शनिवार, 19 नवंबर 2016

सतसंग क्या है?


सत्संग
धार्मिक पुरुषों में सत्संग शब्द का प्रयोग अकसर होता ही रहता है। मैं सत्संग से आ रहा हूँ, सत्संग में जा रहा हूँ, सब को सत्संग करना चाहिए आदि। सत्संग वाले वाक्य सुनते ही रहते हैं। सत्संग शब्द अपने में बहुत ही व्यापक अर्थ लिये हुए है। परन्तु इसका ज्ञान बहुत कम लोगों को है वे तो सभी धार्मिक सभाओं को सत्संग ही समझ लेते हैं। इसका अर्थ समझ लेना आवश्यक है। सत्संग में दो शब्दों का मेल है  अर्थात् सत्+संग । भावार्थ हुआ सत् की चर्चा। जहाँ सत् की चर्चा हो वहीं सत्संग माना जाता है।

अब सत् क्या है? यह जानना बहुत आवश्यक है। सत संसार में तीन ही तत्व हैं जो कि नित्य हैं अनादि हैं - परमात्मा, आत्मा (जीव) तथा प्रकृति। अत: जहाँ परमात्मा, आत्मा व प्रकृति की चर्चा होती हो उसे ही सत्संग कहना सार्थक है। तीनों तत्वों का कभी नाश नहीं होता अर्थात् अभाव नहीं होता है। सांख्य दर्शनानुसार निम्न कथन है कि -

नासतो विद्यते भावो, ना भावो विद्यते सत:।

अर्थात् असत से सत नहीं होता और सत का कभी नाश नहीं होता है। सांख्य दर्शन में चेतन को पुरुष शब्द से व्यक्त किया है तथा जड़ को प्रकृति शब्द से व्यक्त किया गया है।
पुरुष:- पुरुष तीन प्रकार के माने गए हैं -
१- निर्लिप्त पुरुष - परमात्मा
२- मुक्त पुरुष - आत्मा : अनेक आत्मा स्वरूप जीव (ईश्वरोपाधि)
३- बद्ध पुरुष - आत्मा : अनेक जीव (अविद्या से आच्छादित)
जड़ अर्थात् प्रकृति :- सत्व, रजस् व तमस् तीनों गुणों की साम्यावस्था प्रकृति है। इसकी दो अवस्थाएँ हैं - अव्यक्तावस्था तथा व्यक्तावस्था। अव्यक्त प्रकृति अर्थात् शुद्ध सत्व प्रधान या माया अदृष्टों (संस्कारों) के प्रभाव से तमोगुण का प्रभाव हट जाता है और प्रकृति में चांचल्य उत्पन्न होने लगता है तथा रजोगुण (क्रियाशीलता) के रहने के कारण अव्यक्तावस्था, व्यक्तावस्था(कार्य रूप प्रकृति में आने लगती है। अव्यक्तावस्था को कारण रूप प्रकृति (माया) तथा व्यक्तावस्था को कार्य रूप प्रकृति अर्थात् अविद्या भी कहा गया है।

सांख्य दर्शन में पुरुष द्वारा प्रकृति (माया) द्वारा जीवों के कल्याण हेतु सृष्टि के सृजन का वर्णन है। परमात्मा को पुरुष से व्यक्त किया है जिसके ज्योति लिंग या शिव लिंग अर्थात् महतत्व अर्थात् प्राण (आन्तरिक ऊर्जा) से कारण रूप मूल प्रकृति (पार्वती) से सृष्टि की उत्पत्ति की है। शिव लिंग का वास्तविक अर्थ, परमात्मा का सामर्थ्य है तथा प्रकृति को पार्वती भी कहा जाता है। परन्तु अज्ञानी व मूर्ख लोगों ने पत्थर के गोल टुकड़े को शिवलिंग मानकर जड़ पूजा आरम्भ कर दी है।

शिव अर्थात् कल्याणकारी परमात्मा ने अपने प्राण रूप लिंग अर्थात् सामर्थ्य से पार्वती रूप प्रकृति से जीवों के कल्याण हेतु सृष्टि का सृजन किया है। प्रकृति के शुद्ध सत्व अंश से बुद्धि तत्व की उत्पत्ति होती है तथा क्रमशः अहंकार, मन, पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ व कर्म हेतु पाँच कर्मेन्द्रियाँ मनुष्य के लिए परमात्मा ने रचीं  तथा प्रकृति के तामसिक अंश से शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध पांच तन्मात्राएँ तदुपरांत पाँच स्थूल महाभूत बनाए हैं।
उपरोक्त विवरण से विदित होता है कि परमात्मा, आत्मा व प्रकृति तीन अलग अलग सत्ताएँ नित्य व अनादि हैं। जीव (आत्मा) परमात्मा का अंश नहीं है क्योंकि परमात्मा सत्+चित्+आनन्द (सच्चिदानंद) है, जीव सत्+चित् है तथा तथा प्रकृति मात्र सत् है। परमात्मा निराकार, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक, विभु, दयालु, न्यायकारी, अज, अमर, सत्य, सर्वज्ञ, तथा सृष्टिकर्ता है तथा जीव अल्पज्ञ, जन्म -मृत्यु वाला, शरीरी, एकदेशीय तथा अल्प सामर्थ्यादि गुणों वाला है। अत: परमात्मा का अंश जीवात्मा नहीं हो सकता। प्रकृति जड़ है तथा सृष्टि का उपादान कारण है।

परमात्मा, आत्मा व प्रकृति के निर्भ्रांत ज्ञान की चर्चा ही वास्तव में सत्संग है। इसी में डुबकी लगा कर परमात्मा की भक्ति से मुक्ति के रास्ते पर चलना ही मनुष्य का मुख्य लक्ष्य होना चाहिये।
प्रस्तुति : रणधीर सिंह आर्य
(तहसील प्रभारी, भारत स्वाभिमान, चाँदपुर)
फोन: 9457531765

आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

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