शनिवार, 28 जनवरी 2017

संगीत का जीवन में महत्व व तबले का जन्म

संगीत का जीवन में महत्व व तबले का जन्म



संगीत से चंचल मन एकाग्र चित्त होता है तथा संगीत एक भक्ति करने की कला है। संगीत के द्वारा हम भगवान का ध्यान आसानी से लगा सकते हैं। प्राचीन काल में ऋषि मुनियों ने संगीत के द्वारा ही भक्ति रस प्राप्त किया है। आज (आधुनिक काल में) भी हमारे जीवन में संगीत का अत्यधिक महत्व है। भक्ति संगीत के द्वारा ही हम आजकल भक्ति करते लोगों को अधिकता से देखा करते हैं जैसे - माँ भगवती का जागरण, कृष्ण व राम के भजन हम संगीत के माध्यम से गाते बजाते हैं जिसमें शास्त्रीय संगीत का प्रयोग भी किया जाता है। इस शास्त्रीय संगीत का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। शास्त्रीय संगीत में रागों को गाने-बजाने से भी संगीत को आगे ले जाया जा रहा है। विशेष रूप से शास्त्रीय संगीत ही संगीत की नींव है।

भारतीय संगीत में गायन, वादन तथा नृत्य के साथ लय-ताल संबधी वाद्यों का प्रयोग अत्यंत प्राचीन काल से होता चला आ रहा है। उप्लब्ध प्राचीन संगीत के इतिहास में इन वाद्यों का प्रयोग हमें कही-कहीं देखने को मिलता है। पौराणिक कथाओं में भी ऐसे वाद्यों की चर्चा हुई है। प्राचीन काल के जिन ताल संबंधी वाद्यों का उल्लेख मिलता है उनमें आघाती, आदम्बर, वानस्पति, भेरी, दर्दुर, ढोल, नगाड़ा तथा मृदंग आदि मुख्य हैं। मृदंग या पखावज का तो प्रयोग आज भी कभी-कभी देखने को मिलता है और ढोलक का प्रयोग उत्तर भारत के लोक गीतों के साथ खूब किया जाता है। आधुनिक युग के ताल संबंधी वाद्यों में सबसे प्रमुख स्थान तबले को प्राप्त है। इसकी उत्पत्ति के विषय में अनेक मत हैें। कुछ विद्वानों के अनुसार प्राचीन काल के दुर्दुर नामक वाद्य का आधुनिक रूप तबला है। कुछ लोग तबले के जन्म का संबंध फारस के वाद्य तब्ल या तबल से जोड़ते हैं। तब्ल फारसी का शब्द है। जिसका अर्थ संदूकची है, पिटारी या खाल से मढ़ा हुआ एक पक्षीय वाद्य है। आधुनिक दाहिने-बाँये की जोड़ी तबला का इससे संबंध जोड़ना उचित नहीं है। कुछ अन्य लोगों के अनुसार यवनों ने भारतीय वाद्य पखावज को दो टुकड़ों में काटकर तबला और डग्गे का निर्माण किया। यह कथन भी अस्वाभाविक जान पड़ता है, क्योंकि कोई वाद्य बीच से कट जाने के बाद वादन के योग्य नहीं रह जाता।

कुछ लोग तबला का संबंध प्राचीन काल के ऊध्र्वक, दर्दुर तथा अन्य आकृति वाले वाद्यों से जोड़ते हैं, परंतु उन वाद्यों की वादन पद्धति का विवरण प्राप्त न होने के कारण उनसे तबले का संबंध जोड़ना उचित नहीं जान पड़ता।

बहुत से लोगों की यह धारणा है कि बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के राज्यकाल के प्रसिद्ध फारसी कवि अमीर खुसरो ने तबला वाद्य को निर्माण दिया। इतिहासकारों और शोधकर्ताओं ने इसका सभी का खंडन किया है, क्योंकि अमीर खुसरो का समय तेरहवीं शताब्दी माना जाता है और उसके बाद के किसी ग्रंथों में तबला वादक या तबला वाद्य की चर्चा तक नहीं मिलती। अतः तबले का इतना प्राचीन होना प्रमाणित नहीं होता।

उत्तरी भारत के पूर्व मध्य युग में ध्रुवपद-ध्मार जैसे गंभीर गायन शैली का प्रचार था, जिसके साथ पखावल का प्रयोग किया जाता था। परंतु उसके पश्चात् उत्तर भारत में राज्य परिवर्तन हुआ। मुगल बादशाहों के हाथ में शासन की बागडोर गई और धीरे-धीरे लोगों की मानसिक तथा सामाजिक परिस्थितियों में परिवर्तन होने लगा। उसके प्रभाव से संगीत अछूता न रह सका। जौनपुर के सुल्तान हुसेन शर्की ने बड़े ख्याल को तथा अमीर खुसरो ने कव्वाली के आधार पर छोटे ख्याल को जन्म दिया, जो ध्रुवपद गायन की अपेक्षा कहीं अधिक कोमल तथा मधुर गायन शैली था। उस नवीन गायकी के साथ पखावज जैसे गंभीर तथा जोरदार वाद्य का बजाया जाना उपयुक्त न था। फलस्वरूप किसी मधुर ताल वाद्य की आवश्यकता पड़ी और संभवतः उसी आवश्यकता ने तबले को जन्म दिया।

उपरोक्त विवरण की पुष्टि में आचार्य कैलाश चन्द्र देव बृहस्पति का यह मत विचारणीय है- संगीत प्रिय बादशाह महम्मद शाह रंगीले के समय में एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ नियामत खाँ थे, तो अपने उपनाम सदारंग के नाम से प्रसिद्ध हुए। इन्हीं के छोटे भाई का नाम खुसरो खाँ था। तबले के अविष्कार का श्रेय इस खुसरो खाँ को है, जिनका समय 1719 से 1748 ई0 के आस पास का है। यह मुहम्मद शाह रंगीले के राज्य का है।

एक अन्य विद्वान के अनुसार मुगल बादशाह मुहम्मद शाह (दूसरे) (समय 1738 ई0 के आसपास) के समय एक प्रसिद्ध पखावज वादक हुए, उनका नाम रहमान खाँ था। उनके दूसरे पुत्र का नाम अमीर खुसरो था। जिन्होंने सदारंग से कुछ समय तक ख्याल गायन की शिक्षा ली और इस गायन शैली की संगति के लिये ही उन्होंने तबला नामक एक अधिक उपयुक्त वाद्य का निर्माण किया।

ऊपर दिये गये तथ्यों के अनुसार तबला निर्माण का समय 18 वीं शताब्दी के पूर्वाद्र्ध में माना जाना चाहिए और उसका आधार वाद्य पखावज ही स्वीकार करना चाहिए। इस नव-निर्मित वाद्य में अनेक सुधार करने का श्रेय सिद्धार खाँ नामक कलाकार को जाता है। उन्होंने ही पखावज के बोलो को तबले पर बजाये जाने योग्य परिवर्तित किया। दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन तबले के वाम-भाग (डग्गा) में पक्की स्याही का प्रयोग करके किया। पहले पखावज के बाँये के समान तबले के बाँये या डग्गे में भी गुँथा हुआ आटा लगाया जाता था। उसका परिणाम यह होता था कि ढोलक के समस्त अंगों का तबले पर प्रदर्शन संभव हो गया। उस्ताद सिद्धार खाँ के शिष्यों और पुत्रों ने तबला-वादन की शैली को आगे बढ़ाया और तबले के प्रथम घराना दिल्ली घराने की नींव डाली।


- श्री राधेश्याम शर्मा

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