सोमवार, 30 जनवरी 2017

तीन तत्वों (प्रभु, प्रकृति व आत्मा) को जान, उपासना करने का फल

ओ३म्


तीन तत्वों (प्रभु, प्रकृति व आत्मा) को जान, उपासना करने का फल

विनाशशील जड़वर्ग जिसे भगवान् की अपरा प्रकृति तथा क्षरतत्व कहा गया है और भगवान् की परा प्रकृतिरूप जीवसमुदाय, जो अक्षरतत्व के नाम से पुकारा जाता है- इन दोनों के संयोग से बने हुए, प्रकट (स्थूल) और अप्रकट (सूक्ष्म) रूप में स्थित इस समस्त जगत् का वे परमपुरुष पुरुषोत्तम ही धारण-पोषण करते हैं, जो सबके स्वामी, सबके प्रेरक तथा सबका यथायोग्य संचालन और नियमन करनेवाले परमेश्वर हैं। जीवात्मा इस जगत् के विषयों का भोक्ता बना रहने के कारण प्रकृति के अधीन हो इसके मोहजाल में फँसा रहता है, उन परमदेव परमात्मा की ओर दृष्टिपात नहीं करता। जब कभी यह उन सर्वसुह्रद् परमात्मा की अहैतुकी दया से महापुरुषों का संग पाकर उनको जानने का अभिलाषी होकर पूर्ण चेष्टा करता है, तब उन परमदेव परमेश्वर को जानकर सब प्रकार के बंधनों से सदा के लिए मुक्त हो जाता है।

ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान हैं, जीव अल्पज्ञ और अल्प शक्तिवाला है, ये दोनों ही अजन्मा हैं। इनके सिवा एक तीसरी शक्ति भी अजन्मा है जिसे प्रकृति कहते हैं, यह भोक्ता जीवात्मा के लिए उपयुक्त भोगसामग्री प्रस्तुत करती है। यद्यपि ये तीनों ही अजन्मा हैं- अनादि हैं, फिर भी ईश्वर शेष  दो तत्वों से विलक्षण हैं, क्योंकि वे परमात्मा अनन्त हैं। सम्पूर्ण विश्व उन्हीं का स्वरूप - विराट् शरीर है। वे सब कुछ करते हुए- सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति, पालन और संहार करते हुए भी वास्तव में कुछ नहीं करते, क्योंकि वे कर्तापन के अभिमान से रहित हैं। मनुष्य जब इस प्रकार इन तीनों की विलक्षणता और विभिन्नता को समझते हुए ही इन्हें ब्रह्मरूप में उपलब्ध कर लेता है अर्थात् प्रकृति और जीव तो उन परमेश्वर की प्रकृतियाँ हैं और परमेश्वर उनके स्वामी हैं- इस प्रकार प्रत्यक्ष कर लेता है तब वह सब प्रकार के बंधनों से मुक्त हो जाता है।

प्रकृति तो क्षर अर्थात् परिवर्तन होनेवाली, विनाशशील है और इसको भोगनेवाला जीव-समुदाय अविनाशी अक्षरतत्व है। इन क्षर और अक्षर (जड़ प्रकृति और चेतन जीव-समुदाय) - दोनों तत्वों पर एक परमदेव परमेश्वर शासन करते हैं, वे ही प्राप्त करने के और जानने के योग्य हैं, उन्हें तत्वों से जानना चाहिए - इस प्रकार दृढ़ निश्चय करके उन परमदेव परमात्मा का निरंतर ध्यान करने से, उन्हीं में रात-दिन संलग्न रहने और उन्हीं में तन्मय हो जाने से अन्त में यह उन्हीं को पा लेता है। फिर इसके सम्पूर्ण माया की सर्वथा निवृत्ति हो जाती है, अर्थात् मायामय जगत् से इसका संबंध सर्वथा छूट जाता है।


साभार - ‘श्वेताश्वतरोपनिषद् ।।1।8-9-10।।

आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव आर्यन्

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