ॐ
योग का वास्तविक रूप
भाग १
भाइयों बहनों ! वैसे तो सभी लोग योग शब्द से परिचित हैं। पुरातन काल से अब तक ऋषि मुनियों व साधु संतों ने, महर्षि पतञ्जलि के योगदर्शन से लेकर घरण्ड संहिता में समझाए हठ योग के तत्वों तक व आधुनिक रूप से विदेशों में प्रचलित योग के अनेक रूपों तक अलग अलग विधि से योग को समझाया है। परन्तु योग वास्तव में क्या है इसको मैं अपने शब्दों में लिख रहा हूँ।
योग अर्थात जुड़ाव, मिलान या जमा। योग वह निधि है जिसको पाकर मानव मात्र शारीरिक, आत्मिक बल से परिपूर्ण, प्रसन्न वदन , शांत चित्त, संतुष्ट व शोभनीय बन जाए।
योग अर्थात परमात्मा से मेल, ऐश्वर्य से मेल, शारीरिक/आत्मिक बलों से मेल, समाज से मेल तथा सदाचार व समस्त शुभ गुणों से मेल।
योग के नाम पर आजकल उछलकूद, हठयोग, ध्यान मात्र आदि पद्धतियां प्रचलित हैं परंतु पूर्ण योग की स्थिति में तो धन, ऐश्वर्य , सुबुद्धि, ज्ञान व विज्ञान आदि सब ही कुछ प्राप्त हो जाता है अतः इन पद्धतियों में अपूर्णता है। यदि पूर्ण योग की स्थिति को जानना है तो हमें समाधि स्थिति तक पहुँच कर परमात्मा के दर्शन करने होंगे। कहा भी है -
"परमात्मा को समाधिस्थ बुद्धि से जाना जाता है"-महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती
पूर्ण योग की स्थिति को समझने के लिए पहले महर्षि पतञ्जलि द्वारा बताये योग के आठ अंगों पर निगाह डाल लेवें -
१- यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य)
२- नियम (शौच, संतोष, तप , ईश्वर प्रणिधान व स्वाध्याय)
३- आसन
४- प्राणायाम
५- प्रत्याहार
६- धारणा
७- ध्यान
८- समाधि
यदि यम में से सत्य पर ध्यान दें तो हमें पता चलता है सत्य मानना , बोलना व सत्य ही करना भी योग में प्रवेश करने का एक सोपान है। यदि सत्य बोलें व मानें तो धीरे धीरे हम उस स्थिति तक पहुँच जाते हैं कि हमारी वाणी भी सत्य सिद्ध होने लगती है अमोघ हो जाती है।
महर्षि श्रृंगी जी ने ८४ वर्ष तक सत्य बोलने का अभ्यास किया था और महर्षि अत्रि मुनि जी ने १२० वर्ष तक। महर्षि श्रृंगी जी की वाणी अमोघ थी वह जिसको कह देते थे कि जा मृत्यु को प्राप्त हो जा तो उसे मृत्यु को प्राप्त हो जाना पड़ता था। महर्षि अत्रि मुनि जी महाराज यदि उड़ते पक्षी से कह देते थे कि इधर आओ तो उसे उनके पास आना ही पड़ता था।
यह होता है सत्य का प्रभाव। वेद में परमात्मा स्वतः कहते हैं-
"मैं सत्यवादी को सत्य सनातन ज्ञानादि धन को देता हूँ, मैं सत्पुरुष का प्रेरक, यज्ञ करने वाले को फल प्रदाता व इस संसार में जो कुछ भी है उसे बनाने व धारण करने वाला हूँ। इसलिए मेरे स्थान पर मेरे सिवा और किसी को मन मानो मत`मत जानो मत पूजो। "
जब हम सत्य बोलना प्रारम्भ करते हैं तो प्रारम्भ में तो कष्ट होता है परंतु धीरे धीरे वाणी अमोघ हो जाती है व सत्य बोलना सुखदायक हो जाता है।
शेष अगले पोस्ट में
आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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