शनिवार, 1 जनवरी 2011

ज्ञान, कर्म और उपासना

हमारी धार्मिक पुस्तकों में एक कथानक पाया जाता है इसकी व्याख्या हमारे जीवन के लिए बहुत आवश्यक है एक समुद्र के किनारे एक पेड़ पर एक टिटहरी रहती थी। उसने अपने घोंसले में दो अंडे दिए। वह अपने इन अण्डों को बहुत प्यार करने लगी। एक बार जब समुद्र में ज्वार आया तो अंडे बहकर समुन्द्र में चले गए। जब टिटहरी लौटी तो उसने अपने अण्डों को वहां पर नहीं पाया। उसने फ़ौरन  अनुमान लगा लिया कि अण्डों को दुष्ट समुद्र ने ही निगल लिया है। अब वह समुद्र के किनारे की बालू को अपनी चोंच में उठा उठा कर समुद्र में डालने लगी जिससे वह जलनिधि सूख जाए। अगस्त्य नाम के ऋषि उधर से गुज़र रहे थे उन्होंने यह देख कर उससे पूछा , "हे देवी! तुम ये क्या कर रही हो?" वह बोली भगवन! इस समुद्र ने मेरे अण्डों को निगल लिया हे इसलिए में इसे सुखा दूंगी।" अगस्त्य बोले, "तुम ऐसा नहीं कर सकती हो। यह काम तुम्हारे लिए असंभव है। लेकिन मैं  इस विशाल जलनिधि को मात्र तीन अचमानों  में पी सकता हूँ।" उनहोंने ऐसा ही किया और फिर उपस्थ के द्वारा सारा जल बाहर निकाल दिया तथा योग के द्वारा अण्डों को बाहर निकाल कर उनकी रक्षा की। कहा जाता है कि समुद्र तब से ही खारी है।


इस कथानक को सभी लोग ऐसा का ऐसा ही मान लेते हैं। परन्तु मैं  इस के पीछे छुपे रहस्य पर प्रकाश डालना चाहता हूँ तभी आप लोग इस रहस्य को समझने में समर्थ होंगे। टिटहरी आत्मा को कहते हैं और उसके दो प्रिय पुत्र मन और बुद्धि हैं जब ये दोनों संसार रूपी सागर में पूर्णतः भ्रमित हो जाते हैं तो आत्मा अपने पुत्रों की  रक्षा के लिए ज्ञान रूपी कणों को संसार में डाला करती है। लेकिन इस तरह संसार को विजय करना असंभव है। कुछ समय पश्चात विवेक उत्पन्न होता है जिसका अर्थ है "सत्य व असत्य का ज्ञान"। और वे तीन आचमन हैं ज्ञान, कर्म और उपासना के। विवेक आने पर मानव ज्ञान, वृद्धि, श्रेष्ठ कर्म तथा उपासना में अपने को मग्न कर लेता है और संसार को खारी समझ कर उसे त्याग देता है। इस प्रकार मन व बुद्धि की रक्षा होती है।

इसलिए भाइयों बहनों! यदि आप इस संसार को विजित करना चाहते हैं तो ये आचमन अपनाओ  तभी आप लोग इस दुःख से भरे संसार को त्यागने में समर्थ होंगे और सफलता व  आनंद को प्राप्त कर सकेंगे।

वेदों में सत्य ही कहा है कि -

ॐ कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतम् समाः एवं त्वयि नान्य थेतोSस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥यजुर्वेद।४०।२॥



अर्थात् अच्छे कर्मों को करते ही करते सौ  वर्षों तक जीने कि इच्छा रखें कभी ख़ाली न रहें।

ऋषि अगस्त्य का द्वितीय आचमन कर्म है। इसी प्रकार और दोनों आचमन ज्ञान व उपासना भी वेदों में मिलते हैं।

अपने ज्ञान को बढ़ाने के लिए गुरु, आर्ष पुस्तकों, प्रकृति व अपनी स्वयं की आत्मा का सहारा लेवें व ज्ञान बाँटना भी अपना कर्तव्य जानें। उपासना का अर्थ है परमात्मा के निकट होना। परमात्मा की उपासना के लिए नित्य योग, संध्या व उनके गुणों का गुणानुवाद करना चाहिए।

इसप्रकार  मूल विचार यह हुआ कि "ज्ञान, कर्म और उपासना" सफलता की कुंजी हैं।




ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
(लेखक)

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