शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

योग का वास्तविक रूप भाग २

योग का वास्तविक रूप 

भाग २

गतांक से आगे -

हमने पुरानी पोस्ट में सत्य बोलने के फल को जाना अब अहिंसा के विषय में जानते हैं।  यदि हम दया करते हैं मन, वचन व कर्म से तो परिपक्व अवस्था में अर्थात अहिंसा के सिद्ध हो जाने पर भयंकर प्राणी भी हमारे सामने नत मस्तिष्क हो जाया करते हैं।  एक बार माता गार्गी बहुत कम अवस्था में अपने गुरुकुल से भयंकर वनों में चली आयीं।  उनके गुरु ने जब देख लिया कि गार्गी गुरुकुल में नहीं हैं तो वे उनको ढूंढने के लिए वन में आ गए।  उन्होंने देखा कि गार्गी एक पेड के नीचे सामवेद के मन्त्रों को जटा पाठ, घन पाठ व माला पाठ आदि विधियों से गा रहीं हैं तथा भयंकर हिंसक जीव जंतु व विषधर सर्प उनके गायन को सुनने के लिए उनके समीप पंक्ति बद्ध हैं।  तब ऋषि ने विचारा कि कितनी बलिष्ठ आत्मा है।  यह है इस योग की महिमा। 

महर्षि लोमश मुनि जब भी कदली वनों से होकर गुजरते थे, वनराज सिंह उनके चरणों में नतमस्तिष्क हुआ करता था।  उनकी अहिंसा सिद्ध थी।  अस्तेय का अर्थ है चोरी त्याग।  मन, वचन व कर्म से हर प्रकार की चोरी त्याग देना ही अस्तेय है।  महर्षि पतञ्जलि जी के योगदर्शन के अनुसार -

अस्तेय प्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् ।।योगदर्शन ।साधनपाद ।३७ ।।

 अर्थात अस्तेय भाव के चित्त में पूरी तरह से प्रतिष्टित हो जाने पर योगी को समस्त उत्तम पदार्थो की प्राप्ति होने लगती है। 

ब्रह्मचर्य का अर्थ है जो ब्रह्म के तुल्य आचार विचार व्यवहार वाला अर्थात पूर्ण सदाचारी हो तथा उपस्थेन्द्रिय पर संयम रखने वाला हो।  जो व्यक्ति कण कण में प्रभु का व 'ओ३म्' शब्द का स्मरण करने वाला  हो वह ब्रह्मचारी  कहलाता है।  जब स्त्री व पुरुष का लिंगात्मक बोध भेद तिरोहित सा हो जाये तो समझ लेना चाहिए की ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा पूरी तरह से हो गयी है।  इसी प्रकार अपरिग्रह का अर्थ है स्वत्वाभिमान व अत्यंत लोलुपता का त्याग। 
शौच - सत्य से मन और जल मृत्तिकादि से शरीर के अवयवों को शुद्ध रखना। 
संतोष - धार्मिक अचार व्यवहार से जो कुछ भी प्राप्त हो जाये उसी में संतुष्ट रहना। 
तप  - कष्टों को सहकार भी जिस शुभ कार्य को कर रहे हैं उसे पूर्ण किये बिना न छोड़ना तथा इंद्रियादिकों पर संयम रखना तप कहलाता है। 
ईश्वर प्रणिधान - हर समय 'ओ३म्' इस परमात्मा के नाम का स्मरण करना, जप करना तथा हर स्थल पर परमात्मा का भाव रखना। 
स्वाध्याय - अपनी अच्छाइयों व बुराइयों को विचारना व बुराइयों को छोड़ देना तथा आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन तथा सदगुरु के शब्दों को विचारना । यह सब स्वाध्याय है। 
आसन - इस विषय में महर्षि पतञ्जलि जी ने  योगदर्शन में कहा है -

स्थिर सुखमासनम् ।।योगदर्शन ।साधनपाद ।४६।।
साधक को धारण-ध्यान आदि के लिए लम्बी अध्यात्म यात्रा पर निकलना होता है इसके लिए किसी भी आसन में लंबी अवधि तक बैठने का अभ्यास किया जाता है -

शरीर की जो स्थिति स्थिरता व सुखमयता से युक्त हो वह आसन कहलाती है।
कुछ मुख्य आसन इस प्रकार हैं -

पद्मासन, वज्रासन, शवासन, भुजंगासन, सर्वांगासन, हलासन, पश्चिमोत्तानासन व चक्रासन आदि आदि।


(क्रमशः )




आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

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