रविवार, 9 जनवरी 2011

संध्या(प्रातःकालीन और सांयकालीन)

वेद के अनुसार हमारे ऋषियों ने कहा है कि हमें प्रातः व सांय संध्या करनी चाहिए. एक दिन में दो बार संध्या की जाती है। 

जैसा कि आदि गुरु ब्रह्मा ने कहा है वास्तव में प्रत्येक वेद मन्त्र अनेक अर्थ रखता है. लेकिन जैसा हमें स्वामी दयानंद सरस्वती के वेद भाष्य में देखने को मिलता है, हम सामान्यतः वेद मन्त्र का एक ही अर्थ पाते हैं।   यद्यपि कुछ मन्त्रों का दो दृष्टियों से भी अर्थ देखने को मिलता है - आध्यात्मिक और सांसारिक. वास्तव में वेद मन्त्रों को समझने के लिए एक महान गुरु की आवश्यकता है. आजकल इस प्रकार के गुरु संसार में उपलब्ध नहीं हैं. यद्यपि गहन खोज करने पर कोई छुपा हुआ गुरु इस प्रकार का मिलना संभव तो है।  अब मैं आप को वैदिक संध्या के मन्त्रों की व्याख्या बताता हूँ. इस समय मैं निम्नलिखित मन्त्र ले रहा हूँ जो कि ब्रह्माण्ड की रचना पर आधारित हैं-
ॐ ऋतं च सत्यन्चाभि द्धातापसो अध्यजायत ततो रात्र्य जायत ततः समुद्रो अर्णवः
।।6।।
वेदों के प्रकाशक परमात्मा ने अपनी अनंत सामर्थ्य के कुछ भाग से कारण रूप प्रकृति से कार्य रूप जगत की रचना की और अपने सहज स्वभाव से जल कोष की रचना की ।
ॐ समुद्रादर्णवादधि संवत्सरो अजायत अहोरात्रणि विदधद्विशस्य मिषतोवशी।।7।।
समुद्र रचना के पश्चात प्रभु ने ऐसी गति को उत्पन्न किया कि जिससे कि दिन रात और संवत्सर के बारह महीने उत्पन्न होते हैं।
ॐ सूर्या चन्द्रमसौ धाता यथा पूर्वमकल्पयत्  दिवं पृथिवीं चान्तरिक्षमथौ स्वः.।8।।

पूर्व कल्प कि भांति प्रभु ने इस कल्प में भी सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, द्यौ और पृथ्वी आदि को रचा।

इस संध्या के शेष भाग हिस्सों के रूप में मैं अगली पोस्टों में प्रकाशित करूंगा।
इस पोस्ट में मैंने आपको बताया कि कैसे इस ब्रह्माण्ड की रचना हुई. ये मन्त्र संध्या के मुख्य अंग हैं. जिसमें हम सृष्टि रचना के विषय में नियमित रूप से विचार किया करते हैं।

संध्या का दूसरा भाग यहां पढ़ें

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

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