ॐ
प्यारे पाठकों ! हम जो भी कर्म मन , वचन या कर्म से करते हैं उसका विपरीत या अनुकूल प्रभाव अन्य प्राणियों पर पड़ता है और उन कर्मों के फलस्वरूप जितना सुख या दुःख दूसरे प्राणियों को होता है वह अन्य जन्मों में या इस ही जन्म में हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है। जैसा कि निम्न उक्ति से साफ़ प्रगट है -
अवश्यमेव भोक्तव्यम् कृतं कर्मश्शुभाशुभम्। (किये हुए शुभ या अशुभ कर्मों का फल हमें अवश्य ही भोगना पड़ता है।
और उन फलों को भुगवाने वाला परमात्मा हमें अपनी न्याय व्यवस्था से हमारे किये कर्मों का फल देता है और वह हमें भोगने पड़ते हैं। बिना हमारे पापों के फल भोगे हमें उन से मुक्ति मिलनी सम्भव नहीं है । राष्ट्र व्यवस्था में राजा हमें हमारे शारीरिक कर्मों का फल तो दे सकता है परन्तु मन का फल वह नहीं दे सकता परन्तु परमात्मा तो मन का भी अधिराज है। उसकी इस व्यवस्था में हमें पापों (तीन प्रकार के मनसा , वाचा और कर्मणा ) का फल भोगना ही पड़ता है।
यहाँ एक संदेह होता है कि हम से कुछ पाप अज्ञान में हो जाते हैं इसलिए हम कर्म करना ही त्याग दें तो यहाँ भगवान वेद में कहते हैं कि -
कुर्वन्नेवेह् कर्माणि जिजॆविशेच्छ तं समाः एवं त्वयि नान्य थेतॊअस्ति न कर्म लिप्यते नरे । यजुर्वेद। ४०। २
कर्मों को करते ही करते हम सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखें इस प्रकार हम पाप रूप व पुण्य रूप कर्म भी हममे लिप्यमान नहीं होते।
पहली बात तो यह है कि हम अधिक से अधिक १०० वर्षों तक जियें और जियें भी कर्म करते करते और इस बीच अज्ञानवश हमसे जो पाप हो जाते हैं वे हम में लगातार बसे नहीं रहते अर्थात पुनः वे पाप हमसे नहीं होते और उन पापों का फल भोगने के बाद हम उनसे मुक्त हो जाते हैं।
इसलिए हमें कर्मों को करते ही करते अधिक से अधिक आयु की इच्छा करनी चाहिए और अपने पुण्यों को प्रभु अर्पण करते रहना चाहिए।
वैसे तो कर्म विहीन कोई प्राणी निद्रावस्था के सिवाय रह ही नहीं सकता लेकिन कर्मेन्द्रियों के द्वारा सृजनात्मक, क्रियात्मक व धार्मिक कर्म करने अनिवार्य हैं जो कि हमारे भाग्य के निर्माता हैं। और भविष्य में हमें सुख प्रदान करते हैं।
आपका
भवानंद आर्य (अनुभव )
कुर्वन्नेवेह् कर्माणि जिजॆविशेच्छ तं समाः एवं त्वयि नान्य थेतॊअस्ति न कर्म लिप्यते नरे । यजुर्वेद। ४०। २
कर्मों को करते ही करते हम सौ वर्ष तक जीने की इच्छा रखें इस प्रकार हम पाप रूप व पुण्य रूप कर्म भी हममे लिप्यमान नहीं होते।
पहली बात तो यह है कि हम अधिक से अधिक १०० वर्षों तक जियें और जियें भी कर्म करते करते और इस बीच अज्ञानवश हमसे जो पाप हो जाते हैं वे हम में लगातार बसे नहीं रहते अर्थात पुनः वे पाप हमसे नहीं होते और उन पापों का फल भोगने के बाद हम उनसे मुक्त हो जाते हैं।
इसलिए हमें कर्मों को करते ही करते अधिक से अधिक आयु की इच्छा करनी चाहिए और अपने पुण्यों को प्रभु अर्पण करते रहना चाहिए।
वैसे तो कर्म विहीन कोई प्राणी निद्रावस्था के सिवाय रह ही नहीं सकता लेकिन कर्मेन्द्रियों के द्वारा सृजनात्मक, क्रियात्मक व धार्मिक कर्म करने अनिवार्य हैं जो कि हमारे भाग्य के निर्माता हैं। और भविष्य में हमें सुख प्रदान करते हैं।
आपका
भवानंद आर्य (अनुभव )
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