शुक्रवार, 27 अप्रैल 2018

द की व्याख्या

ॐ 


मैं आज आत्मा की विवेचना पुनः करने जा रहा हूँ।  जिसे बहुत पूर्व काल से प्रकट कराता चला आया हूँ।  मैंने प्रकट कराया था कि प्रजापति की तीन प्रकार की संतान होती हैं। सबसे प्रथम देवता होते हैं। दूसरे मानव होते हैं।  तीसरे दानव होते हैं। एक समय ऐसा हुआ कि तीनों संतानों ने विचारा आज हम अपने पिता के द्वार चलेंगे।  और उनसे प्रश्न करेंगे।  जिससे हमारा कल्याण हो।  उस समय तीनों संतान प्रजापति के आश्रम में प्रविष्ट हो गयीं।  महाराजा प्रजापति ने उनका बड़ा सुन्दर स्वागत किया।  विराजमान हो जाने के पश्चात् महाराजा प्रजापति ने कहा कि  - कैसे आना हुआ? उन्होंने कहा कि हे भगवन! आपके चरणों को स्पर्श करने के लिए, कुछ अपने कल्याण के लिए, उपदेश पान करने के लिए आ पहुंचे हैं।  उन्होंने कहा कि क्या उपदेश पान करना चाहते हो? उन्होंने कहा कि - भगवन! जिससे हमारा कल्याण हो।  इस वैतरणी नदी से हम पार हो जाएँ, जिससे मान और अपमान होता रहता है, जिससे हमारा ह्रदय विशाल हो जाए। उन्होंने कहा कि बहुत सुन्दर। 

सबसे पहले देवताओं ने कहा कि - भगवन! आप हमें उपदेश दीजिये।  प्रजापति ने उन्हें 'द' का उपदेश देते हुए कहा कि - तुम संसार में दमनशील रहो, क्योंकि जितने देवता दमनशील रहेंगे उतना ही यह संसार धर्म और मर्यादा विशालता को प्राप्त होती रहेगी।  'द' का उपदेश पान करते ही देवता प्रसन्न हो गए। 

अब मानव आये, उन्होंने कहा की प्रभु हमें भी उपदेश दीजिये।  उन्होंने उन्हें भी 'द' का उपदेश दिया।  'द' का उपदेश पान करके जब उन्होंने गमन किया तो प्रजापति बोले , अरे! तुमने क्या जाना है? उन्होंने कहा, प्रभु! आपने हमें 'द' का उपदेश दिया है।  'द' का अभिप्राय है कि मानव को दानी बनना चाहिए दान देना चाहिए, क्योंकि मानव का जो कल्याण होता है वह दान से होता है।  कौनसा दान? जो वस्तु अपने द्वारा हो उसका दान करो, यज्ञ करो उसी से तुम्हारा कल्याण होगा।  'द' से दान बनता है इसलिए हम दानी बनें, भव्य बनें। दान देते हैं तो हमारे द्रव्य की सुरक्षा होती है।  आज जो मानव संकीर्णता में चला जाता है।  वह कृपण बन जाता है।  तो उसका द्रव्य कुछ काल के बाद नष्ट हो जाता है।  जो मानव दान देता है, उज्जवल कार्य करता है, मानव मननशीलता में चला जाता है।  

उसके पश्चात दैत्य आ पहुंचे।  दैत्यों को भी उन्होंने 'द'  का उपदेश दिया।  'द' का उपदेश पान करते ही दैत्य जब गमन करने लगे तो प्रजापति बोले - अरे! तुमने कुछ पान किया।  उन्होंने कहा कि - प्रभु आपने हमें 'द' का उपदेश दिया है।  'द' का अभिप्राय है कि दैत्यों को संसार में दया करनी चाहिए।  जितने मानव उपद्रवी होते हैं वह सब दैत्यों की संज्ञा होती है।  इसलिए दैत्यों को संसार में दया करनी चाहिए।  जब तक दयावान नहीं बनेंगे। तब तक वह प्रजापति की संतान नहीं कहलाते।  वह आगे चल करके उद्दंडता में परिणत हो जाते हैं।  राष्ट्र की परंपरा नष्ट हो जाती है।  देवताओं का जीवन त्राहि-त्राहि करने लगता है। 




आपका 
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 
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