ओ३म्
गायत्री की महिमा
शंख ऋषि कहते हैं:―
सव्याह्रतिकां सप्रणवां गायत्रीं शिरसा सह ।
ये जपन्ति सदा तेषां न भयं विद्यते क्वचित् ।।
―(१२/१४)
अर्थात्―जो सदा गायत्री का जप व्याह्रतियों और ओंकार सहित करते हैं, उन्हें कहीं भी कोई भय नहीं सताता।
शतं जप्त्वा तु सा देवी दिन-पाप-प्रणाशिनी ।
सहस्रं जप्त्वा तु तथा पातकेभ्यः समुद्धरेत् ।।
―(१२/१५)
भावार्थ―गायत्री का सौ बार जाप करने से दिन भर के पाप (नीच भावनाएँ) नष्ट हो जाते हैं तथा दिन भर पापों का प्राबल्य नहीं होने पाता और एक सहस्र बार जाप करने से यह गायत्री मन्त्र मनुष्य को पातकों से ऊपर उठा देता है और उसके मन की रुचि पापों की ओर नहीं रहती।
दशसहस्रं जप्त्वा नु सर्वकल्मषनाशिनीम् ।
सुवर्णस्तेयकृद्विप्रो ब्रह्महा गुरुतल्पगः ।
सुरापश्च विशुद्धयेत लक्षजप्यान्न संशयः ।
―(१२/१६)
भावार्थ―दस सहस्र बार जप करने से मनुष्य के सब कल्मष (बुरी भावनाएँ) नाश होते हैं, अर्थात् मनुष्य के मन में पाप की कोई मैल नहीं रहने पाती और एक लाख बार जप करने से महापातकियों के अन्तःकरण भी पवित्र हो जाते हैं।
अत्रि ऋषि का कथन है:―
गायत्रयष्टसहस्रं तु जप्यं कृत्वा स्थिते रवौ ।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो यदि न ब्रह्महा भवेत् ।।
―(११/१५)
भावार्थ―सूर्याभिमुख होकर यदि आठ हजार गायत्री का जाप करे, तो यदि वह ब्रह्म द्वेषी अर्थात् ज्ञान तथा ज्ञानी पुरुषों का शत्रु अथवा नास्तिक नहीं है , तो वह सब पापों (कुविचारों) से मुक्त हो जाता है।
(व्हाट्सप्प से )
आपका ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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