किसी भी राष्ट्र की श्रेष्ठता उस राष्ट्र की संस्कृति एवं सभ्यता से प्रमाणित होती है। हम भारतीय भी अपनी संस्कृति एवं सभ्यता को श्रेष्ठ बताते हैं और है भी। परन्तु दुर्भाग्य से जब हमारे अधिकतर नेता तथा विद्वान कहे जाने वाले व्यक्ति कहते हैं कि हमारी संस्कृति ५००० वर्ष पुरानी है। तब बड़ा ही कष्ट होता है कि क्या हमारी संस्कृति ५००० वर्ष पुरानी है या अरबों वर्ष पुरानी। हम जब किसी भी उत्सवादि के अवसर पर संकल्प मंत्र पढ़ते हैं जिसकी गणनानुसार वर्तमान वर्ष का मान १,९६,०८,४३,११७ वर्ष का बैठता है जिससे पता चलता है कि हमारी संस्कृति इतने वर्षों पुरानी है। अत: संस्कृति शब्द की उत्पत्ति के बारे में जानना आवश्यक है -
संस्कृति =सम्यक+कृति
सम उपसर्ग पूर्वक कृ धातु से भूषण अर्थ सुट का आगम करके त्किन प्रत्यय करने से संस्कृति शब्द बनता है। इसका अर्थ है -
भूषण भूत सम्यक् कृति
अर्थात् - सम्यक् ज्ञानानुसार कृति अर्थात् सम्यक् विचार पूर्ण कार्य।
अत: श्रेष्ठ विचारों और कर्मों की परम्परा का नाम संस्कृति है। चूंकि सम्यक् ज्ञान का अर्थ है परम पुरुष (परमात्मा) द्वारा अवतरित ज्ञान अर्थात् वेदानुसार ज्ञान। वेद सम्मत विचार तथा तदानुसार कर्म ही वैदिक अथवा भारतीय संस्कृति है और यह ही मातृ संस्कृति भी कहलाती है। भारत में वेदानुसार कर्म करने की परम्परा रही है इसीलिए इसी वैदिक संस्कृति को ही भारतीय संस्कृति कहते हैं। भारतीय अथवा वैदिक संस्कृति के किसी अंश को जो किसी विशेष क्षेत्र में प्रचलित है उस स्थान विशेष की संस्कृति कहते हैं ।
सभा में साधुता को सभ्यता कहा गया है अर्थात् श्रेष्ठ आवास, वस्त्र, आभूषण, भाषा व श्रेष्ठ प्रकार के रहन सहन की परम्परा का नाम सभ्यता है।
'एक महात्मा का प्रसाद' नामक पुस्तक के अनुसार प्राकृतिक विधान के अनुरूप संस्कार की पद्धति ही संस्कृति है और उसी के किसी अंश को सभ्यता कहते हैं।
संस्कृति अनुभव जन्य ज्ञान के आधार पर निर्भर है। अनुभव जन्य ज्ञान नित्य है इसीलिए संस्कृति भी नित्य है। बुद्धि जन्य ज्ञान के आधार पर निर्भर होने के कारण तथा बुद्धि जन्य ज्ञान परिवर्तन शील होने के कारण सभ्यता अनित्य एवं परिवर्तन शील होती है।
सभ्यता शरीर के मनोविकारों की द्योतक है जबकि संस्कृति आत्मा के अभ्युत्थान की प्रदर्शिका है। सभ्यता का उत्थान मानव को प्रकृति वाद की ओर ले जाता है जबकि संस्कृति मानव को अन्तर्मुखी करके उसके सात्विक गुणों को प्रकट करती है।
'Civilization is an expression of Flesh while Culture is manifestation of Soul.'
परन्तु मनुष्य आज अधिक से अधिक सभ्य बनने में लगा हुआ है अर्थात् शारीरिक सुख के साधन जुटाने में लगा हुआ है, भोगने में लगा हुआ है तथा सभ्य कहलाना चाहता है। वह आत्मा के उत्थान को भूल गया है तथा सुशिक्षित पशु बन गया है।
हमें ये बातें जान लेनी चाहिएं कि सभ्यता का शारीरिक आवश्यकताओं के साथ सम्बन्ध है और संस्कृति का आत्मा के सात्विक गुणों के साथ। जितना ही हमारी सभ्यता हमें सात्विक बनाने में सहायक बनेगी उतना ही हम संस्कृति के क्षेत्र में आगे बढ़ पाएँगे।
हमें जाना है आत्मिक उत्कर्ष की ओर जिसमें भौतिक आवश्यकताओं की कमी प्रधान साधन है। आवश्यकताओं की कमी ही समाज की विषमताओं को दूर कर सकती है और यहीं मानव समाज में शान्ति की स्थापना कर सकती है।
सादा जीवन उच्च विचार हमारा आदर्श होना चाहिए।
[प्रस्तुति : श्रीमान रणधीर सिंह आर्य (तहसील प्रभारी, चांदपुर तहसील, जिला बिजनोर)]
(फोटो : १. रणधीर सिंह आर्य २, ३ - आचार्य जी व ब्रह्मचारी जी ( ताजपुर गुरुकुल से) ४. स्वामी अग्निवेश जी योगाचार्य (कानपुर )
(फोटो : १. रणधीर सिंह आर्य २, ३ - आचार्य जी व ब्रह्मचारी जी ( ताजपुर गुरुकुल से) ४. स्वामी अग्निवेश जी योगाचार्य (कानपुर )
आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें