महाभारत काल के बाद का आर्यावर्त : भाग - 7
गोस्वामी तुलसीदास
जब यवनों ने विद्यालय समाप्त कर दिये तो यहाँ गोस्वामी तुलसीदास जी आ गये। उन्होंने पुरुषार्थ किया और विद्या का कुछ प्रसार किया, बिचारे इतने बुद्धिमान तो थे नहीं, परंतु काव्य उनको बहुत सुंदर था। काव्य सुंदर होने के नाते उनकी वात्र्ताओं को समाज ने स्वीकार कर लिया, धर्म का प्रचार प्रारंभ होने लगा।
महात्मा नानक
महात्मा नानक ने क्या ही सुदर एक वाक्य कहा कि जो रक्त का मानव के वस्त्र पर एक चिन्ह लग जाता है तो वह जल से क्या नाना प्रयत्न करो परंतु वह जाता नहीं। आज मानव के अन्तःकरण में, मानव के ह्रदय में जब किसी का रक्त जाता है तो क्या उसका चिन्ह मानव के ह्रदय में नहीं होता? वह किसी भी काल में नष्ट हो सकता है?
महात्मा नानक ने मानव बल को उँचा बनाया। अपने प्यारे शिष्यों को एक नाद दिया कि धर्म की रक्षा करो। तुम्हारे केश जाएं या न जाएं परंतु धर्म की रक्षा करो। आज तुम्हें भी रक्षा करने की शिक्षा दे रहा हँू, महात्मा नानक के अनुयायियो ने धर्म की रक्षा की। यवनों द्वारा जब वीर बन्दा बैरागी के शरीर को नोचा जा रहा था तो वह मग्न हो रहा था और क्यों मग्न हो रहा था कि मैं धर्म पर अपने मानव जीवन को नष्ट कर रहा हूँ जिससे मुझे काई शोक नहीं है। अरे! यह थी उन महात्माओं की एक महान चिन्हता। हम उन्हीं के पद चिन्हों पर चलें जिससे हमाने मानवत्व में उच्चता आती चली जाये और हमारा जीवन विशाल बनता चला जाए।
आज मैं विशेष चर्चा प्रकट करने नहीं आया हूँ केवल गुरुदेव को यह उच्चारण करने आया हूँ कि यहाँ कैसे कैसे महान व्यक्ति हुए। देखो, महात्मा (गुरू) गोविंद सिंह हुए, जिनका आदर्श कितना उँचा था, दोनों को धर्म रक्षा के लिए यवनों द्वारा दीवार में चिनवा दिया। आज के इस राष्ट्र का क्या बनेगा जो स्वार्थ में इतना बहता चला जा रहा है। एक समय यह आयेगा जब यह स्वार्थ तुम्हारे लिए विष का कार्य करता चला जाएगा। क्या स्वार्थ है, जो दूसरों को नष्ट करने की भावना तुम्हारे अन्दर आ चुकी है? इसे अपने ह्रदय से दूर कर दो।
महर्षि दयानन्द
भगवन उसके बाद अभी सौ वर्ष भी नहीं हुए हैं, जब यहाँ एक दयानन्द नाम के आचार्य आ पहुँचे। जब उन्होंने संसार को इस प्रकार का देखा तो क्या किया? गुरुदेव! हमने तो कुछ ऐसा अनुभव किया है कि द्वापर काल के जो महर्षि अटूटी (महर्षि शमीक मुनि) थे, उनकी आत्मा ने आ करके दयानन्प्द के शरीर में प्रवेश किया। संसार बड़ा अधोगति में चला जा रहा था। उन्होंने अपने माता पिता का ऐश्वर्य त्याग दिया और पूर्व ऋषियों का जो मार्ग था, उसे अपनाया। जैसे शंकराचार्य ने पूर्व महान आत्माओं के कथन को अपनाया, ऐसे ही इस महान दयानंद ने यहाँ आ करके संसार में ज्ञान का प्रसार किया। वह नाना मूर्ति पूजकों के समक्ष पहुँचे, उनसे शास्त्रार्थ किया और पराजित किया। जैसे शंकराचार्य के उपर बड़ी-बड़ी महान् विपत्तियाँ आयीं, इसी प्रकार दयानन्द के समक्ष भी आयीं। पूर्व जन्म के ऋषि होने के नाते इस संसार का उत्थान करने के लिए, परमात्मा के नियमों का पालन करने के लिए वह संसार में आए थे और नाना पर्वतों में भ्रमण कर उन्होंने वेद की विद्या को खोजा। जहाँ भी वेद की विद्या मिली उसे ग्रहण करके, उन्होंने वेद की विद्या का प्रसार किया, उन्होंने उन शास्त्रों की वार्ताओं को अपनाया जिन्हें हमारे जैमिनी मुनि ने, हमारे गुरु ब्रह्मा आदि सबने अपनाया था। स्वामी शंकराचार्य ने जिस मत और जिस दार्शनिक विषय को माना, वहीं मान करके उंन्होंने इस संसार में उसका पुनः प्रसार आरंभ कर दिया। जो मानव समझ नहीं पाते, वे उन्हें न समझे। परंतु वह वेद क विद्या के एक बहुत ही उँचे महान विद्वान माने गये हैं।
शेष भाग अगली कड़ी में
गोस्वामी तुलसीदास के विषय में अंग्रेजी में पढ़ें
महात्मा नानक के विषय में अंग्रेजी में पढ़ें
स्वामी दयानंद के विषय में अंग्रेजी में पढ़ें
आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
श्रीमान, 1. पहली बात: यह "जो रक्त का मानव के वस्त्र पर एक चिन्ह लग जाता है तो वह जल से क्या नाना प्रयत्न करो परंतु वह जाता नहीं। आज मानव के अन्तःकरण में, मानव के ह्रदय में जब किसी का रक्त जाता है तो क्या उसका चिन्ह मानव के ह्रदय में नहीं होता? वह किसी भी काल में नष्ट हो सकता है?" जो आपने कहा है, यह बिलकुल ही गलत है, गुरु नानक जी इस प्रकार के पाखंड को कभी स्वीकार नहीं करते|
जवाब देंहटाएंआप उनकी वाणी पढ़ें जिससे आपको उनकी विचारधारा का वास्तविक ज्ञान प्राप्त हो| श्री गुरु ग्रन्थ जी के पन्ना नंबर 1289 पर गुरु जी की एक वृहद रचना में गुरु जी ने किसी कर्मकांडी ब्राह्मण से वार्तालाप के मध्य, मांस के संबंध में अपने विचारों को स्पष्ट करते हुए कहते हैं, कि यदि किसी पशु का रक्त हमारे कपड़ों में लग जाए तो हम उसे मलीन समझ कर तब तक नहीं पहनते जब तक वह कपड़ों से छूट न जाए, परन्तु जो व्यक्ति मनुष्य हो कर मनुष्यों का रक्तपान करते हैं उनका चित्त कैसे निरमल हो सकता है? वे आगे कहते हैं कि यदि मांस खाने से जीव हत्या का पाप लगता है, तो पेड़ पौधों, फसलों आदि में भी जीव है, गाय, भैंस का दूध पीना भी जीव हत्या है क्योकि वह मनुष्य के लिए नहीं अपितु उसके बछड़े के लिए है, तो जो मनुष्य किसी पशु का दूध पीता है वह सबसे बड़ा हत्यारा है क्योकि वह किसी दूसरे का अधिकार छीन रहा है|
2. दूसरी बात: "म्हारे केश जाएं या न जाएं परंतु धर्म की रक्षा करो। आज तुम्हें भी रक्षा करने की शिक्षा दे रहा हँू," यह आप तथ्य को जानबूझ कर तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत कर रहे हैं| गुरु नानक जी के अनुयायी के लिए केशों का सम्मान भी धर्म रक्षा के समान ही है, यानि कि जो स्वयं के विचारों की स्वयं के चिन्हों की ही रक्षा नहीं कर सकता, वह दूसरों अथवा धर्म की रक्षा क्या ख़ाक करेगा|
3. अंतिम एवं तीसरी बात: गुरु नानक जी एवं उनके 9 नौ परवर्ती गुरुओं में आज की तरह अंध राष्ट्रभक्ति नहीं थी और न ही उनकी उपदेशनाओं में तथाकथित देशभक्ति को कोई स्थान ही है| वे सार्वभौमिक थे/हैं, उनके लिए पूरी स्रष्टि ही उनका राष्ट्र है, वे केवल भारत और भारत के लोगों के लिए ही नहीं जीए बल्कि वे तो संपूर्ण मनुष्यता के कल्याणनार्थ जीए और संघर्ष किया|
Dear Brother Lakhvinder Ji, Everything what I wrote is absolutely correct. This one thing don't oppose your religion too. Actually the delivered sermon I copied as it is. Delivered by a Jivan Mukt soul I.e. Mahanand Muni is the speech who has seen Mahatma Nanak by himself. So he can not make any mistake at all. See your book again. Thanks for commenting. He praised Nanak Ji at all.
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