गुरुवार, 5 जनवरी 2017

महाभारत के बाद का आर्यावर्त - भाग ३

महाभारत के बाद का आर्यावर्त : भाग - ३



महात्मा शंकराचार्य

महाभारत काल के पश्चात् संसार में अन्धकार की तरंगें ओतप्रोत हुईं और यह अन्धकार इतना बलवती बना कि धर्म और मानवता को  शान्त करने का प्रयास किया। मानवता और धर्म न रहा। अन्तिम परिणाम यह हुआ कि अज्ञान में समय-समय पर महापुरुषों ने आकर के समाज को चेतावनी दी और चेतावनी देकर के उन्हें प्रेरणा दी और प्रेरित करके उनको धर्म क्षेत्र में लाने का प्रयास किया।
 
जब दुराचार होने लगा तो आज से 2200 वर्ष या कुछ अधिक वर्ष हो गये जब महात्मा शंकराचार्य यहाँ आ पधारे। जिस समय वह 12 वर्ष के थे तब उन्होंने अपनी माता से कहा कि मैं तो इस संसार को जानना चाहता हूँ। यह संसार मुझे अन्धकारमय प्रतीत हो रहा है। महात्मा शंकराचार्य पूर्व जन्म के कुटली मुनि महाराज थे। उनकी आत्मा ने यहाँ आकर जन्म धारण किया। परमात्मा के अनुकूल ऐसी महान आत्मा, यौगिक आत्मा संसार में आती रहती हैं और आ करके धर्म का कुछ न कुछ पालन करा ही देती हैं। उसकी माता ने कहा कि बेटे! तुझे धन्य है, जो तूने ऐसे महान विचारों का संकल्प किया है। इन विचारों को संसार के समक्ष नियुक्त करो जिससे यह संसार अन्धकार से पृथक हो जाए। उस महात्मा शंकराचार्य ने आ करके इस संसार का निर्माण करना प्रारंभ कर दिया। महात्मा बुद्ध और महात्मा महावीर को मानने वाले जो अनुयायी थे, उनसे शास्त्रार्थ किया। मूर्ति-पूजा के विषय में शास्त्रार्थ करते थे। उनका कथन था कि मेरा यह नियम है कि यदि मैं शास्त्रार्थ हार जाउँगा जो मूर्ति पूजक बन जाउँगा और यदि नहीं हारा तो तुम्हारी इन मूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर दूँगा। महात्मा शंकराचार्य ऐसे देखे गए हैं कि वह आत्मा और परमात्मा के विषय में शास्त्रार्थ करते थे और जब विपक्षी थकित हो जाते थे तो अपने खाण्डे को लेकर उनकी मूर्तियों पर आक्रमण करते थे, मूर्तियों को उनके स्थान से पृथक् कर दिया जाता था। महात्मा शंकराचार्य ने समाज का बहुत कुछ उपकार किया, धर्म का बहुत बड़ा कल्याण किया था। आत्मा परमात्मा को पृथक् मान करके जैनमत और बौद्ध मत के अनुयायियों को, सबको चकित कर दिया। एक समय समाज में आ करके उन्होंने वेदान्त का पाठ किया और वेदान्त की महान उँची गहराई जा करके उन्होंने कहा कि भाई, आत्मा-परमात्मा का भाव एक ही प्रतीत होता है परंतु फिर भी उन्होंने यह नहीं कहा कि यह एक है, यह  कहा कि यहाँ भाव तो एक ही है। जैसे माता का बालक है और जब वह माता के गर्भ में रहता है उस समय वह माता के समक्ष नहीं होता, न माता को दिखता है और न ही संसार को दिखता है। ऐसे ही हम आत्मा जब मोक्ष में जाते हैं तो परमात्मा के गर्भ में चले जाते हैं। परमात्मा के गुण हममें प्रविष्ट हो जाते हैं। उस समय हम अपने को परमात्मा मान लेवें तो कोई हानि नहीं परंतु वास्तव में हम परमात्मा तो नहीं हैं। हम किसी को तब ही पावेंगे जब उनके गुण में रमण करेंगे, उसके गुणों की वार्ता उच्चारण करेंगे अन्यथा हम किसी प्रकार भी उसमें रमण नहीं करेंगे। शंकराचार्य ने इन विचारों का कथन किया। आगे चल करके उपनिषदों का स्वाध्याय करते हुए ऐसा कहा कि आध्यात्मिक विचारों को लेते हुए प्रतीत होता है कि आत्मा से बढ़ कर भी कोई सत्ता अवश्य है। जब महात्मा शंकराचार्य ने वेद की विद्या को ऐसा जान लिया तो नाना मत वालों से शास्त्रार्थ कर वेद विद्या की पुनः स्थापना की। वेदांगों का मन्थन किया, उनका पालन किया और एक महान समाज बना दिया। उन्होंने समाज से कहा कि देखो, जैसे नुम जैनियों और बौद्धों के मन्दिरों और स्थानों में जाते हो इससे तो तुम एक कार्य करो कि तुम अपने ही मन्दिर बनाओ और उन्हीं में एकान्त स्थान में विराजमान हो करके उस परमपिता परमात्मा को जानने का प्रयत्न करो जो तुम्हारी आत्मा के समक्ष बैठा, तुम्हारा पालन कर रहा है। तुम दूसरे मत वालों के स्थानों में क्यों जा रहे हो? यथार्थ वाक्य था, सबने  स्वीकार कर लिया।

आगे चलकर महात्मा शंकराचार्य ने अपनी प्रतिभा से अपनी यौगिकता से समाज में एक संस्कृति का प्रसारण करने का प्रयत्न किया परन्तु यहाँ के ही धर्मज्ञों ने, जिन्होंने जाना कि तुम्हारी पद्धति नष्ट होने जा रही है, उन्हें नष्ट-भष्ट कर दिया।

 

इस पोस्ट को अंग्रेजी में पढ़ें

अगली कड़ी में-ईसा मसीह व महात्मा मुहम्मद

आपका ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

free counters

फ़ॉलोअर