु नाम की नाड़ी होती है जो माता के रसना और ब्रह्मरंध्र से वह नाड़ी चलती है और बालक का जो ब्रह्मरंध्र होता है उस नाड़ी से उसका सम्बन्ध होता है।  जब यदि माता जागरूक रहती है, तो उस नाड़ी में रस आता है।  प्राणवर्धक जो किरणे आ रही है, उनमें सूक्ष्मता हो जाती है इसलिए माता को उस काल में प्रायः जागरूक रहना चाहिए और माता को गायत्री और 'माँ कृतियों' का और प्रभु का चिंतन करना चाहिए।

देवर्षि नारद मुनि ने यह कहा कि 'पृथिव्यां देवः प्रमाणस्वहेः' यदि सूर्य की किरण और चन्द्रमा की 'त्रातकेतु' और 'राहु' और 'केतु' दोनों की धाराएं मिलकर यदि पृथ्वी में आवेश करती है तो पृथ्वी विष बनाने लगती है।  यह जो पृथ्वी विष बनने लगती है तो उसके शोधन के लिए गृह से याग होते हैं।  यागों का अभिप्राय यह कि सुगंध होना। विचारों की सुगन्धि देना और उस समय पदार्थों की सुगन्धि देना बहुत अनिवार्य हो जाता है।  उस समय दिवस की रात्रि बन जाती है और उस दिवस की रात्रि बन जाने से दोनों की आभा में अन्तर्द्वन्द आ जाता है।  तो इसलिए पृथ्वी को सुगन्धित करना यह मानव का कर्त्तव्य कहलाया जाता है।

नारद जी ने यह कहा है, पुत्र! हे ध्रुव! वह जो राहु और केतु का जो जीवन से सम्बन्ध है, यह बाल्यकाल में होता है।  परन्तु बाल्यकाल में माता के गर्भस्थल में, और रहा यह कि जब दिवस की रात्रि बन जाती है तो नेत्रों को, क्योंकि नेत्रों का सम्बन्ध सूर्य से होता है, प्रकाश देता है।  जहाँ तक पदार्थवाद का सम्बन्ध है, वह सब नेत्रों में जो प्रकाश आता है, दृष्टिपात कर रहा है, व्यापार कर रहा है, और सूर्य से जो नाना प्रकार की किरणें इन नेत्रों को प्रभावित कर रही हैं और यदि दूषित किरणें हो जाएँ, वे अप्रोत हो जाएँ।  राहु और केतु की किरणों के द्वारा ऐसा प्रायः होता है कि नेत्रों में कुछ कृति की सूक्ष्मता हो करके ज्योति का सन्देह बना रहता है।  तो इसलिए हमें उससे सावधान अथवा सतर्क रहना चाहिए।

नारद मुनि कहते हैं कि मानव के नेत्रों का सम्बन्ध सूर्य से होता है।  और सूर्य से जब, क्योंकि वहीँ तक होता है जहाँ तक सूर्य की सीमा होती है। वास्तव में तो नेत्रों का सम्बन्ध आत्मा से रहता है।  परन्तु आत्मा से समन्वय होने के कारण तो उसकी धाराएँ पृथ्वी पर प्रदीप्त रहती हैं और उसका आत्मा से समन्वय होता है।  विचार आता है कि हमें आत्मा को जानना है और आत्म-चिंतन करना है, प्रत्येक मानव के द्वारा।  हम तो परम्परा से यही कहा करते हैं कि मानव के जीवन का जितना भी समन्वय है, वह आत्म-चिंतन लगा रहता है।  कितना भी मानव प्रयत्न करता रहे, कितना भी संसार में मानव विलासिता में चला जाए, ममता में चला जाए, किसी भी क्षेत्र में चला जाये, परन्तु जब आत्म चिंतन का समय आता है, आत्म-चिंतन का समय आता है, तो आत्मा उसके लिए समय-समय पर प्रेरणा देता रहता है अथवा उसे बाध्य करता रहता है। इसलिए आत्मा से मानव के जीवन का समन्वय होता है। भौतिक जितना भी पिंड है (यह शरीर है), महान धाराओं से इसकी रचना है, तो इसलिए इसका उन धाराओं से समन्वय रहता है।  राहु और केतु का जो सम्बन्ध है वह मानव के जीवन से और प्रायः माता की नस-नाड़ियों से भी होता है।  तो इसलिए, हमें विचार करना चाहिए, चिंतन करना चाहिए।  रहा यह कि सूर्य की आभा में कहीं चन्द्रमा आ गया है, कहीं चन्द्रमा की आभा में सूर्य आ गया है, देखो यह कोई ऐसा वाक्य नहीं है।  यह तो सदैव बना ही रहता है।  मानव के इस वायुमंडल का जितना समन्वय मानव के विचारों से रहता है, इतना ग्रह की गतियों से नहीं होता क्योंकि ग्रह की गति प्रायः होती रहती है।  वे तो अपनी गतियों से रमण करते रहते।  हैं वह प्रभु का नियम है।  वे अपने नियम के आधार पर प्रायः गति करते रहते हैं।

आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

रविवार, 27 मई 2018

घड़े से सीता का जन्म

सीता राजा जनक की कन्या थी।  एक समय राजा जनक के राष्ट्र में अकाल पड़ गया।  नाना ऋषियों को निमंत्रण दिया गया। याज्ञवाल्क्य, माता गार्गी, महर्षि लोमश आदि और भी अन्य ऋषि उनके आश्रम में आये। राजा जनक ने उनसे कहा कि मेरी प्रजा अन्न के अभाव से दुःखित है कुछ ऐसा यत्न करो कि जिससे अकाल समाप्त हो जाये।  उन्होंने गणित के अनुकूल देखा और कहा कि भगवन आप दो गौ के बछड़े लीजिये, स्वर्ण का हल बनवाइए और अपनी वाटिका में जाकर हल चलाइये।  ऐसा उनका विश्वास था।  राजा जनक ने ऐसा ही किया।  कारण होना था राजा जनक ने ज्यों ही हल चलाया वृष्टि हुई और उधर राजा जनक के घर कन्या का जन्म हुआ। 

राजा जनक को जब गृह से कन्या उत्पन्न होने का समाचार मिला तो बड़े प्रसन्न हुए कि मेरा बड़ा सौभाग्य है, आज ऐसे आनंद समय मेरी पुत्री का जन्म हुआ। उन्होंने ऋषि-मुनियों से कहा कि महाराज अब तो आप सब होकर मेरी कन्या का नामकरण संस्कार कीजिये।  ऋषि-मुनियों ने कहा कि भाई इसका नामकरण संस्कार क्या? इसका नाम सीता नियुक्त कर दो।  व्याकरण की रीति से उन्होंने कहा कि सीता 'ता' नाम वृष्टि का और 'सी' नाम हल की फाली का।  हल चलाने से वृष्टि हुई है और वृष्टि होने से जन्म हुआ है।  दोनों के मिलान से जन्म हुआ है इसलिए कन्या का नाम सीता नियुक्त कर दो। मुनिवरों! उस समय उसका नाम सीता नियुक्त कर दिया गया। 

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

शुक्रवार, 18 मई 2018

मुग़लों के विषय में कुछ संक्षिप्त तथ्य

महाभारत के युद्ध के समय जो लोग कौरवों के पक्ष में व उनके मानने वाले थे वे कुरुवंशी आर्य कहलाये। और जो पांडवों के पक्ष में थे वे तो थे ही आर्य।  आर्य जाति आर्यावर्त की मूल जाति है। अर्जुन के प्रपौत्र परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने सर्वांग याग में एक ब्राह्मण के वध हो जाने से खिन्न होने पर आर्यावर्त छोड़ दिया व जन्मनी देश बसाया जो बाद में अपभ्रंश हो जर्मनी बन गया।  अतः इस प्रकार भारत से कुछ आर्य जर्मनी में गए।  और आज भी वहाँ के लोग अपने को आर्य कहते हैं। 

जैनियों के काल में आज से लगभग 2400 वर्ष पूर्व हमारे मूल रामायण व महाभारत ग्रंथों में जैनी राजाओं के द्वारा परिवर्तन करा दिया गया था चार संस्कृत के विद्वानों - स्वाति, रेण केतु, रमाशंकर व चेतांग को धन का लोभ देकर।  जिसमें रामायण व महाभारत के पात्रों को भ्रष्ट किया गया था।  ताकि भ्रष्ट चरित्रों को देखकर भारतवासी जैनी व बौद्ध धर्म को स्वीकार कर लेवें।  इस कार्य में वे सफल भी हो गए। 

कुरुवंशी आर्यों की एक शाखा में ही मुहम्मद का जन्म हुआ।  अपने से अधिक उम्र की एक धनवान विधवा से विवाह कर उसकी स्थिति व संपत्ति को प्राप्त कर लिया।  गरीब हो कर के ऊँचे बन दुनिया पर राज्य करने का ख्वाब किया जो कि पूरा तो होना ही था।  उन्होंने एक पुस्तक बना एक आस्वाति नाम के वृक्ष की खोकर में छिपा दी।  कुछ समय के पश्चात एक सुबह उठकर उन्होंने अपने मित्र, सम्बन्धियों से कहा कि परमात्मा ने मुझे दर्शन दिए हैं और कहा है कि फ़लां वृक्ष को तुम समाप्त कराओ उसमें मैंने तुम्हे एक पुस्तकालय दिया है।  उन्होंने ऐसा ही किया।  जब वृक्ष नष्ट किया गया तो वहाँ वह पुस्तक निकली।  उन सभी ने उसको परमात्मा का पुस्तक मान लिया और इस प्रकार मुहम्मद की विचारधारा समाज के समक्ष आ गयी।  उन्होंने एक सेना का निर्माण किया और अपने क्षेत्र पर विजय करने के बाद भारत की और भी क़दम बढ़ाया।  दूसरे राष्ट्रों पर रजोगुणी, तमोगुणी भावना से विजय करने का भाव उत्तम विचार नहीं।  राजा भोज के महामंत्री काली ने मुहम्मद का भारत में ही वध कर दिया था।  

मुसलमानों की एक सबसे बड़ी कमी यह है कि जो व्यक्ति अपने जीवन में एक बार भी मांस भक्षण कर ले वह कभी भी आध्यात्मिक विज्ञान में उपलब्धि हाँसिल नहीं कर सकता।  आध्यात्मिक विज्ञान व भौतिक विज्ञान - दो प्रकार के विज्ञान संसार में पाए जाते हैं।  भौतिक विज्ञान के द्वारा मशीन, कल, पुर्जे, बिल्डिंग व अन्य ऐश्वर्य के साधन प्राप्त होते हैं - जबकि आध्यात्मिक विज्ञान इन्द्रियों, मन, बुद्धि, चित्त, आत्मा व परमात्मा का विज्ञान होता है।  यदि कोई मानव भौतिक विज्ञान में 50 वर्ष उपलब्धि प्राप्त करने में लगाए तो वहीँ उपलब्धि आध्यात्मिक विज्ञान से 2 वर्ष में ही हाँसिल कर सकता है।  अतः मानव यदि तीव्र उपलब्धि, तीव्र विकास चाहता है तो भौतिक विज्ञान के साथ साथ आध्यात्मिक विज्ञान भी अति आवश्यक है।

अस्तु जब मुगलों ने आक्रान्ता की दृष्टि से भारत में पुनः प्रवेश किया तो वे सपत्नीक तो आये नहीं थे उन्होंने हमारी माताओं बहनों को ही बलपूर्ण तरीके से अपनाया।  उस समय की अनीति व दुराचारपूर्ण आचरण की कल्पना हृदय को थर्रा देती है।  परन्तु यह तो समय है आया व उन अनीतिज्ञों का यहाँ से सफाया भी हुआ।  यदि उन यवनों के साथ अनीति न होती तो उनके साम्राज्य के समापन का कोई प्रश्न ही नहीं उठता था।  वास्तव में मैं घृणापूर्ण दुराग्रह नहीं कर रहा अपितु सत्य से पुनः अवगत कराना मेरा धर्म है ऐसा विचार कर अपने देश की हिन्दू बहनों को यह सन्देश दे रहा हूँ कि यवनों को पति के रूप में स्वीकार करने से पूर्व इनकी अनीति, दुराचार, खानपान, स्वभाव, व अंधपुस्तक जिसको ये प्रमाण मानते हैं पर अंतर्दृष्टि अवश्य पहुँचावें।  लव जिहाद का शिकार न बन जावें।  वास्तव में विवाह जैसा पवित्र सम्बन्ध सिर्फ तभी होना चाहिए जब गुण , कर्म व स्वभाव लगभग एक से हों व आत्मिक ज्ञान, भौतिक ज्ञान व उपलब्धियाँ भी एक ही भाँति की हों।  वैसे भी कन्या को माता पिता अपने से उच्च कुल में प्रवेश कराया करते हैं।  तो कनिष्ठतम यवनों में अपनी कन्या को न जाने देवें।

उस समय मुग़ल फोजों ने क्या अनाचार व दुराचार किया था यह घृणा पूर्ण वचन तो मैं नहीं बताना चाहूंगा यहाँ पर उस समय मानवता पूर्ण रूपेण नष्ट हो गयी थी यह परिचय देना चाहूँगा।  जिस पुस्तक के मानने वाले वे थे उसी पुस्तक को मानने वाले ये आधुनिक मुग़ल हैं।  जो अनीति, अपवित्रता, दुराग्रह व धृष्टता और दूसरों के पदार्थों को बिल्ली की भांति झपटने में महारत प्राप्त हैं।  उस पुस्तक में गैर मुस्लिम के साथ अनीति के  प्रयोग की जो कथा है मैंने स्वयं पढ़ी है यदि किसी को संदेह हो मेरे वचन में तो स्वयं कुरआन का हिंदी तर्जुमा पढ़ लेवें।  बात स्पष्ट हो जाएगी।

अतः भाइयों बहनों वेदों की और लौटो, सत्यार्थ प्रकाश, गीता, वेद व उपनिषदों का अध्ययन करो, गायत्री का जप करो, ॐ का जप करो, संध्या करो, योग करो व अपनी आत्मा को जानो। जब अपनी आत्मा को जान जाओगे, पूर्व व पर जन्म, स्वेर्ग, नर्क व ईश्वर के विधान में विश्वास हो जायेगा।

बल, यश, धनैश्वर्य, पत्नी, संतान आदि तो प्राप्त करते ही हो परन्तु इसके साथ साथ आध्यात्मिक विज्ञान में भी कुछ प्रवेश अवश्य कर, समाज का, अपने धर्म का, परिवार, ग्राम व क्षेत्र का उत्थान भी अवश्य करो।


इसे अंग्रेजी में पढ़ें 

जय गुरुदेव 

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

द की व्याख्या

ॐ 


मैं आज आत्मा की विवेचना पुनः करने जा रहा हूँ।  जिसे बहुत पूर्व काल से प्रकट कराता चला आया हूँ।  मैंने प्रकट कराया था कि प्रजापति की तीन प्रकार की संतान होती हैं। सबसे प्रथम देवता होते हैं। दूसरे मानव होते हैं।  तीसरे दानव होते हैं। एक समय ऐसा हुआ कि तीनों संतानों ने विचारा आज हम अपने पिता के द्वार चलेंगे।  और उनसे प्रश्न करेंगे।  जिससे हमारा कल्याण हो।  उस समय तीनों संतान प्रजापति के आश्रम में प्रविष्ट हो गयीं।  महाराजा प्रजापति ने उनका बड़ा सुन्दर स्वागत किया।  विराजमान हो जाने के पश्चात् महाराजा प्रजापति ने कहा कि  - कैसे आना हुआ? उन्होंने कहा कि हे भगवन! आपके चरणों को स्पर्श करने के लिए, कुछ अपने कल्याण के लिए, उपदेश पान करने के लिए आ पहुंचे हैं।  उन्होंने कहा कि क्या उपदेश पान करना चाहते हो? उन्होंने कहा कि - भगवन! जिससे हमारा कल्याण हो।  इस वैतरणी नदी से हम पार हो जाएँ, जिससे मान और अपमान होता रहता है, जिससे हमारा ह्रदय विशाल हो जाए। उन्होंने कहा कि बहुत सुन्दर। 

सबसे पहले देवताओं ने कहा कि - भगवन! आप हमें उपदेश दीजिये।  प्रजापति ने उन्हें 'द' का उपदेश देते हुए कहा कि - तुम संसार में दमनशील रहो, क्योंकि जितने देवता दमनशील रहेंगे उतना ही यह संसार धर्म और मर्यादा विशालता को प्राप्त होती रहेगी।  'द' का उपदेश पान करते ही देवता प्रसन्न हो गए। 

अब मानव आये, उन्होंने कहा की प्रभु हमें भी उपदेश दीजिये।  उन्होंने उन्हें भी 'द' का उपदेश दिया।  'द' का उपदेश पान करके जब उन्होंने गमन किया तो प्रजापति बोले , अरे! तुमने क्या जाना है? उन्होंने कहा, प्रभु! आपने हमें 'द' का उपदेश दिया है।  'द' का अभिप्राय है कि मानव को दानी बनना चाहिए दान देना चाहिए, क्योंकि मानव का जो कल्याण होता है वह दान से होता है।  कौनसा दान? जो वस्तु अपने द्वारा हो उसका दान करो, यज्ञ करो उसी से तुम्हारा कल्याण होगा।  'द' से दान बनता है इसलिए हम दानी बनें, भव्य बनें। दान देते हैं तो हमारे द्रव्य की सुरक्षा होती है।  आज जो मानव संकीर्णता में चला जाता है।  वह कृपण बन जाता है।  तो उसका द्रव्य कुछ काल के बाद नष्ट हो जाता है।  जो मानव दान देता है, उज्जवल कार्य करता है, मानव मननशीलता में चला जाता है।  

उसके पश्चात दैत्य आ पहुंचे।  दैत्यों को भी उन्होंने 'द'  का उपदेश दिया।  'द' का उपदेश पान करते ही दैत्य जब गमन करने लगे तो प्रजापति बोले - अरे! तुमने कुछ पान किया।  उन्होंने कहा कि - प्रभु आपने हमें 'द' का उपदेश दिया है।  'द' का अभिप्राय है कि दैत्यों को संसार में दया करनी चाहिए।  जितने मानव उपद्रवी होते हैं वह सब दैत्यों की संज्ञा होती है।  इसलिए दैत्यों को संसार में दया करनी चाहिए।  जब तक दयावान नहीं बनेंगे। तब तक वह प्रजापति की संतान नहीं कहलाते।  वह आगे चल करके उद्दंडता में परिणत हो जाते हैं।  राष्ट्र की परंपरा नष्ट हो जाती है।  देवताओं का जीवन त्राहि-त्राहि करने लगता है। 




आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

शुक्रवार, 16 मार्च 2018

नव वर्ष चैत्र प्रतिपदा, विक्रमी २०७५

ओ३म् 



सभी भाई बहनों को सूचित किया जाता है कि नव वर्ष चैत्र प्रतिपदा, विक्रमी २०७५ सृष्टि सम्वत १,९६,०८,५३,११९ वर्ष (तदनुसार १८ मार्च दिन रविवार २०१८ ईस्वी ) की पावन बेला पर सुबह ८ बजे से १० बजे तक आर्य समाज मंदिर, इस्माईलपुर में अथर्ववेद के मन्त्रों से विशेष यज्ञ किया जा रहा है।  जो कि आठ दिवस तक चलेगा।  सभी जिज्ञासु, ज्ञानवान, सकाम कर्मी आतुर व आर्त भक्त भाई बहन यज्ञ में अवश्य आएं। और आहुतियां दे कर पुण्य लाभ कमाएं। वातावरण को शुद्ध करें और सुखमय जीवन व प्रकृति पाएं। 

आर्य समाज यज्ञ समिति, इस्माईलपुर , जिला बिजनौर , उ० प्र० 


द्वारा ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

सोमवार, 5 मार्च 2018

यज्ञ की महिमा

ओ३म् 

दान की महिमा व यज्ञ को ठुकराने व याज्ञिक को दुत्कारने का फल

चलती चाकी देख के दिया कबीरा रोय
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।
चलती चाकी देख के कबिरा दिया मुस्काय
जो कीली लिपटा रहा बाल न बांका जाय।

भाइयों बहनों! इसी प्रकार यज्ञ ब्रह्मांड की नाभि की नाभि है। जिसने इसका सहारा ले लिया उसका बाल भी बांका नहीं हो सकता।


इसका पुजारी कोई पराजित नहीं होता।
इसके पुजारी को कहीं भी भय नहीं होता।

आदि ऋषियों ने कहा है कि प्रेम से दो, श्रद्धा से भी दो, कर्तव्य के लिए भी दो, भय से भी दो परन्तु दान अवश्य ही करना चाहिए। यह दान मानव का बहुत बड़ा उपकार करता है। वेद में भी कहा है-
मा गृध: कस्यस्विद्धनम्।यजुर्वेद।४०।१।

दान व यज्ञ की महिमा अपरम्पार है।

आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

बुधवार, 28 फ़रवरी 2018

द्रौपदी माता की यज्ञ शाला

आज से लगभग ५००० वर्ष पूर्व का खंडहर जो कि द्रौपदी माता की यज्ञ शाला है - 







 यह यज्ञशाला बरनावा जिला बागपत में स्थित है।  यह वहीँ जगह है जहाँ पाण्डवों के लिए दुर्योधन ने लाक्षागृह का निर्माण करवाया था।

ज्ञातव्य हो कि यहाँ पर इस समय इतिहासकार वैज्ञानिकों की टीम खुदाई कर रही है और पाए अवशेषों से इतिहास का अनुमान व महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त करने का प्रयास कर रही है।

माता द्रौपदी एक विदुषी, वेद की विद्वान् व महान चरित्रवान महिला थीं परन्तु खेद है कि उनके चरित्र को भ्रष्ट कर के जैनी काल में उन लोगों ने कुछ न छोड़ा।  माता द्रौपदी इतनी महान थीं कि उन्हें अपने पुराने सात जन्मों की स्मृति थी और योगिराज श्री कृष्ण जी महाराज उनसे जब भी मिलने आते थे तो उनके चरण स्पर्श करते थे और वह इसलिए क्योंकि उनका जीवन एक तपस्विनी की भांति था।  और वे विदुषी भी थीं।  वे कृष्ण जी की बहन कहलाती थीं। जैनी काल में यह कैसे हुआ कि उनको पांच पतियों वाली कहा जाने लगा इसके लिए अवश्य पढ़ें - महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त भाग - 10


आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018

अथर्ववेद पारायण आंशिक महायज्ञ

।।ओ३म्।।

पूज्यपाद ब्रह्मऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज 



पूज्यपाद महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज 

यज्ञो वै श्रेष्ठतमम् कर्मः

ओ३म् प्रति मे स्तोममदितिर्जगृभ्यात्सूनुं न माता हृद्यं सुशेवम्। 
ब्रह्मप्रियं देवहितम् यदस्त्यहं मित्रे वरुणे यन्मयोभुः।।

आर्य समाज यज्ञ समिति इस्माईलपुर
निकट चाँदपुर स्याऊ (बिजनौर)


अथर्ववेद पारायण आंशिक महायज्ञ 
व ७९ वाँ वार्षिकोत्सव


(६ अप्रैल  शुक्रवार से ८ अप्रैल २०१८ दिन रविवार तक)


सम्पर्क सूत्रः ९६३९२७७२२९, ९४१२८५४२९७, ९४५८२७२०९२(यज्ञ संयोजक गण) 


सभी यज्ञ प्रेमी सज्जनों को यह जानकर हर्ष होगा कि महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती जी महाराज तथा ब्रह्मर्षि ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी महाराज (पूर्व श्रृंगि ऋषि) की पावनी प्रेरणा से आत्मोन्नति एवं पर्यावरण शुद्धि हेतु गुरुकुल आर्ष कन्या विद्यापीठ, श्रवणपुर नजीबाबाद की आर्ष विदुषी आदरणीया बहन सुलभा शास्त्री जी के ब्रह्मत्व में व गुरुकुल की तेजस्विनी ब्रह्मचारिणियों के वेद मंत्रों के पाठ के द्वारा अथर्ववेद पारायण महायाग का आयोजन किया जा रहा है। यज्ञ में आहुतियां देकर पुण्य के भागी बनें तथा ७९वें स्थापना वर्ष व वार्षिकोत्सव जो कि बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा है, में, अपनी भागीदारी अवश्य ही सुनिश्चित कर लेवें।

जो शुभेच्छु आर्य ग्रामवासी सपत्नीक इस यज्ञ में यजमान बनना चाहते हैं वे यज्ञ संयोजक अनुभव शर्मा, अमित कुमार ‘सोनू’ व अरविंद कुमार ‘मोंटी’ से सम्पर्क कर लेवें।

आर्ष भजनोपदेशक :  श्रीमान् राकेश आर्य जी
विशेष अतिथि गण :  आचार्य देवव्रत जी, बहन श्रीमति कमलेश सैनी जी(विधायक चाँदपुर), माननीय श्री वीर सिंह जी(जिला पंचायत सदस्य)

कार्यक्रमः...........................................................................................

६ अप्रैल व ७ अप्रैल (दिन शुक्रवार व शनिवार) को

प्रातः ७ः३० बजे से १०ः३० बजे तक यज्ञ
सांय ३ः०० बजे से ५ः३० बजे तक यज्ञ
रात्रि ८ बजे से १०ः०० बजे तक भजनोपदेश  व आर्ष  उपदेश तथा

रविवार, ८ अप्रैल  को
प्रातः ७ः३० से यज्ञ प्रारंभ व ११ बजे पूर्णाहुति, आशीर्वाद तत्पश्चात प्रसाद वितरण होगा।
............................................................................................................


निवेदक - (गत वर्ष के यजमान) श्रीमति मुन्नी देवी, डा० श्री सहदेव सिंह, सपत्नीक श्रीमान् नैपाल सिंह आर्य, विजयवीर सिंह, उदयवीर सिंह, राजीव कुमार, संजीव कुमार, अमित कुमार, दीपक कुमार, रणधीर सिंह आर्य, अशोककुमार(पू०प्र०) व सभी आर्य कार्यकर्त्ता तथा यज्ञ समिति व महिला यज्ञ साधिका समिति, इस्माईलपुर (बिजनौर)

मंत्री(डा० सहदेव सिंह आर्य)                            प्रधान (नैपाल सिंह आर्य)

स्वागताकांक्षी- समस्त ग्रामवासी, इस्माईलपुर (बिजनौर)

गुरुवार, 15 फ़रवरी 2018

परमात्मा का अस्तित्व

ॐ 


सभी भाई बहन जानते हैं कि परमात्मा होता है परन्तु भौतिक विज्ञान से युक्त बुद्धि वाले हमारे भाई बहन यह नहीं मानते और कहते हैं कि परमात्मा होता ही नहीं और वे आत्मा के अस्तित्व को भी नकारते हैं और न ही उनका लोक, परलोक, कर्म, भाग्य, पूर्व व पर जन्म में ही विश्वास होता है।  वे मानते हैं कि यह संसार आदि काल से ऐसे ही चला आ रहा है और इसका कोई नियामक या शासक नहीं होता।  समय समय पर नयी नयी व्यवस्थाएं बनती हैं और कभी लोकतंत्र तो कभी राज तंत्र तो कभी आततायियों का प्रभुत्व तो कभी अच्छे लोगों का शासन बिना किसी प्रभु की इच्छा के आता रहा है। मेरी यह पोस्ट उन ही भाई बहनों के लिए समर्पित है। 

भाइयों बहनों! आप अपने सामने देखो यह कप्यूटर या मोबाइल का स्क्रीन भी किसी ने बनाया है खुद ब खुद नहीं बन गया।  जिस में आप चाय पीते हो वह कप भी किसी ने बनाया है।  चाय जो पीते हो वह भी कोई स्त्री या पुरुष या आप खुद बनाते हो खुद ही नहीं बनती।  जिन किताबों को आप पढ़ते हो वह भी किसी ने बनायी हैं और कंप्यूटर से छापते हुए भी कोई मानव ही था जिस के कारण छपीं।  जिस पैन को आप प्रयोग करते हो वह भी किसी मानव ने ही बनाया।  इसी प्रकार जिस पलंग पर आप सोते हो वह भी किसी बढ़ई ने बनाया। जिस कॉपी पर आप लिखते हो वह भी मानवों के द्वारा निर्मित हैं।  किसी या किन्हीं मानव/मानवों ही ने इनकी खोज की और फिर मानवों के द्वारा ही मशीन्स की सहायता से व बुद्धि और ज्ञान के प्रयोग साथ साथ पदार्थों के संयोग के द्वारा ही ये सभी चीज़ें बनायी गई हैं खुद ही नहीं बनी हैं।  है न? अर्थात कोई भी पदार्थ या वस्तु खुद ही नहीं बन सकती उसका कोई न कोई बनाने वाला होता है।  

अब विचारो कि इतने बड़े सूर्य को किसने बनाया होगा। हम यदि विचारें कि पूर्व समय में बहुत बड़े बड़े मानव रहे होंगे उन ही ने बनाया होगा तो इतना बड़ा मानव तो हो नहीं सकता जो पृथ्वी से लाखों गुना बड़े सूर्य का निर्माण कर सके।  और पुराने समय में अधिक से अधिक आज से दुगने मानव होते होंगे उससे बड़े तो संभव ही नहीं।  अर्थात सूर्य को किसी और ने बनाया है क्यूंकि यह पदार्थ बिना बनाये तो बन नहीं सकता।  तो भाई जिसने भी बनाया वह ही परमात्मा है। देखो मानव के नेत्र को विचारो कोई वैज्ञानिक ऐसा नहीं हुआ जो ऐसे नेत्र बना सके, केवल ट्रान्सप्लांट ही किया करते हैं डॉक्टर मानव नेत्र के ऑपरेशन्स के समय।  इसी प्रकार हृदय आदि को भी विचारें।  ये अंग मानव नहीं बना सकता।  अर्थात माता के गर्भ में जिसने भी बनाया वह ही परमात्मा है भाइयों! 

अब विचारें फूल, कितनी सुन्दर नक्काशी, और सभी पंखुड़ियों की व्यवस्था और डिज़ाइन एक जैसे, तो भाई फूल को भी निश्चित रूप से परमात्मा ही बनाता है।  और यह पृथ्वी भी एक समान गति से अरबों वर्षों से घूम रही है तो उस को प्रारंभिक गति देने वाला कौन जो गति पाकर पृथ्वी अभी तक नहीं रुकी? तो भाई पृथ्वी के निर्माण के पश्चात उस गति को देने वाला भी परमात्मा ही है?

अतः सिद्ध हुआ कि परमात्मा है। 


परमात्मा वायु के सामान अदृश्य चेतना के रूप में सारे ब्रह्माण्ड में फैला है और पार निकला हुआ है। उपनिषदों के अनुसार परमात्मा इतना सूक्ष्म भी है कि मानव के ह्रदय की गुफा में समा जाता है।  हमारे सिर के बाल की अनुप्रस्थ काट के ९९ भाग करें उस एक भाग के ६० भाग करें फिर उससे प्राप्त  एक भाग के ९९ भाग फिर करें और प्राप्त एक भाग के फिर ६० भाग करें - भाइयों बहनो इतना सूक्ष्म परमात्मा है।  और इतना विस्तृत है कि हम असंख्य जीव उस पिता परमात्मा के भीतर समाये हुए हैं अर्थात उस माता के गर्भ में समाये हुए हैं। वह परमात्मा हमारी माता भी है और पिता भी।  परमात्मा क्यूंकि एक चेतना है और हर समय हर स्थान पर पहले से ही मौजूद है अतः उसकी मूर्ति नहीं बन सकती।  परन्तु वह नहीं है ऐसा कभी नहीं विचारना चाहिए।  क्यूंकि वह हर वक़्त हमें देखता है और हमारे मन की बातें भी सुनता है। 

आपका अपना 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

मंगलवार, 13 फ़रवरी 2018

त्रेता काल का दंड विधान (प्राइम मिनिस्टर जी को सन्देश)

ओ३म् 


भगवान राम चंद्र जी द्वारा दिया एक दण्ड 


हमारे कानून दा व प्राइम मिनिस्टर जी के लिए यह एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है कि कोई भी अपराधी बिना दंड के दिए, मात्र क्षमा न किया जाए।  अपराधी को दंड दिया ही जाना चाहिए। 


तमोगुणी तप 

तो भगवान् राम का जीवन बड़ा प्रिय और भव्यता में रमण करता रहता था।  परन्तु जब मैं आधुनिक काल के राष्ट्र या माता पिता को दृष्टिपात करता हूँ तो मेरा अंतरात्मा बड़ा आश्चर्य युक्त होता है।  मुझे ऐसा स्मरण आ रहा है मानो भगवान् राम के काल में एक तपस्वी तप करने लगा और वह मानो तमोगुणी तप था।  किसी का अनिष्ट करने के लिए वह कुछ तप कर रहे थे।  राम ने अपने तीखे बाणों से उसे नष्ट कर दिया।  तीखे शस्त्रों से उस पर प्रहार कर दिया।  देखो, ब्रह्मवेत्ताओं में एक बड़ा त्राहि-त्राहि हो गई , कि मानो ऐसा कैसे हुआ? राम के समीप पहुंचे, उन्होंने कहा कि जिस राजा के राष्ट्र में दूसरों का अनिष्ट करने वाले अथवा तपस्वी व तपस्या का ह्रास होता हो उस राजा के राष्ट्र में, तो भगवान् राम ने मानो देखो, उसको त्रास, उसको मृत्यु दंड दिया। 

तो परिणाम यह है कि आज हमारे विचारों का, आज मैं विशेष चर्चा न देता हुआ पूज्यपाद गुरुदेव तो सर्वत्र जानते हैं आधुनिक काल के राष्ट्र की चर्चाएं कि राजा ही मानो देखो, दूसरों का अनिष्ट करने वाले हों तो यह राष्ट्र कैसे स्थिर रह सकेगा देखो, राजा के राष्ट्र में हिंसा होती हो, ईश्वर वाद के ऊपर हिंसा होती हो प्रायः मानो देखो, यह कर्त्तव्य माना गया है।  हमारे यहां यह सिद्धांत है कि राजा को प्रजा की रक्षा करने के लिए आततायी को दंड देना चाहिए और मानो देखो, महापुरुषों की शुद्धता की रक्षा करनी चाहिए। 



ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी महाराज (पूर्व श्रृंगी ऋषि)  के प्रवचन से 
पुस्तक : त्रेता कालीन विज्ञान 
पेज ५३ 
वैदिक अनुसंधान समिति(रजि 0), दिल्ली 




आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

सोमवार, 12 फ़रवरी 2018

कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छथ

परम पिता परमात्मा ने वेद के द्वारा पुरुषार्थ की आज्ञा सभी मनुष्यों को दी है चाहे वो स्त्री हों या पुरुष।  कर्म के कारण ये संसार भी नष्ट नहीं होता निरंतर चलता ही जा रहा है।  जिस दिन कर्म इस संसार से समाप्त हो गया समझो उसी दिन इस संसार का अंत निकट है।  यजुर्वेद के ४० वे अध्याय के २ वे मन्त्र में कहा है कि कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छथ अर्थात कर्मों को करता ही करता सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करें, कभी निठल्ला रहने की इच्छा भी न करें। 

भगवान श्री कृष्ण ने भगवत् गीता में कहा है कि कर्म निम्नलिखित प्रकार के होते हैं -

कर्म, अकर्म व विकर्म तथा सतोगुणी, रजोगुणी व तमोगुणी कर्म। 

कर्म - फल की इच्छा के सहित किया जाने वाला कर्म, कर्म कहलाता है। 

अकर्म - फल की इच्छा को त्याग कर किया जाने वाला  कर्म, निष्काम कर्म, अकर्म की संज्ञा में आता है। 

विकर्म - पाप रूप उलट कर्म विकर्म कहलाते हैं। 

सतोगुणी कर्म - परोपकार के कर्म, जो शुरू में विष के तुल्य हों व फल में अमृत तुल्य होते हैं, सतोगुणी कहलाते हैं। 

रजोगुणी कर्म - इन्द्रियों के द्वारा किये वे कर्म जो प्रारम्भ में सुखदायक होते हैं परन्तु फल उनका दुःखप्रद होता है, रजोगुणी कर्म कहलाते हैं। 

तमोगुणी कर्म - दूसरों को कष्ट देने वाले, हिंसा से भरे आदि कर्म जिनका फल विष तुल्य होता है तमोगुणी कर्म कहलाते हैं। 

थोड़ा सा अकर्म  (निष्काम कर्म) भी बहुत बड़े दुःख व भय से मुक्ति दिलाने वाला होता है अतः गीता में समझाया हुआ निष्काम कर्म महान है। 

अतः अकर्म व सतोगुणी कर्म सर्वश्रेष्ठ व महान हैं। वास्तव में सतोगुणी कर्म ही धर्म कहलाता है।




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आपका अपना 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

शनिवार, 3 फ़रवरी 2018

WOMEN RIGHTS IN VEDAS

WOMEN RIGHTS IN VEDAS


WOMEN SHOULD--



1. BE VALIANT : YJ 10.03
2. EARN FAME : AV 14.1.20
3. SCHOLAR : AV 11.5.18
4. ILLUMINATING : AV 14.2.74
5. PROSPEROUS AND WEALTHY : AV 7.47.2
6. INTELLIGENT AND KNOWLEDIABLE : AV 7.47.1
7. TAKE PART IN LEGISLATIVE CHEMBERS : AV 7.38.4
8. LEAD STAGE FOR RULING NATION : RV 10.85.46
9. SOCIAL WORKS : RV 10.85.46
10. LEAD STAGE IN GOVENMENTAL ORGANIZATIONS : RV 10.85.46
11. SAME RIGHT AS SON OVER FATHER'S PROPERTY : RV 3.31.1
12. PROTECTOR OF FAMILY AND SOCIETY : AV 14.1.20
13. PROVIDER OF WEALTH, FOOD AV 11.1.17
14. PROVIDER OF PROSPERITY : AV 11.1.17
15. RIDE ON CHARIOTS : AV 9.9.2
16. PARTICIPATE IN WARS :  YV 16.44





1. अर्थेत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्र मे दत्त स्वाहार्थेत स्थ राष्ट्रदा राष्ट्र्ममुष्मै दत्तौजस्वति स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वाहौजस्वती स्थ राष्ट्रदा राष्ट्र्ममुष्मै दत्तापः परिवाहिणी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्रं मे दत्त स्वहापः परिवाहिणी स्थ राष्ट्रदा राष्ट्र्ममुष्मै दत्तापां पतिरसि राष्ट्रदा राष्ट्रं मे देहि स्वाहापां पतिरसि राष्ट्रदा राष्ट्र्ममुष्मै देह्यपां गर्भोसि राष्ट्रदा राष्ट्रं मे देहि स्वाहापां गर्भोसि राष्ट्रदा राष्ट्र्ममुष्मै ।यजुर्वेद ।१०.०३

2, 12. भगस्त्वेतो नयतु हस्त गृह्यश्विना त्वा प्र वहतां रथेन 
गृहान्गच्छ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि ।अथर्ववेद ।१४.१.२०

3. ब्रह्मचर्येण कन्या३ युवानं विन्दते पतिम् । अनङ्वान्ब्रह्मचर्येणाश्वां घासं जिगीर्षति ।अथर्ववेद ।११.०५.१८

4. येदं पूर्वागन्न्रशनायमाना प्रजामस्यै द्रविणं चेह दत्त्वा 
तां वहन्त्वगतस्यानु पन्थौ विराडियंसुप्रजा अत्यजैषीत् ।अथर्ववेद ।१४.२.७४

5. कुहूर्देवानाममृतस्य पत्नी हव्या नो अस्य हविषो जुषेत
शृणोतु यज्ञमुशति नो अद्य रायस्पोषं चिकितुषी दधातु ।अथर्ववेद ।७.४७.२

6. कुहूं देवीं सुकृतं विद्मनापसमस्मिन्यज्ञे जोहवीमि 
सा नो रयिं विश्ववारं नि यच्छाद्ददातु वीरं शतदायमुक्थ्यम् ।अथर्ववेद। ७.४७.१

7. अहं वदामि नेत्त्वं सभायामह त्वं वद 
ममेदसस्त्वं केवलो नान्यासां कीर्त्याश्चन ।अथर्ववेद ।७.३८.४

8, 9, 10. सम्राज्ञी श्वशुरे भव सम्राज्ञी श्वश्वां भव
ननान्दरि सम्राज्ञी भव सम्राज्ञी अधि देवृषु।ऋग्वेद।१०.८५.४६

11. शास्द्वह्निर्दुहितुर्नप्त्यं गाद्विद्वां ऋतस्य दीधितिं सपर्यन् 
पिता यत्र दुहितुः सेकमृन्जन्त्सं शग्म्येन मनसा दधन्वे।ऋग्वेद ३.३१.१ 

13, 14. शुद्धाः पूता योषितो यज्ञिया इमा आपर्श्चरुमव सर्पन्तु शुभ्राः 
अदुः प्रजां बहुलान्पशून्नः पक्तौदनस्य सुकृतामेतु लोकम् ।अथर्ववेद ।११.१.१७

15.  सप्त युञ्जन्ति रथमेकचक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा 
त्रिनाभि चक्रमजरमनार्वं यत्रेमा विश्वा  भुवनाधि तस्थुः ।अथर्ववेद ।९.९.२

16. नमो व्रज्याय च गोष्ठ्याय च नमस्तल्प्याय च गेह्याय च नमो हृदय्याय च निवेष्प्याय च नमः काट्याय च गह्वरेष्ठाय च ।यजुर्वेद ।१६.४४


द्वारा 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 



गुरुवार, 1 फ़रवरी 2018

अतिमहत्वपूर्ण जानकारी : सरपंचो की कमाई

सरपंचो   की कमाई



अपने अपने गांव पंचायत और जिले के सभी पंचायत में कितना पैसा सरकार का आया है और क्या काम किया और किस काम का कितना पैसा आप के गांव के सरपंच ने खाया उस का पता इस लिंक से लगाओ ओर सरकार के अपने पैसो का सही उपयोग  करे


# अतिमहत्वपूर्ण_जानकारी



इस लिंक पे आप अपने गांव मे हुए सभी कार्यो की जानकारी देख सकते है।  किस काम मे कितना पैसा खर्च हुआ। 

यह देखकर हैरान हो गया कि एक छोटे से भी काम के लिए सरकार कितना पैसा देती है।  अब हमको जागरूक होने की जरूरत है।  सभी जानकारियां सरकार ने ऑनलाइन वेबसाइट पर उपलब्ध करा दी है बस हमें उन्हें जानने की जरूरत है।  यदि हर गांव के सिर्फ 2-3 युवा ही इस जानकारी को अपने गांव के लोगों को बताने लगें, समझ लो आधा भ्रष्टाचार ऐसे ही कम हो जाएगा। 

इसलिए आपसे गुजारिश है कि आप अपने गांव में वर्ष 2016-17 मे हुए कार्यो को जरूर देखें और इस लिंक को देश के हर गांव तक भेजने की कोशिश करे ताकि गांव के लोग अपना अधिकार पा सके।  एक बार अवश्य देखे व जाने कितनी मद आपके ग्राम सभा में प्रधानों ने खर्च की है। 


आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

संत शिरोमणि सतगुरु रविदास महाराज की जयंती

महान युग द्रष्ठा सामाजिक समरसता के प्रणेता संत रविदास की जयंती माघ पूर्णिमा २०७४ विक्रमी तदनुसार 31 जनवरी 2018 पर हार्दिक बधाई।



प्रभु जी तुम चन्दन हम पानी
जाकी अंग अंग बास समानी।

प्रभु जी तुम घन बन हम मोरा
जैसे चितवन चंद चकोरा।

प्रभु जी तुम दीपक हम बाती
जा की जोत बरै दिन राति।

प्रभु जी तुम मोती हम धागा
जैसे सोनहि मिलत सोहागा।

प्रभु जी तुम स्वामी हम दासा
ऐसी भक्ति करै रैदासा


काशी मे चवरबंश के पीपल गोत्र मे जन्म लिया । रामानंद जी को गुरु बनाया। 

काशी नरेश एवं चित्तोड के महाराणा परिवार की मीरा को शिष्या बनाया । सदना कसाई को शास्त्रार्थ कर हिन्दू बनाया । सिकन्दर लोधी ने इस्लाम स्वीकार करने को जेल मे डाला पर उन्होंने किसी भी हालत मे हिन्दू धर्म छोडने से मना कर दिया।

वेद धर्म सबसे बड़ा, अनुपम सच्चा ज्ञान। 
फिर मैं क्यों छोड़ूँ इसे पढ़ लूँ झूट क़ुरान। 
वेद धर्म छोड़ूँ नहीं कोसिस करो हजार। 
तिल-तिल काटो चाही गोदो अंग कटार। 

संत शिरोमणि सतगुरु रविदास महाराज की जयंती पर आपको हार्दिक बधाई ।

आडम्बर को त्यागने की प्रेरणा - जब मन चंगा तो कठोती मे गंगा  का उदाहरण प्रस्तुत किया ।


ऐसे महान संत का सर्व हिन्दूसमाज सदैव ऋणी रहेगा। 

संत रविदास जी के जन्मोत्सव की कोटि मंगलकामनाएं।




शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

Excellent Message

EXCELLENT MESSAGE
*|||||||| "ये ही सत्य हैं" |||||*

 *Qus→   जीवन का उद्देश्य क्या है ?*
Ans→  जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है - जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष है..!!
*Qus→  जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है ?*
Ans→  जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया - वह जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है..!!
*Qus→  संसार में दुःख क्यों है ?*
Ans→  लालच, स्वार्थ और भय ही संसार के दुःख का मुख्य कारण हैं..!!
*Qus→  ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की ?*
Ans→  ईश्वर ने संसारकी रचना की और मनुष्य ने अपने विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की..!!
*Qus→  क्या ईश्वर है ? कौन है वे ? क्या रुप है उनका ? क्या वह स्त्री है या पुरुष ?*
 Ans→   कारण के बिना कार्य नहीं। यह संसार उस कारण के अस्तित्व का प्रमाण है। तुम हो, इसलिए वे भी है - उस महान कारण को ही आध्यात्म में 'ईश्वर' कहा गया है। वह न स्त्री है और ना ही पुरुष..!!
*Qus→   भाग्य क्या है ?*
Ans→  हर क्रिया, हर कार्य का एक परिणाम है। परिणाम अच्छा भी हो सकता है, बुरा भी हो सकता है। यह परिणाम ही भाग्य है तथा आज का प्रयत्न ही कल का भाग्य है..!!
*Qus→   इस जगत में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है ?*
Ans→   रोज़ हजारों-लाखों लोग मरते हैं और उसे सभी देखते भी हैं, फिर भी सभी को अनंत-काल तक जीते रहने की इच्छा होती है..इससे बड़ा आश्चर्य ओर क्या हो सकता है..!!
*Qus→   किस चीज को गंवाकर मनुष्यधनी बनता है ?*
Ans→   लोभ..!!
*Qus→   कौन सा एकमात्र उपाय है जिससे जीवन सुखी हो जाता है?*
Ans →   अच्छा स्वभाव ही सुखी होने का उपाय है..!!
*Qus →   किस चीज़ के खो जानेपर दुःख नहीं होता ?*
Ans →   क्रोध..!!
*Qus→   धर्म से बढ़कर संसार में और क्या है ?*
Ans →   दया..!!
*Qus→   क्या चीज़ दुसरो को नहीं देनी चाहिए ?*
Ans→   तकलीफें, धोखा..!!
*Qus→   क्या चीज़ है, जो दूसरों से कभी भी नहीं लेनी चाहिए ?*
Ans→   इज़्ज़त, किसी की हाय..!!
*Qus→   ऐसी चीज़ जो जीवों से सब कुछ करवा सकती है?*
Ans→   मज़बूरी..!!🌸
*Qus→   दुनियां की अपराजित चीज़ ?*
Ans→  सत्य..!!
*Qus→ दुनियां में सबसे ज़्यादा बिकने वाली चीज़ ?*
 Ans→   झूठ..!!💜
*Qus→   करने लायक सुकून काकार्य ?*
Ans→ परोपकार..!!🌸
*Qus→   दुनियां की सबसे बुरी लत ?*
Ans→ मोह..!!💝
*Qus→   दुनियां का स्वर्णिम स्वप्न ?*
Ans→   जिंदगी..!!🍀
*Qus→   दुनियां की अपरिवर्तनशील चीज़ ?*
Ans→   मौत..!!💜
*Qus→   ऐसी चीज़ जो स्वयं के भी समझ ना आये ?*
Ans→   अपनी मूर्खता..!!🌸
*Qus→   दुनियां में कभी भी नष्ट/ नश्वर न होने वाली चीज़ ?*
Ans→   आत्मा और ज्ञान..!!💝
*Qus→   कभी न थमने वाली चीज़ ?*
Ans→   समय..

रविवार, 14 जनवरी 2018

यजुर्वेद में योग संबंधी मंत्र

यजुर्वेद में योग संबंधी मंत्र


¬ अन्तस्ते द्यावापृथिवी दधाम्यन्तर्दधाभ्युर्वन्तरिक्षम्। सजूर्देवेभिदवरैः परैश्चान्तर्य्यामे मघवन् मादयस्व। यजु0।।7।5।।

भावार्थः ईश्वर का यह उपदेश है कि ब्रह्माण्ड में जिस प्रकार के जितने पदार्थ हैं उसी प्रकार के उतने ही मेरे ज्ञान में वर्तमान हैं। योगविद्या को नहीं जाननेवाला उनको नहीं देख सकता और मेरी उपासना के बिना कोई योगी नहीं हो सकता।

¬ इन्द्रवायूSइमे सुताSउप प्रयोभिरागतम्। इन्दवो वामुशंसि हि। उपयामगृहीतोSसि वायवSइन्द्रवायुभ्यां त्वैष ते योनिः सजोषोभ्यां त्वा। यजु0।।7।8।।

भावार्थः वे ही लोग पूर्ण योगी और सिद्ध हो सकते हैं जो कि योगविद्याभ्यास करके ईश्वर से लेके पृथिवी प्र्य्यन्त पदार्थों को साक्षात् करने का यत्न किया करते और यम नियम आदि साधनों से युक्त योग में रम रहे हैं और जो इन सिद्धों का सेवन करते हैं वे भी इस योगसिद्धि को प्राप्त होते हैं अन्य नहीं।

¬ या वां कशा मधुमत्यश्विना सूनृतावती। तया यज्ञं मिमिक्षतम्। उपयामगृहीताSस्यश्विभ्यां तवैष ते योनिर्माध्वीभ्यां त्वा। यजु0।।7।11।।
भावार्थः योगी लोग मधुर प्यारी वाणी से योग सीखनेवालों को उपदेश करें और अपना सर्वस्व योग ही को जानें तथा अन्य मनुष्य वैसे योगी का सदा आश्रय किया करें।

¬ तं प्रत्नथा पूर्वथा विश्वथेमथा ज्येष्ठतातिं बर्हिष्द ँ् स्वर्विदम्। प्रतीचीनं वृजनं दोहसे ध्रुनिमाशुं जयन्तमनु यासु वर्द्धसे। उपयामगृहीतोSसि शण्डाय तवैष ते योतिर्वीरतां पाह्यपमृष्टः शण्डो देवास्त्वा शुक्रपाः प्रणयन्त्वनाधृष्टासि। यजु0।।7।12।।
भावार्थः हे योग की इच्छा करने वाले! जैसे शमदमादि गुणयुक्त पुरुष योगबल से विद्याबल की उन्नति कर सकता है, वही अविद्यारूपी अंधकार का विध्वंस करनेवाली योगविद्या सज्जनों को प्राप्त होकर जैसे यथोचित सुख देती है वैसे आपको दे।

¬ सुवीरो वीरान् प्रजनयन् परीह्यभि रायस्पोषेण यजमानम्। संजग्मानो दिवा पृथिव्या शुक्रः शुक्रशोचिषा निरस्तः शण्डः शुक्रस्याधिष्ठानमसि। यजु0।।7।13।।
भावार्थः शमदमादि गुणों का आधार योगाभ्यास में तत्पर योगी-जन अपनी योगविद्या के प्रचार से योगविद्या चाहनेवालों का आत्मबल बढ़ाता हुआ सब जगह सूर्य के समान प्रकाशित होता है।

¬ अच्छिन्नस्य ते देव सोम सुवीर्य्यस्य रायस्पोषस्य ददितारः स्याम। सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा स प्रथमो वरुणो मित्रेSअग्निः। यजु0।।7।14।।
भावार्थः योगविद्या में सम्पन्न शुद्धचित्त युक्त योगियों को योग्य है कि जिज्ञासुओं के लिए नित्य योग और विद्यादान देकर उन्हें शारिरिक और आत्मबल से युक्त किया करें।

¬ उपयामगृहीतोSसि ध्रुवोSसि ध्रुवक्षितिर्ध्रुवाणां ध्रुवतमोSच्युतानामच्युतक्षित्तमSएष ते योनिर्वैश्वानराय त्वा। ध्रुवं ध्रुवेण मनसा वाचा सोममवनयामि। अथा नSइन्द्रSइद्विशोSसपत्नाः समनसस्करत्। यजु0।।7।25।।
भावार्थः जो नित्य पदार्थों में नित्य और स्थिरों में भी स्थिर परमेश्वर है, उस समस्त जगत् के उत्पन्न करनेवाले परमेश्वर की प्राप्ति और योगाभ्यास के अनुष्ठान से ही ठीक ठीक ज्ञान हो सकता है, अन्यथा नहीं।

¬ आत्मने मे वर्चोदा वर्चसे पवस्वौजसे में वर्चोदा वर्चसे पवस्वायुषे में वर्चोदा वर्चसे पवस्व विश्वाभ्यो मे प्रजाभ्यो वर्चोदसौ वर्चसे पवेथाम्। यजु0।।7।28।।
भावार्थः योगविद्या के बिना कोई भी मनुष्य पूर्ण विद्यावान् नहीं हो सकता और न पूर्ण विद्या के बिना अपने स्वरूप का ज्ञान कभी होता है। और न इसके बिना कोई न्यायधीश सत्पुरुषों के समान प्रजा की रक्षा कर सकता है। इसलिए सब मनुष्यों को योग्य है किइस योगविद्या का सेवन निरन्तर करें।


आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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