सीता राजा जनक की कन्या थी। एक समय राजा जनक के राष्ट्र में अकाल पड़ गया। नाना ऋषियों को निमंत्रण दिया गया। याज्ञवाल्क्य, माता गार्गी, महर्षि लोमश आदि और भी अन्य ऋषि उनके आश्रम में आये। राजा जनक ने उनसे कहा कि मेरी प्रजा अन्न के अभाव से दुःखित है कुछ ऐसा यत्न करो कि जिससे अकाल समाप्त हो जाये। उन्होंने गणित के अनुकूल देखा और कहा कि भगवन आप दो गौ के बछड़े लीजिये, स्वर्ण का हल बनवाइए और अपनी वाटिका में जाकर हल चलाइये। ऐसा उनका विश्वास था। राजा जनक ने ऐसा ही किया। कारण होना था राजा जनक ने ज्यों ही हल चलाया वृष्टि हुई और उधर राजा जनक के घर कन्या का जन्म हुआ।
राजा जनक को जब गृह से कन्या उत्पन्न होने का समाचार मिला तो बड़े प्रसन्न हुए कि मेरा बड़ा सौभाग्य है, आज ऐसे आनंद समय मेरी पुत्री का जन्म हुआ। उन्होंने ऋषि-मुनियों से कहा कि महाराज अब तो आप सब होकर मेरी कन्या का नामकरण संस्कार कीजिये। ऋषि-मुनियों ने कहा कि भाई इसका नामकरण संस्कार क्या? इसका नाम सीता नियुक्त कर दो। व्याकरण की रीति से उन्होंने कहा कि सीता 'ता' नाम वृष्टि का और 'सी' नाम हल की फाली का। हल चलाने से वृष्टि हुई है और वृष्टि होने से जन्म हुआ है। दोनों के मिलान से जन्म हुआ है इसलिए कन्या का नाम सीता नियुक्त कर दो। मुनिवरों! उस समय उसका नाम सीता नियुक्त कर दिया गया।
आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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