शनिवार, 8 मार्च 2014

मेरे भीतर बहुत क्रोध है

मेरे भीतर बहुत क्रोध है।
करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

प्रिय की ये मीठी मुस्कान।
भरती क्यूँ जीवन में प्रान।
फिर क्यों बिछड़ गए हैं मीत।
कैसा ये रौरव संगीत।
गति का कैसा गतिरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

मदमस्त और मधुमस्त बसंत।
लेकर आता क्यूँ है अंत।
तपती सूरज की ये किरनें।
फिर है ग्रीष्म ऋतु क्यों लाती।
इसका मुझको नहीं बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है।

उलटे सीधे चक्र चलाकर।
किया इकट्ठा धन ये लाकर।
घर भर डाले तुमने अपने।
मिटे ग़रीबों के सब सपने।
होना इस का भी विरोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

प्रभु से प्रीत लगा कर देखी।
यहीं पे जन्नत पा कर देखी।
अब क्यूँ दूर हुए हो आप।
मैंने कैसा किया था पाप।
प्रभु का ही ये सृष्टि बोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

करना इसका मुझे शोध है।
मेरे भीतर बहुत क्रोध है ।

(पूज्य पिताजी की क़लम से )

इस कविता को उर्दू में पढ़ें
आपका अपना
भवानंद आर्य 

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