बुधवार, 30 नवंबर 2016

मृत्यु क्या है - भाग २

अब यह तो निश्चित है कि आत्मा अजर अमर है और वर्तमान शरीर को छोड़कर आत्मा कर्मानुसार अन्य लोकों को गमन कर, जन्म ले अन्य जीवन यात्रा पूर्ण किया करता है। परन्तु यह शरीर क्या है और किस रूप में आत्मा इस लोक से जाती है?


प्रश्न उठता है कि शरीर कितने हैं और कैसा संघटन है  उनका?

उत्तर: जीवात्मा के शरीर तीन प्रकार के होते हैं -

१- स्थूल शरीर - दस प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, देवदत्त, कूर्म, कृकल, धनंजय व नाग), दस इन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिव्हा, त्वचा, हाथ, पैर, वाणी, उपस्थ व पायु), मन, बुद्धि, चित्त व अहंकार । यह चौबीस तत्व व पच्चीसवां जीवात्मा।

२- सूक्ष्म शरीर - पांच तन्मात्राएँ, पाँच प्राण(प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान), पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन व बुद्धि। ये १७ तत्व व अट्ठारहवाँ जीवात्मा ।

३- कारण शरीर- मन ज्ञान के लिये व प्राण प्रयत्न के लिए व तीसरा आत्मा।

यह जो लोक में हमें शरीर दिखता है यह स्थूल शरीर कहलाता है परन्तु आत्मा के और दो शरीर भी होते हैं, सूक्ष्म शरीर व कारण शरीर । स्थूल शरीर से विच्छेद (मृत्यु) के बाद जीवात्मा सूक्ष्म शरीर के द्वारा सर्वप्रथम यम नाम की वायु में प्रवेश करता है। इसीलिए लोक में सुनते हैं कि आत्मा यमलोक को चला गया। फिर इन्द्रादि वायुओं में भ्रमण कर अपनी पूर्व जन्म की स्मृति त्याग देता है। कहीं कहीं ये आत्मा सूक्ष्म शरीर में १३-१३ दिवस तक भ्रमण करती हैं और कुछ को तुरंत भी जन्म लेना पड़ता है तथा जीवन मुक्त आत्माएँ तो लाखों लाखों वर्ष तक स्वच्छंद भ्रमण अव्याहत गति से किया करती हैं परन्तु यह सब व्यवस्था कर्मानुसार है।


सूक्ष्म शरीर के भोगों को भोगने के पश्चात् आत्मा कारण लिंग में प्रवेश करती है तथा फिर अपने स्वाभाविक गुण ज्ञान व प्रयत्न के द्वारा मुक्ति में आनन्द का उपभोग करती है और परमात्मा को पा कर ब्रह्म उपाधि को प्राप्त कर लेती है। परन्तु यहाँ परमात्मा की संज्ञा परब्रह्म है। आत्मा कभी भी परमात्मा नहीं बनती।
किया कर्म निष्फल कभी नहीं जाता है कहा है -

अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतम् कर्मश्शुभाशुभम्

किये हुए कर्मों का फल भोगना ही होता है चाहे अशुभ हो या शुभ। अत: जब तक पाप या पुण्य जो भी पहले किया है उन सभी के फलों को भोग नहीं लेती वह आत्मा मुक्त नहीं हो सकती। उसे पुनः पुनः जन्म धारण करना ही पड़ेगा।

जन्मों जन्मों में प्रकृति के आवेशों में आ जाने के कारण आत्मा ज्ञान को भूल जाता है परन्तु योग के द्वारा उस की पहुँच धीरे धीरे मुक्ति तक हो जाती है।

अत: भाइयों बहनों योगी बनें, सदाचारी बनें, पापों से पृथक हो परमात्मा की भक्ति व जप यज्ञ आदि के साथ पूर्ण पुरुषार्थ करें। निस्वार्थ, निष्काम कर्म भी करें यदि अपने व अपनों के लिए स्वार्थी हैं हम तो परमार्थ भी करें। यहीं है वास्तविक जीवन तथा अन्त में निश्चित मुक्ति का आश्वासन।


आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

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