जैसा कि आप जानते हैं कि हमारे धर्म में बहुत से देवताओं की पूजा होती है. मेरे ज्ञान के अनुसार केवल एक ही महाशक्ति परमात्मा नाम की होती है. और अन्य इतनी अधिक विलक्षण आत्माएं होती हैं जो कि संसार में अपने महान कर्मों से देवता कहलाई जाती हैं. और भगवान के नाम से संसार इन्हें पुकारता है.
सर्वशक्तिमान और सर्वव्यापी प्रभु तो केवल एक ही है. और मैं उसकी उसी प्रकार पूजा करता हूँ जैसे कि उन महान ज्ञानवान जिनकी आत्मा इतनी पवित्र और बलवान थी और उन्हें भगवान ने ऐसे चमत्कारिक गुणों को दिया था कि उनको भी भगवान नाम से जाना जाता है संसार में, ने की थी.
राम, कृष्ण, शिव और हनुमान आदि उस के इतने इतने निकट थे कि उसने उनको बहुत सी शक्तियां प्रदान की थीं. जो शक्तियां साधारण मानव के द्वारा प्राप्त करना संभव नहीं है. राम और कृष्ण की आत्माएं वह थीं जो कि मुक्ति के बिलकुल निकट की थीं. उन्होंने संसार की स्थिति सुधारने के लिए ही जन्म धारण किया था. आप को यह जानकार बहुत आश्चर्य होगा कि हमारी इस सृष्टि के प्रथम मनु ने ही भगवान कृष्ण के रूप में जन्म लिया था.
वास्तव में कृष्ण जी दो प्रकार के योग में पारंगत थे. पहला तो वहीं महान पवित्र योग और द्वितीय भृष्ट योग. प्रथम योग के द्वारा जो कि पूर्ण सत्य पर आधारित होता है, भगवान कृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को विराट रूप दिखाया था. यह रूप कोई भी महान योगी दिखा सकता है. जिसमें वह अपने शरीर में ही पूरे ब्रह्माण्ड के दर्शन करा देता है.
अब मैं भृष्ट योग के प्रयोग से सम्बंधित एक कथानक प्रस्तुत कर रहा हूँ. जो हमारे धर्म ग्रंथों में मिलता है. और बिलकुल सत्य है.
एक बार पांडवों के वनवास के काल में माता द्रोपदी को एक बटलोही प्राप्त हुई(यह विज्ञान ही की खोज थी. यह उन्होंने एक ऋषि से प्राप्त की थी) [वास्तव में ऋषि वे पवित्र लोग होते हैं जो अध्यात्मिक और भौतिक दोनों ही विज्ञानों में पारंगत होते हैं.] इस बटलोही की यह विशेषता थी कि उसमें तब तक भोजन बनना बंद नहीं होता था जब तक द्रोपदी स्वयं भोजन न कर ले . इस बटलोही की सहायता से युधिष्ठिर वनों में ही महान यज्ञ कर रहे थे. जहाँ बहुत से ऋषि मुनि व साधू भोजन करने और उनको दर्शन देने के लिए नित्य आया करते थे. जब दुर्योधन को इस यज्ञ के बारे में पता चला कि युधिष्ठिर साधुओं की भोजन के द्वारा सेवा किया करता है तो उसने विचारा कि यह कैसे संभव है और ईर्ष्या से भर गया. उसने अपने मन में एक योजना बनाई और दुर्वासा मुनि को आमंत्रित किया जो कि अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे. इस गुण की वजह से वह बहुधा लोगों को श्राप दे दिया करते थे. उसने दुर्वासा का बहुत उच्च रीति से स्वागत किया. उनको बहुत अधिक सम्मान व विभिन्न प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने के पश्चात उसने उनसे एक वर माँगा. इतना अधिक सत्कार पाने के कारण ऋषि ने उसे एक वर दे दिया. और कहा वह जो चाहे मांग सकता है. अब दुर्योधन को युधिष्ठिर का यज्ञ भंग करने का मौक़ा मिल गया. उसने दुर्वासा से युधिष्ठिर के यज्ञ में जाने की प्रार्थना की. और कहा कि आप कृपा करके उन्हें श्राप दे दें. क्योंकि दुर्वासा ऋषि ने पहले ही उसको वचन दे दिया था इसलिए उन्हें उसको यह वरदान देना पड़ा.
अब, अपने शिष्य मंडल के साथ, दुर्वासा युधिष्ठिर के यज्ञ को देखने गया. रास्ते में वह कुछ साधुओं से मिला जो उस यज्ञ से भोजन व सत्कार प्राप्त करके लौट रहे थे. दुर्वासा ने साधुओं से भोजन का प्रबंध करने के स्रोत के विषय में पूछा. उन्होंने बताया कि द्रोपदी के पास एक ऐसा चमत्कारिक पात्र है कि जिसमें जब तक वह स्वयं भोजन नहीं कर लेतीं भोजन समाप्त नहीं होता. दुर्वासा ने पांडवों को श्राप देने की एक योजना बनाई. उसने योग के द्वारा जान लिया कि अब द्रोपदी ने भोजन कर लिया है और पांडव अब भोजन का प्रबंध नहीं कर पाएंगे यदि वह अचानक वहां पहुँच जाए. अब, वह अपने शिष्यों के साथ वहां पहुंचा जहाँ द्रोपदी अकेली ही थी क्योंकि किसी कारण वश पांडव कहीं बाहर चले गए थे. द्रोपदी ने उन सबका मधुर वचनों द्वारा स्वागत किया और पूछा, "मैं आपकी किस प्रकार सेवा कर सकती हूँ?" दुर्वासा को अवसर मिल गया और उसने कहा, "हे पुत्री! हम बहुत भूखे हैं. जैसा कि तुम यज्ञ कर रहे हो व प्रतिदिन बहुत से साधुओं को भोजन भी कराते हो. हमें भी कुछ भोजन चाहिए. यदि संभव हो तो हमें भी कुछ भोजन प्रदान करो." द्रोपदी को समझते देर न लगी कि दुर्वासा का भोजन मांगने का कुछ और ही कारण है. क्योंकि वे इतनी महान थीं कि उनको अपने सात जन्मों का ज्ञान था. कुछ सोचने के पश्चात उसने उत्तर दिया, "महाराज! आप नदी पर स्नान कर आइये तब तक मैं आपके लिए भोजन का प्रबंध करती हूँ."
तब सभी नदी पर स्नान के लिए चले गए. अब द्रोपदी ने दुर्वासा के भीतर के दुष्ट विचारों का अनुमान लगा लिया कि वह पांडवों को श्राप देने के लिए आया है. वह शस्त्र गार में प्रविष्ट हो गयीं और एक खंजर आत्महत्या के लिए उठा लिया. जिससे कि दुर्वासा के श्राप से पांडवों को बचा सकें.
परमात्मा को धन्यवाद! तभी भगवान कृष्ण वहां पहुँच गए. उन्होंने उनसे पूछा "प्यारी बहना! यह क्या कर रही हो?" द्रोपदी ने उत्तर दिया,"हे कृष्ण! दुर्वासा यहाँ पर पांडवों को श्राप देने के लिए आया है. वह भोजन मांग रहा है और वह मेरे पास अब है नहीं. वह निश्चित रूप से उन सबको श्राप दे देगा. इसी कारण से मैं मृत्यु को प्राप्त हो रही हूँ."
सारी स्थिति समझने के पश्चात वे बोले, "द्रोपदी! मैं बहुत भूखा हूँ. मुझे वह पात्र लाकर दो."
"हे भ्राता! आप विनोद कर रहे हो. मेरे पास भोजन का एक अंश भी नहीं है."
"कृपया वह पात्र मुझे लाकर तो दो."
उसने उन्हें वह पात्र लाकर दे दिया. कृष्ण ने उसमें से एक शेष चावल का दाना ढूंढ़ कर निकाला. उन्होंने उसे खा लिया. और डकार लेते हुए बोले कि अब मेरी भूख शांत होने वाली है. और भृष्ट योग के द्वारा उन्होंने उस चावल का प्रभाव उन आगंतुकों पर डाला.
अब पांडव भी लौट आए. उन्होंने कृष्ण से उनके परिवार का कुशल मंगल पूछा. उसके पश्चात कृष्ण ने भीम से नदी के किनारे पर जाकर उन सभी को भोजन के लिए बुला लाने को कहा. उन्होंने उससे गदा भी साथ में लिए जाने को कहा. और बताया कि अगर वे आने को मना करें तो गदा के भय से लाओ. जब भीम नदी पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि सभी नदी के किनारे पर लेटे हुए हैं. क्योंकि अब उनको किसी प्रकार की भूख शेष नहीं थी. वे तृप्त थे. यह सब कुछ कृष्ण ने ही भृष्ट योग की सहायता से किया था. भीम ने दुर्वासा से प्रार्थना की कि वे भोजन करने चलें जैसा कि उन्होंने प्रार्थना की थी. दुर्वासा एक ऋषि थे, और ऋषि कभी भी किसी से नहीं डरता, परन्तु क्योंकि उसके मन में पांडवों को श्राप देने का पाप छिपा था, वह तुरंत अपनी शिष्य मंडली के साथ भीम के साथ हो लिया. भीम गदा लेकर पीछे चल रहे थे. अब वह भय से व्याकुल होकर पांडवों की कुटिया की और चल दिए. जब दुर्वासा वहां पहुंचे, कृष्ण ने द्रोपदी से कहा कि उनसे पूछो कि क्या खायेंगे. दुर्वासा को आसन देने के पश्चात द्रोपदी बोलीं," हे भगवन! आप भोजन में क्या खाना पसंद करेंगे?" उसने सोचा कि यद्यपि मुझे भूख नहीं है लेकिन मुझे कुछ न कुछ तो माँगना पड़ेगा क्योंकि पांडवों को श्राप तो देना ही था और उसे पता था कि उनके पास भोजन है ही नहीं. इसलिए उसने जानबूझ कर अन्य ऋतु का फल 'आम' माँगा.
ऐसा सुनने के पश्चात् वह कृष्ण के पास आयीं और बोलीं कि वह आम मांग रहा है. तथा बोलीं कि अब वह अवश्य ही पांडवों को श्राप दे देगा क्योंकि आम इस ऋतु में पैदा ही नहीं होता. और इसलिए उसको हम आम दे नहीं पाएंगे."
कृष्ण ने उनको सांत्वना दी और कहा "उनसे पूछो कि किस तरह का आम लेंगे - कच्चा या पक्का?"
द्रोपदी वहां गयी और दुर्वासा से यहीं पूछा यह सुनकर उसे संदेह हुआ कि शायद आम उनके पास हैं. इसलिए उसने सोचा कि उसे ऐसा आम मांगना चाहिए जो उनके पास न हो. उसने कुछ सोचने के पश्चात कहा, "मुझे दोनों ही चाहिएं - कच्चा भी और पक्का भी."
द्रोपदी कृष्ण के पास पहुँचीं "वह दोनों प्रकार के आम मांग रहे हैं ."
कृष्ण ने द्रोपदी से कहा "उनसे कहो कि अपना मुख ऊपर की और करके विराजमान हो जाएँ. दोनों तरह के आम आने वाले हैं." यहीं शब्द द्रोपदी ने दुर्वासा से कह दिए.
दुर्वासा ने अपना मुंह ऊपर की ओर खोल लिया.
अब भृष्ट योग के द्वारा कृष्ण भगवान ने क्या किया? -
दुर्वासा के आसन के समीप एक आम का वृक्ष पैदा होकर बढ़ना शुरू हो गया. धीरे धीरे यह एक बहुत बड़ा वृक्ष बन गया. अब उसपर फल आने प्रारंभ हो गए. कुछ कच्चे रह गए और कुछ पक गए. फिर प्रचंड वेग से वायु चलनी प्रारंभ हो गयी. और फल गिरने शुरू हो गए. जब पका आम उसके मुख पर गिरता तो उनका मुख पके गूदे से सन जाया करता. और जब कच्चा आम गिरता तो उसकी चीख निकल जाया करती. और उसका मुंह सूज कर मोटा हो गया. अब वह पूर्ण रूप से आतंकित हो गया. और दर्द के मारे द्रोपदी माता से बोला, "हे मेरी पुत्री! मेरी मदद करो."
कृष्ण द्रोपदी से बोले कि उनसे पूछ कर आओ कि उन्हें कुछ और तो नहीं चाहिए?
जब द्रोपदी ने दुर्वासा से ऐसा पूछा तो वह बोले, "हे पुत्री! मुझे कुछ नहीं चाहिए. मेरे प्राणों की रक्षा करो."
कुछ समय पश्चात् कृष्ण ने अपनी योग माया समाप्त कर दी.
अब दुर्वासा उनको श्राप देना भूल गया और स्थान छोड़ कर चला गया. और मन ही मन द्रोपदी और पांडवों को आशीर्वाद दिया. जब वह आश्रम की और जा रहे थे तो मार्ग में उसने अपने शिष्यों से कहा, "हे पुत्रों! हमें दुर्योधन जैसे अधम को किसी भी प्रकार का वचन नहीं देना चाहिए था . ये पांडव व द्रोपदी बहुत ही उदार और पवित्र हैं. मैंने दुर्योधन के कहने पर इन्हें श्राप देने का निश्चय कर लिया था. यह ही मैंने ग़लत किया. मुझे अनुमान है कि इस बुरे कार्य से मेरे सात जन्मों के पुण्य समाप्त हो गए है.
इसलिए हे पाठकों! हमें वास्तविक योग को जानना चाहिए और किसी भी दुष्ट की सहायता नहीं करनी चाहिए. कृष्ण जी ने योग के द्वारा बहुत से चमत्कार किये. यह योग महान वस्तु है. आजकल वास्तविक योग के स्थान पर बहुत सी भ्रामक प्रथाएँ चल पड़ी हैं.
मैं आपको अपने बारे में एक बात बता रहा हूँ. मैंने भी योग में बहुत कुछ उपलब्धि प्राप्त की है. जो कि साधारण मनुष्य के लिए चमत्कारिक है. लेकिन यह संभव है. मैं योग को महान मानता हूँ. क्योंकि यह मेरा अपना अनुभव भी है.
अगले ब्लॉग में फिर मिलते हैं.
धन्यवाद
अनुभव शर्मा
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