सोमवार, 30 जनवरी 2017

चाणक्य नीति

ओ३म्

चाणक्य नीति से कुछ मोती 


शत्रु, मित्र व उदासीन इन तीन को साम, दाम, दंड व भेद इन चार से वश में करें।



साम नीति: किसी के गुणों की प्रशंसा करना साम कहलाता है।

भाइयों बहनों दूसरे के एक गुण की प्रशंसा करने पर भी उसका रझान आप की ओर हो जाता है। अर्थात् इस नीति से किसी को भी अपने वश में किया जा सकता है ।

जिस आचार्य चाणक्य ने अपना अपना अपमान होने पर पाकिस्तान से भी बड़े राजा  घनानन्द के राष्ट्र का सर्वनाश कर दिया था। उनही की नीतियाँ हैं ये । इनको कन्ठस्थ कर लें तो आप भी ऐसे बन जाओगे ।

साम अर्थात् किसी के गुणों का गुणानुवादन। सबसे पहले अपने इष्ट मित्रों पर इसका उपयोग करें और प्रभाव को महसूस करें। यह प्रैक्टिकल होगा। हाँ प्रयोग करते समय व्याख्या न करें कि हम तुम पर साम नीति चल रहे हैं। फल मिलेगा। विदुर जी ने इसे अत्युत्तम नीति बताया है।


प्रश्न: साम किसे कहा जाता है.??

पहली बार कब साम शब्द का प्रयोग किया गया था.?

उत्तर:साम का अर्थ है गुण गान अर्थात् किसी के गुणों की प्रशंसा में बोलने वाले शब्द चाहे वे कसीदे हों या गद्य में। आज से १,९७,२९,४९,११६ वर्ष पहले परमात्मा ने सूर्य व पृथ्वी बनाए। १,९६,०८,५३,११६ वर्ष पहले परमात्मा ने मानव जाति का पृथ्वी पर जन्म दिलाया। तभी वेद भी दिये। सामवेद में औषधि, सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी आदि व परमात्मा की प्रशंसा अर्थात् गुणानुवादन किया गया है अतः यह शब्द तभी प्रथम बार प्रयोग हुआ। लगभग दो अरब वर्ष पहले ।

दाम नीति: वस्त्र आभूषण आदि से स्त्रियों को तथा उपहार आदि से सभी को प्रसन्न रखना।। आदि।।

भेद नीति: अपने मित्रों को अपने से अलग न होने देना  तथा एक दूसरे की अच्छाई व बुराई आदि बता कर के दो शत्रुओं को आपस में संधि न होने देना जिससे कहीं दुष्ट शत्रु अधिक बलवान न बनने पाए  ।।

ये दोनों नीतियां महात्मा विदुर ने मध्यम श्रेणी की बताई हैं।  यदि उत्तम साम नीति से काम न चले तब ही इन्हें प्रयोग करना चाहिए।

समय समय पर हमारे यहाँ गिफ्ट करने की प्रथा है यह भी दाम नीति का अंग पारम्परिक रूप से समाज में प्रचलित है। हमें समय समय पर धन, उपहार, ज्ञान व धन दान आदि करके इच्छित शत्रु मित्र वा उदासीन को अपने वश में रखना चाहिए ।

कहते हैं समझदार को इशारा ही काफी है इसलिए इतने को ही आप विस्तार कर लेंगे यह उम्मीद है। इन नीतियों को परमात्मा ने वेद में कहा है सृष्टि के प्रारंभ से चली आ रही हैं।

भेद नीति के तहत अपने मित्रों को किसी अन्य से मित्रता अधिक न बढ़ाने देवें फूट डालकर मित्रों को अपने अधीन रखें।

शत्रुओं के बीच में फूट डाल देना चाहिए जिससे वे आप से बलवान न होने पाएँ। शत्रु को अपने शत्रु से मिलने ना दें इस नीति की सहायता से ।

दंड नीति: मित्र आदि भी यदि धर्म विरुद्ध कभी चलें तो उनको यथार्थ दंड़ देकर उनकी नित्य उन्नति कराना ।
दुष्ट शत्रु को परिस्थिति अपने पक्ष में होने पर दंड देकर उसे सबक सिखाना ।।

हाथ में आए दुष्ट शत्रु को यथोचित दंड दिये बिना न छोड़ना।

महात्मा विदुर जी ने इस दंड को अधम नीति बताया है। उत्तम साम, मध्यम दाम व भेद तथा दंड अधम कोटि का है।



शत्रु को पराजित करने की विधि ६ हैं - आसन, यान, संधि, विग्रह, द्वैति भाव व समाश्रय  १- आसन वह यह है  ....


१- आसन ... अर्थात् चुप्पी साध लेना ।। यदि शत्रु आदि से कम बल हो तो भी अधिक हो तब भी उचित समय का इंतजार करें और मौन बल का प्रयोग करें यही आसन है  इसका तोड़ नहीं।।

२-यान -उचित अवसर तथा अपना बल दुष्ट शत्रु से दुगना चौगुना होने पर आक्रमण कर के उसे जीत लेना।। हाथ में आये दुष्ट शत्रु को अवश्य ही यथोचित दंड देना चाहिए।।

३- संधि -शत्रु से मित्रता कर लेना परंतु अपने शुभ गुण तथा शुभ नियमों से कभी न भटकना।।

४- विग्रह - अपने पास पर्याप्त बल एकत्र हो जाने पर या दुष्टता बढ़ जाने पर शत्रु से संधि तोड़ लेना।।
चुप रह कर अपना बल बढ़ाते रहना। हमारी चुप्पी के कारण हमारा दुष्ट शत्रु एक्टिव रहेगा और ईर्ष्या, भय, अधिक चिन्तन के कारण अपना बल खोता रहेगा इधर हम शान्त व प्रसन्न रहकर इस नीति को प्रयोग करें तो हमारा बल उससे कई गुना हो सकता है।

परिस्थिति अनूकूल न होने तक आसन प्रयोग करें ।

जब बल की मात्रा अपने पक्ष में हो तब ही यान प्रयोग करें पहले नहीं। शत्रु की बल-कमजोरी अर्थात् बलाबल को जान इस प्रकार आक्रमण कर उसे वश में करें कि निश्चित तौर पर जीत  ही हो वरना यान प्रयोग न करें।

यदि दुष्ट शत्रु सदाचार पर चले व धर्म विरोध न करता हो तो उससे मित्रता कर लेवें अर्थात् संधि ।

कुछ विशेष परिस्थितियों में भी मित्रता कर लेवें। यह गूढ़ विषय है।

दुष्ट शत्रु से संधि अधिक नहीं चलती। साम दाम आदि नीतियां जारी रखें।। उसकी दुष्टता बढ़ने पर व अनुकूल परिस्थितियां देख कर विग्रह कर लें।

अर्थात् संधि तोड़ लेवें!!!

५- द्वैतिभाव- भीतर से शत्रुता व बाहर से मित्रता रखना।।

६- समाश्रय-समाश्रय का अर्थ है अपने दुष्ट शत्रु से बलवान पुरुष या शत्रु के बलवान शत्रु की शरण ले लेना।


आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव आर्यन 

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