गुरुवार, 16 नवंबर 2017

इन्द्रियों से पञ्च महाभूतों का सम्बन्ध

ज्ञानेन्द्रियाँ                                   इन्द्रिय विषय                              पञ्च महाभूतों से सम्बन्ध 


चक्षु                                            दर्शन                                           अग्नि

श्रोत                                            शब्द                                            आकाश

नासिका                                      गंध                                              पृथ्वी

जिव्हा                                         रस                                               जल

त्वचा                                          स्पर्श                                             वायु

मन                                            मनन, चिंतन                                  पञ्च तन्मात्राएँ


(इन्द्रियों से पञ्च महाभूतों का सम्बन्ध)

आपका

ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

शनिवार, 11 नवंबर 2017

षट् (संख्या)

षट् (संख्या) - 6



सर्वाः संख्याः प्रधानाः तथापि भारतीयानां चिन्तनमनुसृत्य काचितां संख्यानां प्राधान्यं किञ्चिद् अधिकम् अस्तीति दृश्यते। यथा शून्यम् एकम् अष्ट नव षोडश अष्टादश अष्टोत्तरशतं इत्यादयाः।  एवं रीत्या षड् अपि किञ्चित् प्राधान्ययुक्ता एव । भारतीयानां तत्तचिन्तने षड् इति संख्यायाः प्राधान्यं कुत्र कुत्रास्‍तीति सम्क्षिप्तरूपेण पश्यामः।

षण्मुखः

भगवतः कार्तिकेयस्य षण्मुखः -षडाननः इति नामद्वयं प्रसिद्धं तस्य षट् मुखानि सन्तीति कारणेन षडानन इति प्रसिद्धो जातः। भगवतः षट् मुखानि पञ्चेन्द्रियानां तथा मनसः प्रतीकानि इत्येव अवगम्यन्ते। षट्मातृभिः पोषितः भगवान् सुब्रह्मण्यः षण्मातुर इत्यपि प्रसिद्धः।

षड्गुणा:

ज्ञान-बल-ऐश्वर्य- वीर्य - शक्ति -तेजस् एते षड्गुणा इति बुधैः कथ्यन्ते।

अरि- षड्वर्गः

षट् शत्रवः काम-क्रोध लोभ - मोह - मद - मास्तर्य एते जीवने अस्माकं नाशाय एव भवन्ति। अत वयं एतान्  वर्जयेम।

षडूर्मयः

शोक - मोह- ज्वर - मृत्यु - क्षुधा - पिपासा च एताः षडूर्मयः। अर्थात् ऐताः शारीरिकान् एवं मानसिकान् च भावान् जनयन्ति। शत्रुजित्त्, शत्रुतापनः एेते विष्णोः नामनी अत्र आत्मनि स्थितानां एतादृशानां शत्रूणाम् उपरि विजयं प्राप्तम् इत्येव भावः।

षडङ्गन्यासः

होमजपपूजादि उपासनानां पूर्वं मन्त्रसमेतं शरीसस्य षट् स्थानेषु स्पृशति एतदेव षडङ्गन्यासः।

षट्कर्माणि

क्षमा - दम - तप - शौच - क्षान्ति- आर्जवम् इति ब्राह्मणानां लक्षणानि इति गीतायाम्।

षड्शास्त्राणि

शिक्षा -कल्प- व्याकरणं- निरुक्तं -छन्दः- ज्योतिषम् एतानि षड्शास्त्राणि इति प्रसिद्धानि।

षड्दर्शनानि

साङ्ख्यम् - योगम् - न्यायम् - वैशेषिकम् - मीमांसा - वेदान्तः एतानि भारतीयानां विश्वप्रसिद्धानि षड्दर्शनानि।

षड्ऋतवः

 मार्गपौषौ हिमः १
माघ-फाल्गुनौ शिशिरः २ चैत्रवैशाखौ वसन्तः ३
ज्यैष्ठाषाढौ ग्रीष्मः ४ श्रावणभाद्रौ वर्षाः ५
आश्विनकार्त्तिकौ शरत् ६

 "मासद्वयात्मकः कालः ऋतुः प्रोक्तो विचक्षणैः" इति श्लोके।

षड्रसाः

षट् विध रुचयः
कषाय- मधुर- तिक्त- लवण - आम्ल - कटु

तुवरस्तु कषायोऽस्त्री मधुरो लवणः कटुः।
तिक्तोऽम्लश्च रसाः पुंसि तद्वत्सु षडमी त्रिषु॥


षट्  संख्यासंबद्घाः इतोऽपि वैशिष्ट्यम् अस्माकं धर्मे दृश्यते।
एवं प्रकारेण बहुप्राधन्ययुक्ता संख्या अस्ति षट् इति वयं जानीम।

बुधवार, 8 नवंबर 2017

धर्म के दस लक्षण


ॐ 
धृतिः क्षमा दमो अस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रहः 
धीर्विद्या सत्यम् अक्रोधः दशकं  धर्मलक्षणम्।।
                                 .


भावार्थ  :  धैर्य रखना, सहनशील होना, मन को अधर्म से रोकना,चोरी-त्याग, रागद्वेष न करना, इन्द्रियों को धर्म पर चलाना, बुद्धि  बढ़ाना, विद्वान् बनना, सत्याचरण करना, क्रोध न करना  - ये दस धर्म के लक्षण हैं।


(मनुस्मृति से)




आपका अपना 

ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

मंगलवार, 7 नवंबर 2017

गायत्री महिमा

ओ३म्

गायत्री की महिमा

शंख ऋषि कहते हैं:―

सव्याह्रतिकां सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह ।
ये जपन्ति सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित् ।।
―(१२/१४)

अर्थात्―जो सदा गायत्री का जप व्याह्रतियों और ओंकार सहित करते हैं, उन्हें कहीं भी कोई भय नहीं सताता।

शतं जप्त्वा तु सा देवी दिन-पाप-प्रणाशिनी ।
सहस्रं जप्त्वा तु तथा पातकेभ्यः समुद्धरेत् ।।
―(१२/१५)

भावार्थ―गायत्री का सौ बार जाप करने से दिन भर के पाप (नीच भावनाएँ) नष्ट हो जाते हैं तथा दिन भर पापों का प्राबल्य नहीं होने पाता और एक सहस्र बार जाप करने से यह गायत्री मन्त्र मनुष्य को पातकों से ऊपर उठा देता है और उसके मन की रुचि पापों की ओर नहीं रहती।

दशसहस्रं जप्त्वा नु सर्वकल्मषनाशिनीम् ।
सुवर्णस्तेयकृद्विप्रो ब्रह्महा गुरुतल्पगः ।
सुरापश्च विशुद्धयेत लक्षजप्यान्न संशयः ।
―(१२/१६)

भावार्थ―दस सहस्र बार जप करने से मनुष्य के सब कल्मष (बुरी भावनाएँ) नाश होते हैं, अर्थात् मनुष्य के मन में पाप की कोई मैल नहीं रहने पाती और एक लाख बार जप करने से महापातकियों के अन्तःकरण भी पवित्र हो जाते हैं।


अत्रि ऋषि का कथन है:―

गायत्रयष्टसहस्रं तु जप्यं कृत्वा स्थिते रवौ ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो यदि न ब्रह्महा भवेत् ।।
―(११/१५)

भावार्थ―सूर्याभिमुख होकर यदि आठ हजार गायत्री का जाप करे, तो यदि वह ब्रह्म द्वेषी अर्थात् ज्ञान तथा ज्ञानी पुरुषों का शत्रु अथवा नास्तिक नहीं है , तो वह सब पापों (कुविचारों) से मुक्त हो जाता है।


(व्हाट्सप्प से )



आपका ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 

सोमवार, 6 नवंबर 2017

वैदिक सूक्ति-सुधा

ओ३म्



वैदिक सूक्ति-सुधा



(1) बहुप्रजा निऋर्तिमा विवेश ।।-(ऋ०१/१६४/३२)
बहुत सन्तान वाले बहुत कष्ट पाते हैं।




(2) मा ते रिषन्नुपसत्तारो अग्ने ।।-(अथर्व० २/६/२)
प्रभो ! आपके उपासक दुःखित न हों।




(3)कस्तमिन्द्र त्वावसुमा मतर्यों दधर्षति ।। (ऋ०७/३२/१४)
ईश्वर भक्त का तिरस्कार कोई नहीं कर सकता।




(4) मा त्वा वोचन्नत्रराधसं जनासः ।।-(अथर्व० ५/११/७)
लोग मुझे कंजूस न कहें।




(5) इमं नः श्रृणवद्धवम् ।।-(ऋ०१०/२६/९)
वह प्रभु हमारी प्रार्थना को सुने।




(6) स्तोतुर्मघवन्काममा पृण ।।-(ऋ० १/५७/५)
भगवान् ! भक्त की कामनाओं को पूर्ण करो।




(7) ओ३म् खं ब्रह्म ।।-(यजु० ४०/१७)
ओ३म् परमात्मा सर्वव्यापक है।




(8) विश्वेषामिज्जनिता ब्रह्मणामसि।।-(ऋ०२/२३/२)
सम्पूर्ण विद्याओं का आदि मूल तू ही है।




(9) देवो देवानामसि ।।-(ऋ० १/९४/१३)
तू देवों का देव है।




(10) यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति ।।-(अथर्व० ९/१०/१८)
जो उस प्रभु को नहीं जानता वह वेद से ही क्या फल प्राप्त करेगा।




(11) स नः पर्षदति द्विषः ।।-(ऋ० १०/१८७/५)
वह परमात्मा हमें सब कष्टों से पार करे।




(12) आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ।।-(यजु० १९/३८)
दुष्ट पुरुषों को दूर भगाओ।


(13) मा नः प्रजां रीरिषः ।।-(ऋ० १०/१८/१)
हे ईश्वर ! तू हमारी सन्तान का नाश न कर।



(14) सत्या मनसो मे अस्तु ।।-( ऋ० १०/१२८/४)
मेरे मन की भावनाएं सच्ची हों।



(15) लोकं कृणोतु साधुया ।।-(यजु० २३/४३)
जनता को सच्चरित्र बनावें।




(16) तनूपाऽ अग्न्रिः पातु दुरितादलद्यात् ।।-( यजु० ४/१५)
ईश्वर हमें निन्दनीय दुराचरण से बचावे।




(17) दस्यूनव धूनुष्व ।।-(अथर्व० १९/४६/२)
दस्युओं को धुन डाल।




(18) आ वीरोऽत्र जायताम् ।।-(अथर्व० ३/२३/२)
वीर सन्तान उत्पन्न कर।




(19) भियं दधाना ह्रदयेषु शत्रुनः ।।-(ऋ० १०/८४/७)
शत्रु के ह्रदय में भय उत्पन्न कर दो।




(20) सखा सखिभ्यो वरीयः कृणोतु ।।-(अथर्व० ७/५१/१)
मित्र को मित्र की भलाई करनी चाहिये।




(21) दूर ऊनेन हीयते ।।-(अथर्व० १०/८/१५)
बुरी संगत से मनुष्य अवनत होता है।




(22) गोस्तु मात्रा न विद्यते ।।-(यजु० २३/४८)
गौ का मूल्य नहीं है।




(23) निन्दितारो निन्द्यासो भवन्तु ।।-(ऋ० ५/२/६)
निन्दक सबसे निन्दित होते हैं।




(24) विश्वम्भर विश्वेन मा भरसा पाहि ।।-(अथर्व० २/१६/५)
प्रभो ! अपनी शक्ति से मेरी रक्षा करो।




(25) न त्वदन्यो मघवन्नस्ति मर्डिता ।।-(ऋ० १/८४/१९)
हे ईश्वर !तुम्हारे सिवाय सुख देने वाला दूसरा कोई नहीं है।




(26) आर्य ज्योतिरग्राः ।।-(ऋ० ७/३३/७)
आर्य प्रकाश (ज्ञान) को प्राप्त करने वाला होता है।




(27) करो यत्र वरिवो बाधिताय ।।-( ऋ० ६/१८/१४)
पीड़ितों की सहायता करने वाले हाथ ही उत्तम हैं।



(28) प्राता रत्नं प्रातरिश्वा दधाति ।।-(ऋ० १/१२५/१)
प्रातः जागने वाला प्रभात बेला में ऐश्वर्य पाता है।




(29) मिथो विघ्नाना उपयन्तु मृत्युम् ।।-(अथर्व० ६/३२/३)
परस्पर लड़ने वाले मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं।




(30) अधः पश्यस्व मोपरि ।।-(ऋ० ८/३३/१९)
हे नारि ! नीचे देख ऊपर मत देख ।




(31) मा दुरेवा उत्तरं सुम्नमुन्नशन् ।।-(ऋ २/२३/८)
दुराचारी उत्तम सुख को मत प्राप्त करें।




(32) प्रमृणीहि शत्रून् ।।-(यजु०१३/१३)
शत्रुओं को कुचल डालो।




(33) परि माग्ने दुश्चरिताद् बाधस्व ।।-(यजु० ४/२८)
हे ईश्वर ! आप मुझे दुष्ट आचरण से हटायें।




(34) शन्नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ।।-(यजु० ३६/८)
प्रभु हमारे दोपाये मनुष्यों और चौपाये पशुओं के लिए कल्याणकारी और सुखदायी हो।




(35) ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति ।।-(अथर्व० ११/५/१७)
ब्रह्मचर्य रुपी तप के द्वारा राजा राष्ट्र का संरक्षण करता है।




(36) मा पुरा जरसो मृथाः ।।-(अथर्व० ५/३०/१७)
हे मनुष्य ! तू बुढ़ापे से पहले मत मर।




(37) सहोऽसि सहो मयि धेहि ।।-(यजु० १९/९)
हे प्रभो ! आप सहनशील हैं मुझमें सहनशीलता धारण करिये।


(व्हाट्सप्प से साभार )



ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 
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