देवर्षि नारद मुनि ने यह कहा था कि 'राहु' और 'केतु' का जीवन में क्या सम्बन्ध है? उन्होंने एक वाक्य कहा कि दोनों की भिन्न भिन्न तरंगे आती हैं तो वह 'राम बृहिः कृताम् देवाः' उसकी जो कान्ति यदि चन्द्रमा की आभा में परिणत होती है, दोनों का मिलान हो जाता है, तो कुछ वायुमंडल में विष की उत्पत्ति हो जाती है। वही 'राहु' और 'केतु' दोनों की किरणें यदि चन्द्रमा को न हो करके वे पृथ्वी की आभा पर हो जाती हैं, तो वहाँ प्राणवर्धक वायु का सञ्चार होने लगता है। यदि वही किरणें सूर्य को ओतप्रोत करती हुई और दोनों के मध्य में यदि चन्द्रमा की तरंगें आ जाती हैं अथवा चन्द्रमा आ जाता है तो उस समय प्राणवर्धक जो वायु है, उसकी सूक्ष्मता हो जाती है। माता के गर्भस्थल में हम जैसे जो प्यारे पुत्र जो गर्भस्थल में विद्यमान रहते हैं, उनकी एक रुवेणकेतु नाम की नाड़ी होती है जो माता के रसना और ब्रह्मरंध्र से वह नाड़ी चलती है और बालक का जो ब्रह्मरंध्र होता है उस नाड़ी से उसका सम्बन्ध होता है। जब यदि माता जागरूक रहती है, तो उस नाड़ी में रस आता है। प्राणवर्धक जो किरणे आ रही है, उनमें सूक्ष्मता हो जाती है इसलिए माता को उस काल में प्रायः जागरूक रहना चाहिए और माता को गायत्री और 'माँ कृतियों' का और प्रभु का चिंतन करना चाहिए।
देवर्षि नारद मुनि ने यह कहा कि 'पृथिव्यां देवः प्रमाणस्वहेः' यदि सूर्य की किरण और चन्द्रमा की 'त्रातकेतु' और 'राहु' और 'केतु' दोनों की धाराएं मिलकर यदि पृथ्वी में आवेश करती है तो पृथ्वी विष बनाने लगती है। यह जो पृथ्वी विष बनने लगती है तो उसके शोधन के लिए गृह से याग होते हैं। यागों का अभिप्राय यह कि सुगंध होना। विचारों की सुगन्धि देना और उस समय पदार्थों की सुगन्धि देना बहुत अनिवार्य हो जाता है। उस समय दिवस की रात्रि बन जाती है और उस दिवस की रात्रि बन जाने से दोनों की आभा में अन्तर्द्वन्द आ जाता है। तो इसलिए पृथ्वी को सुगन्धित करना यह मानव का कर्त्तव्य कहलाया जाता है।
नारद जी ने यह कहा है, पुत्र! हे ध्रुव! वह जो राहु और केतु का जो जीवन से सम्बन्ध है, यह बाल्यकाल में होता है। परन्तु बाल्यकाल में माता के गर्भस्थल में, और रहा यह कि जब दिवस की रात्रि बन जाती है तो नेत्रों को, क्योंकि नेत्रों का सम्बन्ध सूर्य से होता है, प्रकाश देता है। जहाँ तक पदार्थवाद का सम्बन्ध है, वह सब नेत्रों में जो प्रकाश आता है, दृष्टिपात कर रहा है, व्यापार कर रहा है, और सूर्य से जो नाना प्रकार की किरणें इन नेत्रों को प्रभावित कर रही हैं और यदि दूषित किरणें हो जाएँ, वे अप्रोत हो जाएँ। राहु और केतु की किरणों के द्वारा ऐसा प्रायः होता है कि नेत्रों में कुछ कृति की सूक्ष्मता हो करके ज्योति का सन्देह बना रहता है। तो इसलिए हमें उससे सावधान अथवा सतर्क रहना चाहिए।
नारद मुनि कहते हैं कि मानव के नेत्रों का सम्बन्ध सूर्य से होता है। और सूर्य से जब, क्योंकि वहीँ तक होता है जहाँ तक सूर्य की सीमा होती है। वास्तव में तो नेत्रों का सम्बन्ध आत्मा से रहता है। परन्तु आत्मा से समन्वय होने के कारण तो उसकी धाराएँ पृथ्वी पर प्रदीप्त रहती हैं और उसका आत्मा से समन्वय होता है। विचार आता है कि हमें आत्मा को जानना है और आत्म-चिंतन करना है, प्रत्येक मानव के द्वारा। हम तो परम्परा से यही कहा करते हैं कि मानव के जीवन का जितना भी समन्वय है, वह आत्म-चिंतन लगा रहता है। कितना भी मानव प्रयत्न करता रहे, कितना भी संसार में मानव विलासिता में चला जाए, ममता में चला जाए, किसी भी क्षेत्र में चला जाये, परन्तु जब आत्म चिंतन का समय आता है, आत्म-चिंतन का समय आता है, तो आत्मा उसके लिए समय-समय पर प्रेरणा देता रहता है अथवा उसे बाध्य करता रहता है। इसलिए आत्मा से मानव के जीवन का समन्वय होता है। भौतिक जितना भी पिंड है (यह शरीर है), महान धाराओं से इसकी रचना है, तो इसलिए इसका उन धाराओं से समन्वय रहता है। राहु और केतु का जो सम्बन्ध है वह मानव के जीवन से और प्रायः माता की नस-नाड़ियों से भी होता है। तो इसलिए, हमें विचार करना चाहिए, चिंतन करना चाहिए। रहा यह कि सूर्य की आभा में कहीं चन्द्रमा आ गया है, कहीं चन्द्रमा की आभा में सूर्य आ गया है, देखो यह कोई ऐसा वाक्य नहीं है। यह तो सदैव बना ही रहता है। मानव के इस वायुमंडल का जितना समन्वय मानव के विचारों से रहता है, इतना ग्रह की गतियों से नहीं होता क्योंकि ग्रह की गति प्रायः होती रहती है। वे तो अपनी गतियों से रमण करते रहते। हैं वह प्रभु का नियम है। वे अपने नियम के आधार पर प्रायः गति करते रहते हैं।
आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
देवर्षि नारद मुनि ने यह कहा कि 'पृथिव्यां देवः प्रमाणस्वहेः' यदि सूर्य की किरण और चन्द्रमा की 'त्रातकेतु' और 'राहु' और 'केतु' दोनों की धाराएं मिलकर यदि पृथ्वी में आवेश करती है तो पृथ्वी विष बनाने लगती है। यह जो पृथ्वी विष बनने लगती है तो उसके शोधन के लिए गृह से याग होते हैं। यागों का अभिप्राय यह कि सुगंध होना। विचारों की सुगन्धि देना और उस समय पदार्थों की सुगन्धि देना बहुत अनिवार्य हो जाता है। उस समय दिवस की रात्रि बन जाती है और उस दिवस की रात्रि बन जाने से दोनों की आभा में अन्तर्द्वन्द आ जाता है। तो इसलिए पृथ्वी को सुगन्धित करना यह मानव का कर्त्तव्य कहलाया जाता है।
नारद जी ने यह कहा है, पुत्र! हे ध्रुव! वह जो राहु और केतु का जो जीवन से सम्बन्ध है, यह बाल्यकाल में होता है। परन्तु बाल्यकाल में माता के गर्भस्थल में, और रहा यह कि जब दिवस की रात्रि बन जाती है तो नेत्रों को, क्योंकि नेत्रों का सम्बन्ध सूर्य से होता है, प्रकाश देता है। जहाँ तक पदार्थवाद का सम्बन्ध है, वह सब नेत्रों में जो प्रकाश आता है, दृष्टिपात कर रहा है, व्यापार कर रहा है, और सूर्य से जो नाना प्रकार की किरणें इन नेत्रों को प्रभावित कर रही हैं और यदि दूषित किरणें हो जाएँ, वे अप्रोत हो जाएँ। राहु और केतु की किरणों के द्वारा ऐसा प्रायः होता है कि नेत्रों में कुछ कृति की सूक्ष्मता हो करके ज्योति का सन्देह बना रहता है। तो इसलिए हमें उससे सावधान अथवा सतर्क रहना चाहिए।
नारद मुनि कहते हैं कि मानव के नेत्रों का सम्बन्ध सूर्य से होता है। और सूर्य से जब, क्योंकि वहीँ तक होता है जहाँ तक सूर्य की सीमा होती है। वास्तव में तो नेत्रों का सम्बन्ध आत्मा से रहता है। परन्तु आत्मा से समन्वय होने के कारण तो उसकी धाराएँ पृथ्वी पर प्रदीप्त रहती हैं और उसका आत्मा से समन्वय होता है। विचार आता है कि हमें आत्मा को जानना है और आत्म-चिंतन करना है, प्रत्येक मानव के द्वारा। हम तो परम्परा से यही कहा करते हैं कि मानव के जीवन का जितना भी समन्वय है, वह आत्म-चिंतन लगा रहता है। कितना भी मानव प्रयत्न करता रहे, कितना भी संसार में मानव विलासिता में चला जाए, ममता में चला जाए, किसी भी क्षेत्र में चला जाये, परन्तु जब आत्म चिंतन का समय आता है, आत्म-चिंतन का समय आता है, तो आत्मा उसके लिए समय-समय पर प्रेरणा देता रहता है अथवा उसे बाध्य करता रहता है। इसलिए आत्मा से मानव के जीवन का समन्वय होता है। भौतिक जितना भी पिंड है (यह शरीर है), महान धाराओं से इसकी रचना है, तो इसलिए इसका उन धाराओं से समन्वय रहता है। राहु और केतु का जो सम्बन्ध है वह मानव के जीवन से और प्रायः माता की नस-नाड़ियों से भी होता है। तो इसलिए, हमें विचार करना चाहिए, चिंतन करना चाहिए। रहा यह कि सूर्य की आभा में कहीं चन्द्रमा आ गया है, कहीं चन्द्रमा की आभा में सूर्य आ गया है, देखो यह कोई ऐसा वाक्य नहीं है। यह तो सदैव बना ही रहता है। मानव के इस वायुमंडल का जितना समन्वय मानव के विचारों से रहता है, इतना ग्रह की गतियों से नहीं होता क्योंकि ग्रह की गति प्रायः होती रहती है। वे तो अपनी गतियों से रमण करते रहते। हैं वह प्रभु का नियम है। वे अपने नियम के आधार पर प्रायः गति करते रहते हैं।
आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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