आध्यात्मिक साधना में जो सब कुछ भूल जाता है वह अपने आप को पा लेता है। जब किसी बड़ी चीज़ के प्रति आकर्षण हो जाता है तो उससे छोटी वस्तु के प्रति विकर्षण निश्चित है।
जैसे अल्प आयु में बच्चों का आकर्षण खिलोने में होता है, मानसिक विकास होने पर उनका आकर्षण पुस्तकों से हो जाता है और खिलोनो से विकर्षण।
प्रश्न : आत्मा के साधक को क्या पाना है?
उत्तर : आत्मा को
प्रश्न :आत्मा क्या है?
उत्तर :चेतना है। आत्मा से व्यक्ति जानता है और जो नहीं जान पाता वह जड़ अनात्मा है। पदार्थों का ज्ञान इन्द्रियों को होता है, इन्द्रियों का पदार्थों को नहीं।
प्रश्न: इन्द्रियाँ क्या हैं?
उत्तर: इन्द्रियां जानने का साधन हैं। चेतना के लुप्त हो जाने पर इन्द्रियां शांत हो जाती हैं।
आत्मा अमूर्त है, शरीर मूर्त अर्थात शरीर की प्रतिमा या मूर्ति बनायीं जा सकती है।
आत्मा से रहित शरीर में चेतना नहीं होती। आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है। शरीर का नाश होने पर भी इसका नाश नहीं होता। इसलिए आत्मा अथवा चेतना, जड़ अथवा अनात्मा वास्तविक दृष्टि से पृथक पृथक हैं। स्पर्श, गंध, रूप, रस, शब्द आदि का निमित्त पाकर जीव को राग, द्वेष, मोह आदि विकार होते हैं।
विभाव, शक्ति, ममत्व एवम मिथ्याभाव आदि भाव ही बंध के कारण हैं। इन्हीं भावों से आसक्ति उत्पन्न होती है। बाहरी घटनाएं, वस्तुएँ , सुख, दुःख का निमित्त मात्र होती हैं।
मोह एवं आसक्ति से दु:ख सुख के भाव की प्रतीति एवं उनकी प्रबलता का बोध होता है।
जो आसक्ति एवं मोह को छोड़ देते हैं उन्हें हर्ष अथवा विषाद की परिस्थितियों में दु:ख सुख नहीं होता।
जिसको मोह रहता है उसे कारण मिलने पर या बिना कारण के भी केवल अपने संकल्प से दु:ख सुख का अनुभव होता रहता है। जीव के राग आदि भावों को निमित्त करके ही कर्म आत्मा से बंधते हैं कोई दूसरा हमें नहीं बाँधता अपितु हम अपने किये भावों के अनुसार उपार्जित कर्मों से बंधते हैं। राग द्वेष विकार मूलक भावों का अन्त हो जाए तो फिर कोई बन्धन नहीं होता।
द्वारा: विश्वपाल सिंह त्यागी
हल्ला नंगला
+918650209774
आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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