बुधवार, 30 नवंबर 2016

मृत्यु क्या है - भाग २

अब यह तो निश्चित है कि आत्मा अजर अमर है और वर्तमान शरीर को छोड़कर आत्मा कर्मानुसार अन्य लोकों को गमन कर, जन्म ले अन्य जीवन यात्रा पूर्ण किया करता है। परन्तु यह शरीर क्या है और किस रूप में आत्मा इस लोक से जाती है?


प्रश्न उठता है कि शरीर कितने हैं और कैसा संघटन है  उनका?

उत्तर: जीवात्मा के शरीर तीन प्रकार के होते हैं -

१- स्थूल शरीर - दस प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, देवदत्त, कूर्म, कृकल, धनंजय व नाग), दस इन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिव्हा, त्वचा, हाथ, पैर, वाणी, उपस्थ व पायु), मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार । यह चौबीस तत्व व पच्चीसवां जीवात्मा।

२- सूक्ष्म शरीर - पांच तन्मात्राएँ, पाँच प्राण(प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन व बुद्धि। ये १७ तत्व व अट्ठारहवाँ जीवात्मा ।

३- कारण शरीर- मन ज्ञान के लिये व प्राण प्रयत्न के लिए व तीसरा आत्मा।

यह जो लोक में हमें शरीर दिखता है यह स्थूल शरीर कहलाता है परन्तु आत्मा के और दो शरीर भी होते हैं, सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर । स्थूल शरीर से विच्छेद (मृत्यु) के बाद जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के द्वारा सर्वप्रथम यम नाम की वायु में प्रवेश करता है। इसीलिए लोक में सुनते हैं कि आत्मा यमलोक को चला गया। फिर इन्द्रादि वायुओं में भ्रमण कर अपनी पूर्व जन्म की स्मृति त्याग देता है। कहीं कहीं ये आत्मा सूक्ष्म शरीर में १३-१३ दिवस तक भ्रमण करती हैं और कुछ को तुरंत भी जन्म लेना पड़ता है तथा जीवन मुक्त आत्माएँ तो लाखों लाखों वर्ष तक स्वच्छंद भ्रमण अव्याहत गति से किया करती हैं परन्तु यह सब व्यवस्था कर्मानुसार है।


सूक्ष्म शरीर के भोगों को भोगने के पश्चात् आत्मा कारण लिंग में प्रवेश करती है तथा फिर अपने स्वाभाविक गुण ज्ञान व प्रयत्न के द्वारा मुक्ति में आनन्द का उपभोग करती है और परमात्मा को पा कर ब्रह्म उपाधि को प्राप्त कर लेती है। परन्तु यहाँ परमात्मा की संज्ञा परब्रह्म है। आत्मा कभी भी परमात्मा नहीं बनती।
किया कर्म निष्फल कभी नहीं जाता है कहा है -

अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्मश्शुभाशुभम्

किये हुए कर्मों का फल भोगना ही होता है चाहे अशुभ हो या शुभ। अत: जब तक पाप या पुण्य जो भी पहले किया है उन सभी के फलों को भोग नहीं लेती वह आत्मा मुक्त नहीं हो सकती। उसे पुनः पुनः जन्म धारण करना ही पड़ेगा।

जन्मों जन्मों में प्रकृति के आवेशों में आ जाने के कारण आत्मा ज्ञान को भूल जाता है परन्तु योग के द्वारा उस की पहुँच धीरे धीरे मुक्ति तक हो जाती है।

अत: भाइयों बहनों योगी बनें, सदाचारी बनें, पापों से पृथक हो परमात्मा की भक्ति व जप यज्ञ आदि के साथ पूर्ण पुरुषार्थ करें। निस्वार्थ, निष्काम कर्म भी करें यदि अपने व अपनों के लिए स्वार्थी हैं हम तो परमार्थ भी करें। यहीं है वास्तविक जीवन तथा अन्त में निश्चित मुक्ति का आश्वासन।


आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

सोमवार, 28 नवंबर 2016

मृत्यु क्या है - भाग -१

कुछ ऐसे तथ्य भी होते हैं जो हमारे तर्क से परे होते हैं और उन्हें खोजने की आवश्यकता होती है। वास्तव में मृत्यु के बारे में हम जैसा सोचते हैं वह उससे भिन्न पदार्थ है।


जैसा हम जानते हैं कि इस संसार में हर किसी के लिए मृत्यु आवश्यक है हम फिर भी इस बात से भागने कि कोशिश करते हैं और अपने को काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार में व्यस्त रखते हैं हम अपनी आने वाली मृत्यु के विषय में नहीं विचारते । यदि हम मृत्यु को विजय करना चाहें तो यह भी संभव है।  क्या आप इस तथ्य को जानते हैं? मैं आपको इसके बारे में कुछ बताऊंगा।


वास्तव में वैज्ञानिक और योगियों के लिए मृत्यु भयावह नहीं होती। एक ऋषि ने कहा है कि अज्ञान में मृत्यु और ज्ञान में सदैव जीवन है। यह ज्ञान कुछ कम मात्र में मैं आपको देने का प्रयास करूंगा।


माना एक मानव मरता है। जैसा हम जानते हैं कि शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना होता है - जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथ्वी. मृत्यु के बाद भी इन पञ्चतत्वों का शरीर देखा जा सकता है। हम यह नहीं कह सकते कि शरीर मर गया। शरीर नहीं मरा बल्कि इसने कार्य करना बंद कर दिया है। जीव विज्ञान के अनुसार शरीर के सारे अंग वैसे ही दिखाई देते हैं। लेकिन यहाँ पर हमारे विद्वान कहते हैं कि शरीर इसलिए कार्य नहीं कर रहा क्योंकि आत्मा ने इसे छोड़ दिया है। जब हम शरीर के बारे में सोचते हैं तो यह शरीर, भोजन जो इसने लिया था, तथा अन्य सहायक पदार्थ जैसे प्रकाश, ऊष्मा, वायु व जल की मदद से बना था और अब वे सारे परमाणु वैसे के वैसे ही शरीर में उपस्थित हैं। और जैसा कि परमाणु सिद्धांत के अनुसार कहा गया है कि परमाणु न तो नष्ट होता है और न ही बनाया जा सकता है, उस आत्मा को छोड़कर सभी परमाणु उपस्थित भी रहते हैं।


अब क्योंकि आत्मा अमर है। क्योंकि यह स्वयं भगवान ने वेद में कहा है । देखिये श्रीमद्भगवद्गीता में कृष्ण जी क्या कहते हैं -

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्।

भावार्थ:-हे पार्थ!  यह आत्मा अविनाशी, नित्य, अजन्मा व कभी न नष्ट होने वाला है।

यह शरीर को त्याग कर अन्य स्थान को गमन करती है। लेकिन वह आत्मा भी वह आदमी नहीं रह जाती ।
यदि हम आत्मा के अस्तित्व को स्पष्ट रूप से समझते  हैं तो हम यह नहीं कह सकते कि वह मर गयी। तो ए भाइयों बहनों आप ! मुझे बताओ कि कौन मरा?


वास्तव में इस शरीर को त्यागने के बाद आत्मा उन स्थानों और जन्मों में जाती है जहाँ पर परमात्मा ने निश्चित किया है और यह निश्चय उसी आत्मा के पूर्व कर्मों के अनुसार होता है। उसे किसी दूसरे स्थान पर जाना ही पड़ता है। इसलिए यह मृत्यु स्थान और शरीर का परिवर्तन है। और जब योग के द्वारा, हमें पता चलता है कि हम अपने पूर्व कर्मों के अनुसार जन्म लिया करते हैं तो हमें मृत्यु का भय नहीं रहता।
किसी एक स्थान पर रहने का समय निश्चित होता है और जब समय समाप्त हो जाता है तो आत्मा शरीर को त्याग देती है। इसलिए हमें मृत्यु से नहीं डरना चाहिए क्योंकि यह हमें समय से पहले नहीं आयेगी। इसलिए हमें अपने अच्छे कार्यों और उपासना आदि निर्भय होकर करनी चाहिए। जैसा कि सरदार भगत सिंह ने किया  व और बहुत से अन्य लोगों ने अपनी भारत माता की स्वतंत्रता के लिए जीवन दान देदिया। वह भी इस बात को जानते थे वरना कौन अपना जीवन दूसरों के लिए उत्सर्ग करता है।


हमारी पुस्तकें इस तथ्य की व्याख्या करती हैं। बहुत से तथ्य उपनिषदों में इस विषय में लिखे हैं। और मृत्यु को अज्ञान में बताया गया है। ज्ञान में सदैव जीवन बताया है इसलिए चलो अपने सत्य ज्ञान की वृद्धि करे यदि मृत्यु के पार जाना है।


हम इन तथ्यों को योग समाधि में भी साक्षात् कर सकते है।


क्रमशः


धन्यवाद
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

बंधन से मुक्ति : एक परिचय

आध्यात्मिक साधना में जो सब कुछ भूल जाता है  वह अपने आप को पा लेता है।  जब किसी बड़ी चीज़ के प्रति आकर्षण हो जाता है तो उससे छोटी वस्तु के प्रति विकर्षण निश्चित है।

जैसे अल्प आयु में बच्चों का आकर्षण खिलोने में होता है, मानसिक विकास होने पर उनका आकर्षण पुस्तकों से हो जाता है और खिलोनो से विकर्षण।

प्रश्न : आत्मा के साधक को क्या पाना है?
उत्तर : आत्मा को

प्रश्न :आत्मा क्या है?
उत्तर :चेतना है।  आत्मा से व्यक्ति जानता है  और जो नहीं जान पाता वह जड़ अनात्मा है।  पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों को होता है, इन्द्रियों का पदार्थों को नहीं।

प्रश्न: इन्द्रियाँ क्या हैं?
उत्तर: इन्द्रियां  जानने का साधन हैं।  चेतना के लुप्त हो जाने पर इन्द्रियां शांत हो जाती हैं।
आत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त अर्थात शरीर की प्रतिमा या मूर्ति बनायीं जा सकती है।

आत्मा से रहित शरीर में चेतना नहीं होती।  आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है।  शरीर का नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता।  इसलिए आत्मा अथवा चेतना, जड़ अथवा अनात्मा वास्तविक दृष्टि से पृथक पृथक हैं।  स्पर्श, गंध, रूप, रस, शब्द आदि का निमित्त पाकर जीव को राग, द्वेष, मोह आदि विकार होते हैं।

विभाव, शक्ति, ममत्व एवम मिथ्याभाव आदि भाव ही बंध के कारण हैं। इन्हीं भावों से आसक्ति उत्पन्न होती है। बाहरी घटनाएं, वस्तुएँ , सुख, दुःख का निमित्त मात्र होती हैं।

मोह एवं आसक्ति से दु:ख सुख के भाव की प्रतीति एवं उनकी प्रबलता का बोध होता है।

जो आसक्ति एवं मोह को छोड़ देते हैं उन्हें हर्ष अथवा विषाद की परिस्थितियों में दु:ख सुख नहीं होता।
जिसको मोह रहता है उसे कारण मिलने पर या बिना कारण के भी केवल अपने संकल्प से दु:ख सुख का अनुभव होता रहता है। जीव के राग आदि भावों को निमित्त करके ही कर्म आत्मा से बंधते हैं कोई दूसरा हमें नहीं बाँधता अपितु हम अपने किये भावों के अनुसार उपार्जित कर्मों से बंधते हैं। राग द्वेष विकार मूलक भावों का अन्त हो जाए तो फिर कोई बन्धन नहीं होता।


द्वारा: विश्वपाल सिंह त्यागी
हल्ला नंगला
+918650209774



 आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

रविवार, 27 नवंबर 2016

गीता सार

कर्म शक्ति से ऋषियों ने अपना जनम संवारा है।
मानव चोला मिला तुम्हें कोई गुण तुम्हारा है।


अज्ञानता का जग में फैला अँधेरा।
मोह माया ने मानव को घेरा।
स्वयं को भी न पहचान आया।
परमानन्द का न देखा सवेरा।

अपना अपना रट ये भ्रम तुम्हारा है।
कर्म शक्ति से ऋषियों ने अपना जनम संवारा है।

यहाँ जो होता है अच्छा ही होता है।
वैसा ही फल पाता है जो जैसा बोता है।
अपना किसे समझता है तू किसको रोता है।
प्रभु इच्छा से जीव यहाँ आता है और जाता है।
जिसको तुम मृत्यु कहते हो वह जन्म दुबारा है।
कर्म शक्ति से ऋषियों ने अपना जनम संवारा है।


तू न लाया साथ कुछ जग में न कुछ तूने दिया।
जो दिया उसने दिया जो लिया उससे लिया।
मिथ्या राम भय सिवा तूने अभागे क्या किया।
कुछ समय भी ध्यान उस परमात्मा को न किया।
जो हर समय हर हाल में तेरा सहारा है।
कर्म शक्ति से ऋषियों ने अपना जनम संवारा है।

इस नश्वर संसार में है कर्म की प्रधानता।
कर्म पूजा है तेरी, कर्म तेरी साधना।
अच्छे कर्मों से ही होगी शुद्ध तेरी आत्मा।
वह दयामय सब करेंगे पूरी तेरी कामना।
सन्मार्ग से प्रेरित प्राणी प्रभु को प्यारा है।
कर्म शक्ति से ऋषियों ने अपना जनम संवारा है।

नर में नारायण छुपा हुआ यह जान अपने आप में।
परम शक्ति का पुत्र ही तू जान अपने आप को।
काया माया में भरमाना छोड़ दे संताप को।
जिसका है उसको ही अर्पण कर दे अपने आप को।
भव सागर से तरने का ये ही एक सहारा है।
कर्म शक्ति से ऋषियों ने अपना जनम संवारा है।

सृष्टि में होता परिवर्तन दिन रात देखा है।
मेरा-मेरा करता है जो ये तो तेरा धोखा है।
आज जो तेरा अपना है कल ग़ैर का होता है।

तन मिट्टी बन जायेगा जिसको मल -मल धोता है।
अब तो ये स्पष्ट हुवा कुछ नहीं हमारा है।
ये संसार प्रभु का है और प्रभु हमारा है।
कर्म शक्ति से ऋषियों ने अपना जनम संवारा है।

मैं इस बड़े महान परिपूर्ण पुरुष को आदित्य जैसे स्वयंप्रकाश स्वरुप वाला अज्ञान व अन्धकार से परे मानता हूँ। उसको ही जानकर मनुष्य मृत्यु का अतिक्रमण करता है। अभीष्ट तक पहुँचने के लिए और कोई मार्ग नहीं है।

द्वारा :
विश्वपाल सिंह त्यागी
भा०ज० पा नेता
ग्राम नायक नंगला
8650209774




आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

शनिवार, 19 नवंबर 2016

सतसंग क्या है?


सत्संग
धार्मिक पुरुषों में सत्संग शब्द का प्रयोग अकसर होता ही रहता है। मैं सत्संग से आ रहा हूँ, सत्संग में जा रहा हूँ, सब को सत्संग करना चाहिए आदि। सत्संग वाले वाक्य सुनते ही रहते हैं। सत्संग शब्द अपने में बहुत ही व्यापक अर्थ लिये हुए है। परन्तु इसका ज्ञान बहुत कम लोगों को है वे तो सभी धार्मिक सभाओं को सत्संग ही समझ लेते हैं। इसका अर्थ समझ लेना आवश्यक है। सत्संग में दो शब्दों का मेल है  अर्थात् सत्+संग । भावार्थ हुआ सत् की चर्चा। जहाँ सत् की चर्चा हो वहीं सत्संग माना जाता है।

अब सत् क्या है? यह जानना बहुत आवश्यक है। सत संसार में तीन ही तत्व हैं जो कि नित्य हैं अनादि हैं - परमात्मा, आत्मा (जीव) तथा प्रकृति। अत: जहाँ परमात्मा, आत्मा व प्रकृति की चर्चा होती हो उसे ही सत्संग कहना सार्थक है। तीनों तत्वों का कभी नाश नहीं होता अर्थात् अभाव नहीं होता है। सांख्य दर्शनानुसार निम्न कथन है कि -

नासतो विद्यते भावो, ना भावो विद्यते सत:।

अर्थात् असत से सत नहीं होता और सत का कभी नाश नहीं होता है। सांख्य दर्शन में चेतन को पुरुष शब्द से व्यक्त किया है तथा जड़ को प्रकृति शब्द से व्यक्त किया गया है।
पुरुष:- पुरुष तीन प्रकार के माने गए हैं -
१- निर्लिप्त पुरुष - परमात्मा
२- मुक्त पुरुष - आत्मा : अनेक आत्मा स्वरूप जीव (ईश्वरोपाधि)
३- बद्ध पुरुष - आत्मा : अनेक जीव (अविद्या से आच्छादित)
जड़ अर्थात् प्रकृति :- सत्व, रजस् व तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति है। इसकी दो अवस्थाएँ हैं - अव्यक्तावस्था तथा व्यक्तावस्था। अव्यक्त प्रकृति अर्थात् शुद्ध सत्व प्रधान या माया अदृष्टों (संस्कारों) के प्रभाव से तमोगुण का प्रभाव हट जाता है और प्रकृति में चांचल्य उत्पन्न होने लगता है तथा रजोगुण (क्रियाशीलता) के रहने के कारण अव्यक्तावस्था, व्यक्तावस्था(कार्य रूप प्रकृति में आने लगती है। अव्यक्तावस्था को कारण रूप प्रकृति (माया) तथा व्यक्तावस्था को कार्य रूप प्रकृति अर्थात् अविद्या भी कहा गया है।

सांख्य दर्शन में पुरुष द्वारा प्रकृति (माया) द्वारा जीवों के कल्याण हेतु सृष्टि के सृजन का वर्णन है। परमात्मा को पुरुष से व्यक्त किया है जिसके ज्योति लिंग या शिव लिंग अर्थात् महतत्व अर्थात् प्राण (आन्तरिक ऊर्जा) से कारण रूप मूल प्रकृति (पार्वती) से सृष्टि की उत्पत्ति की है। शिव लिंग का वास्तविक अर्थ, परमात्मा का सामर्थ्य है तथा प्रकृति को पार्वती भी कहा जाता है। परन्तु अज्ञानी व मूर्ख लोगों ने पत्थर के गोल टुकड़े को शिवलिंग मानकर जड़ पूजा आरम्भ कर दी है।

शिव अर्थात् कल्याणकारी परमात्मा ने अपने प्राण रूप लिंग अर्थात् सामर्थ्य से पार्वती रूप प्रकृति से जीवों के कल्याण हेतु सृष्टि का सृजन किया है। प्रकृति के शुद्ध सत्व अंश से बुद्धि तत्व की उत्पत्ति होती है तथा क्रमशः अहंकार, मन, पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ व कर्म हेतु पाँच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य के लिए परमात्मा ने रचीं  तथा प्रकृति के तामसिक अंश से शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध पांच तन्मात्राएँ तदुपरांत पाँच स्थूल महाभूत बनाए हैं।
उपरोक्त विवरण से विदित होता है कि परमात्मा, आत्मा व प्रकृति तीन अलग अलग सत्ताएँ नित्य व अनादि हैं। जीव (आत्मा) परमात्मा का अंश नहीं है क्योंकि परमात्मा सत्+चित्+आनन्द (सच्चिदानंद) है, जीव सत्+चित् है तथा तथा प्रकृति मात्र सत् है। परमात्मा निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, विभु, दयालु, न्यायकारी, अज, अमर, सत्य, सर्वज्ञ, तथा सृष्टिकर्ता है तथा जीव अल्पज्ञ, जन्म -मृत्यु वाला, शरीरी, एकदेशीय तथा अल्प सामर्थ्यादि गुणों वाला है। अत: परमात्मा का अंश जीवात्मा नहीं हो सकता। प्रकृति जड़ है तथा सृष्टि का उपादान कारण है।

परमात्मा, आत्मा व प्रकृति के निर्भ्रांत ज्ञान की चर्चा ही वास्तव में सत्संग है। इसी में डुबकी लगा कर परमात्मा की भक्ति से मुक्ति के रास्ते पर चलना ही मनुष्य का मुख्य लक्ष्य होना चाहिये।
प्रस्तुति : रणधीर सिंह आर्य
(तहसील प्रभारी, भारत स्वाभिमान, चाँदपुर)
फोन: 9457531765

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

शनिवार, 12 नवंबर 2016

योग का वास्तविक रूप भाग -३

भाइयों बहनों! योगी महान होता है वह पाप पुण्य कर्मों से रहित होता है। कहा भी है - 

कर्माशुक्लाकृष्ण: योगिनस्त्रिविधमितरेषाम्॥योग दर्शन।कैवल्यपाद।७॥

योगी का कर्म पाप पुण्य से रहित होता है, अन्य अयोगी व्यक्तियों का तीन प्रकार का होता है।
अर्थात् पुण्य, पाप व निष्काम कर्म।

अत: हम सभी को योग को अपनाना चाहिए। जैसा कि सभी को विदित है कि २२ जून अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस के रूप में मनाया जाता है व हमारे देश में यह योग प्राचीन काल से ही जागृत रहा है व पनपता रहा है, भारतीय सरकार की ओर से भी योग की ड्रिल निर्धारित की गई है। अत: इस सर्वमान्य योग को सभी अपनाएँ व अपने जीवन में धन, ऐश्वर्य, उन्नति, सत्कामसिद्धि व सदाचार के साथ साथ अभूतपूर्व, अनदेखी, अनसुनी शक्तियों के स्वामी भी होवें। मात्र आसन की सिद्धि होने पर ही सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास व संकल्प -विकल्प रूप द्वन्द्वों का अभिघात समाप्त हो जाता है व जीवन शांतिमय, सुखमय बन जाता है।

प्राणायाम के विषय में यदि विचारें तो यह प्राणायाम मानव को बल, स्वास्थ्य, ज्ञान सिद्धि आदि के साथ साथ सूक्ष्म दृष्टि व सभी आठ चक्रों में ऊर्जा स्तर को ऊँचा कर देता है। प्राणायाम सिद्ध योगी दूर की वार्ताएँ व भविष्य की वार्ताएँ भी सहज रूप से जानने लगता है। कुछ मुख्य प्राणायाम - कपालभाति, सूर्य भेदी, चंद्र भेदी, भस्त्रिका, बाह्य वृत्ति, आभ्यंतर वृत्ति, स्तम्भ वृत्ति, अनुलोम विलोम, उज्जायी, भ्रामरी व उद्गीथ आदि हैं।
योग गुरु बाबा रामदेव जी का एक वचन है कि-
"अनुलोम विलोम से मस्तिष्क रूपी ड्राइवर फ़िट व कपाल भाति से उदर रूपी इंजन फ़िट तो शरीर रूपी गाड़ी भी फ़िट।"

इस प्रकार :
प्रत्याहार - इन्द्रिय संयम
धारणा- संकल्पों के आधार पर विषय विशेष पर श्रम करने की क्षमता प्राप्त कर लेते हैं और धारणाओं में लय होना प्रारंभ कर देते हैं।
 ध्यान करते हुए समाधि में भी लय होना शुरू हो जाते हैं। समाधि अवस्था में अनसुलझी वार्ता व संदेह स्पष्ट हो जाते हैं और परमात्मा को स्पष्ट रूप से जान लेते हैं, ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है।

ब्रह्मचारी कृष्णदत्त जी महाराज ने कहा है कि"*आत्मा स्वतः ज्ञानी है  और जन्म जन्मांतरों के प्रकृति में आवेशों में आने के कारण वह ज्ञान भूली रहती है व प्राणायाम के निरंतर अभ्यास के द्वारा मल, विक्षेप व आवरणों के लगातार नष्ट होते जाने के कारण आत्मा का ज्ञान उद्बुद्ध होना प्रारंभ हो जाता है*।"
भगवान वेद में कहते हैं-

ओ३म् आत्मने मे वर्चोदा वर्चसे  पवस्वौजसे मे वर्चोदा वर्चसे पवस्वायुषे मे वर्चोदा वर्चसे 
पवस्व विश्वाभ्यो मे प्रजाभ्यो वर्चोदा वर्चसे पवेषाम्॥यजुर्वेद।७।२८॥

योग विद्या के बिना कोई भी मनुष्य पूर्ण विद्या वान नहीं हो सकता और न पूर्ण विद्या के बिना अपने स्वरूप व परमात्मा का ज्ञान कभी होता है और न इसके बिना कोई राजा, न्यायाधीश सत्पुरुषों के समान प्रजा की रक्षा कर सकता है इसलिए सब मनुष्यों को उचित है कि इस योग विद्या का सेवन निरंतर किया करें।

अत: यदि जीवन में पूर्ण ज्ञान, स्वास्थ्य, नीरोगता, धन, ऐश्वर्य, विद्या, यश, सुख, शांति, सिद्धियाँ व चमत्कारिक बल आदि की इच्छा है तो अवश्य ही इस महान योग को अपनाएँ जिसे पाकर मानव भगवान राम व भगवान कृष्ण सरीखा न जाने क्या से क्या बन जाता है, यह सत्य है।



आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

भारतीय संस्कृति व सभ्यता


किसी भी राष्ट्र की श्रेष्ठता उस राष्ट्र की संस्कृति एवं सभ्यता से प्रमाणित होती है। हम भारतीय भी अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को श्रेष्ठ बताते हैं और है भी। परन्तु दुर्भाग्य से जब हमारे अधिकतर नेता तथा विद्वान कहे जाने वाले व्यक्ति कहते हैं कि हमारी संस्कृति ५००० वर्ष पुरानी है। तब बड़ा ही कष्ट होता है कि क्या हमारी संस्कृति ५००० वर्ष पुरानी है या अरबों वर्ष पुरानी। हम जब किसी भी उत्सवादि के अवसर पर संकल्प मंत्र पढ़ते हैं जिसकी गणनानुसार वर्तमान वर्ष का मान १,९६,०८,४३,११७ वर्ष का बैठता है जिससे पता चलता है कि हमारी संस्कृति इतने वर्षों पुरानी है। अत: संस्कृति शब्द की उत्पत्ति के बारे में जानना आवश्यक है -

संस्कृति =सम्यक+कृति

सम उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से भूषण अर्थ सुट का आगम करके त्किन प्रत्यय करने से संस्कृति शब्द बनता है। इसका अर्थ है -
भूषण भूत सम्यक् कृति
                        
अर्थात् - सम्यक् ज्ञानानुसार कृति अर्थात् सम्यक् विचार पूर्ण कार्य।

अत: श्रेष्ठ विचारों और कर्मों की परम्परा का नाम संस्कृति है। चूंकि सम्यक् ज्ञान का अर्थ है परम पुरुष (परमात्मा) द्वारा अवतरित ज्ञान अर्थात् वेदानुसार ज्ञान। वेद सम्मत विचार तथा तदानुसार कर्म ही वैदिक अथवा भारतीय संस्कृति है और यह ही मातृ संस्कृति भी कहलाती है। भारत में वेदानुसार कर्म करने की परम्परा रही है इसीलिए इसी वैदिक संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति कहते हैं। भारतीय अथवा वैदिक संस्कृति के किसी अंश को जो किसी विशेष क्षेत्र में प्रचलित है उस स्थान विशेष की संस्कृति कहते हैं ।
सभा में साधुता को सभ्यता कहा गया है अर्थात् श्रेष्ठ आवास, वस्त्र, आभूषण, भाषा व श्रेष्ठ प्रकार के रहन सहन की परम्परा का नाम सभ्यता है।

'एक महात्मा का प्रसाद' नामक पुस्तक के अनुसार प्राकृतिक विधान के अनुरूप संस्कार की पद्धति ही संस्कृति है और उसी के किसी अंश को सभ्यता कहते हैं।

संस्कृति अनुभव जन्य ज्ञान के आधार पर निर्भर है। अनुभव जन्य ज्ञान नित्य है इसीलिए संस्कृति भी नित्य है। बुद्धि जन्य ज्ञान के आधार पर निर्भर होने के कारण तथा बुद्धि जन्य ज्ञान परिवर्तन शील होने के कारण सभ्यता अनित्य एवं परिवर्तन शील होती है।

सभ्यता शरीर के मनोविकारों की द्योतक है जबकि संस्कृति आत्मा के अभ्युत्थान की प्रदर्शिका है। सभ्यता का उत्थान मानव को प्रकृति वाद की ओर ले जाता है जबकि संस्कृति मानव को अन्तर्मुखी करके उसके सात्विक गुणों को प्रकट करती है।

'Civilization is an expression of Flesh while Culture is manifestation of Soul.'

परन्तु मनुष्य आज अधिक से अधिक सभ्य बनने में लगा हुआ है अर्थात् शारीरिक सुख के साधन जुटाने में लगा हुआ है, भोगने में लगा हुआ है तथा सभ्य कहलाना चाहता है। वह आत्मा के उत्थान को भूल गया है तथा सुशिक्षित पशु बन गया है।

हमें ये बातें जान लेनी चाहिएं कि सभ्यता का शारीरिक आवश्यकताओं के साथ सम्बन्ध है और संस्कृति का आत्मा के सात्विक गुणों के साथ। जितना ही हमारी सभ्यता हमें सात्विक बनाने में सहायक बनेगी उतना ही हम संस्कृति के क्षेत्र में आगे बढ़ पाएँगे।

हमें जाना है आत्मिक उत्कर्ष की ओर जिसमें भौतिक आवश्यकताओं की कमी प्रधान साधन है। आवश्यकताओं की कमी ही समाज की विषमताओं को दूर कर सकती है और यहीं मानव समाज में शान्ति की स्थापना कर सकती है।

सादा जीवन उच्च विचार हमारा आदर्श होना चाहिए।

[प्रस्तुति  : श्रीमान रणधीर सिंह आर्य (तहसील प्रभारी, चांदपुर तहसील, जिला बिजनोर)]

(फोटो : १. रणधीर सिंह आर्य २, ३ - आचार्य जी व ब्रह्मचारी जी  ( ताजपुर गुरुकुल से) ४. स्वामी अग्निवेश जी योगाचार्य (कानपुर )


आपका अपना 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

योग का वास्तविक रूप भाग २

योग का वास्तविक रूप 

भाग २

गतांक से आगे -

हमने पुरानी पोस्ट में सत्य बोलने के फल को जाना अब अहिंसा के विषय में जानते हैं।  यदि हम दया करते हैं मन, वचन व कर्म से तो परिपक्व अवस्था में अर्थात अहिंसा के सिद्ध हो जाने पर भयंकर प्राणी भी हमारे सामने नत मस्तिष्क हो जाया करते हैं।  एक बार माता गार्गी बहुत कम अवस्था में अपने गुरुकुल से भयंकर वनों में चली आयीं।  उनके गुरु ने जब देख लिया कि गार्गी गुरुकुल में नहीं हैं तो वे उनको ढूंढने के लिए वन में आ गए।  उन्होंने देखा कि गार्गी एक पेड के नीचे सामवेद के मन्त्रों को जटा पाठ, घन पाठ व माला पाठ आदि विधियों से गा रहीं हैं तथा भयंकर हिंसक जीव जंतु व विषधर सर्प उनके गायन को सुनने के लिए उनके समीप पंक्ति बद्ध हैं।  तब ऋषि ने विचारा कि कितनी बलिष्ठ आत्मा है।  यह है इस योग की महिमा। 

महर्षि लोमश मुनि जब भी कदली वनों से होकर गुजरते थे, वनराज सिंह उनके चरणों में नतमस्तिष्क हुआ करता था।  उनकी अहिंसा सिद्ध थी।  अस्तेय का अर्थ है चोरी त्याग।  मन, वचन व कर्म से हर प्रकार की चोरी त्याग देना ही अस्तेय है।  महर्षि पतञ्जलि जी के योगदर्शन के अनुसार -

अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।।योगदर्शन ।साधनपाद ।३७ ।।

 अर्थात अस्तेय भाव के चित्त में पूरी तरह से प्रतिष्टित हो जाने पर योगी को समस्त उत्तम पदार्थो की प्राप्ति होने लगती है। 

ब्रह्मचर्य का अर्थ है जो ब्रह्म के तुल्य आचार विचार व्यवहार वाला अर्थात पूर्ण सदाचारी हो तथा उपस्थेन्द्रिय पर संयम रखने वाला हो।  जो व्यक्ति कण कण में प्रभु का व 'ओ३म्' शब्द का स्मरण करने वाला  हो वह ब्रह्मचारी  कहलाता है।  जब स्त्री व पुरुष का लिंगात्मक बोध भेद तिरोहित सा हो जाये तो समझ लेना चाहिए की ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा पूरी तरह से हो गयी है।  इसी प्रकार अपरिग्रह का अर्थ है स्वत्वाभिमान व अत्यंत लोलुपता का त्याग। 
शौच - सत्य से मन और जल मृत्तिकादि से शरीर के अवयवों को शुद्ध रखना। 
संतोष - धार्मिक अचार व्यवहार से जो कुछ भी प्राप्त हो जाये उसी में संतुष्ट रहना। 
तप  - कष्टों को सहकार भी जिस शुभ कार्य को कर रहे हैं उसे पूर्ण किये बिना न छोड़ना तथा इंद्रियादिकों पर संयम रखना तप कहलाता है। 
ईश्वर प्रणिधान - हर समय 'ओ३म्' इस परमात्मा के नाम का स्मरण करना, जप करना तथा हर स्थल पर परमात्मा का भाव रखना। 
स्वाध्याय - अपनी अच्छाइयों व बुराइयों को विचारना व बुराइयों को छोड़ देना तथा आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन तथा सदगुरु के शब्दों को विचारना । यह सब स्वाध्याय है। 
आसन - इस विषय में महर्षि पतञ्जलि जी ने  योगदर्शन में कहा है -

स्थिर सुखमासनम् ।।योगदर्शन ।साधनपाद ।४६।।
साधक को धारण-ध्यान आदि के लिए लम्बी अध्यात्म यात्रा पर निकलना होता है इसके लिए किसी भी आसन में लंबी अवधि तक बैठने का अभ्यास किया जाता है -

शरीर की जो स्थिति स्थिरता व सुखमयता से युक्त हो वह आसन कहलाती है।
कुछ मुख्य आसन इस प्रकार हैं -

पद्मासन, वज्रासन, शवासन, भुजंगासन, सर्वांगासन, हलासन, पश्चिमोत्तानासन व चक्रासन आदि आदि।


(क्रमशः )




आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

बुधवार, 9 नवंबर 2016

योग का वास्तविक रूप

ॐ 

योग का वास्तविक रूप

भाग १ 

भाइयों बहनों ! वैसे तो सभी लोग योग शब्द से परिचित हैं।  पुरातन काल से अब तक ऋषि मुनियों व साधु संतों ने, महर्षि पतञ्जलि के योगदर्शन से लेकर घरण्ड संहिता में समझाए हठ योग के तत्वों तक व आधुनिक रूप से विदेशों में प्रचलित योग के अनेक रूपों तक अलग अलग विधि से योग को समझाया है।  परन्तु योग वास्तव में क्या है इसको मैं अपने शब्दों में लिख रहा हूँ। 

योग अर्थात जुड़ाव, मिलान या जमा।  योग वह निधि है जिसको पाकर मानव मात्र शारीरिक, आत्मिक बल से परिपूर्ण, प्रसन्न वदन , शांत चित्त, संतुष्ट व शोभनीय बन जाए। 

योग अर्थात परमात्मा से मेल, ऐश्वर्य से मेल, शारीरिक/आत्मिक बलों से मेल, समाज से मेल तथा सदाचार व समस्त शुभ गुणों से मेल। 


योग के नाम पर आजकल उछलकूद, हठयोग, ध्यान मात्र आदि पद्धतियां  प्रचलित हैं परंतु पूर्ण योग की स्थिति में तो धन, ऐश्वर्य , सुबुद्धि, ज्ञान व विज्ञान आदि सब ही कुछ प्राप्त हो जाता है अतः इन पद्धतियों में अपूर्णता है।  यदि पूर्ण योग की स्थिति को जानना है तो हमें समाधि स्थिति तक पहुँच कर परमात्मा के दर्शन करने होंगे।  कहा भी है -

"परमात्मा को समाधिस्थ बुद्धि से जाना जाता है"-महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती

पूर्ण योग की स्थिति को समझने के लिए पहले महर्षि पतञ्जलि द्वारा बताये योग के आठ अंगों पर निगाह डाल लेवें -
१- यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य)
२- नियम (शौच, संतोष, तप , ईश्वर प्रणिधान व स्वाध्याय)
३- आसन 
४- प्राणायाम 
५- प्रत्याहार 
६- धारणा 
७- ध्यान 
८- समाधि

यदि यम में से सत्य पर ध्यान दें तो हमें पता चलता है सत्य मानना , बोलना व सत्य  ही करना भी योग में प्रवेश करने का एक सोपान है।  यदि सत्य बोलें  व मानें तो धीरे धीरे हम उस स्थिति तक पहुँच जाते हैं कि हमारी वाणी भी सत्य सिद्ध होने लगती है अमोघ हो जाती है। 

महर्षि श्रृंगी जी ने ८४ वर्ष तक सत्य बोलने का अभ्यास किया था और महर्षि अत्रि मुनि जी ने १२० वर्ष तक।  महर्षि श्रृंगी जी की वाणी अमोघ थी वह जिसको कह देते थे  कि जा मृत्यु को प्राप्त हो जा तो उसे मृत्यु को प्राप्त हो जाना  पड़ता था।  महर्षि अत्रि मुनि जी महाराज यदि उड़ते पक्षी से कह देते थे कि इधर आओ तो उसे उनके पास आना ही पड़ता था। 


यह होता है सत्य का प्रभाव।  वेद में परमात्मा स्वतः कहते हैं-

"मैं सत्यवादी को सत्य सनातन ज्ञानादि धन को देता हूँ, मैं सत्पुरुष का प्रेरक, यज्ञ करने वाले को फल प्रदाता व इस संसार में जो कुछ भी है उसे बनाने व धारण करने वाला हूँ।  इसलिए मेरे स्थान पर मेरे सिवा और किसी को मन मानो मत`मत जानो मत पूजो। "

जब हम सत्य बोलना प्रारम्भ करते हैं तो प्रारम्भ में तो कष्ट होता है परंतु धीरे धीरे वाणी अमोघ हो जाती है व सत्य बोलना सुखदायक हो जाता है।

शेष अगले पोस्ट में

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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