शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

दुष्ट को नमन और शान्ति कैसे पायें प्रथम

हमें अपने प्राणों को नमन करना चाहिए, न सिर्फ प्राणों को अपितु दुष्टों को नमन. ठगों को नमन. परन्तु ठगों को कैसे नमन करें? उनको हाथ जोड़कर नमस्कार नहीं करना चाहिए. यदि उसकी दुष्टता या ठगी सिद्ध हो जाए तो उसे डंडे से नमन करना चाहिए और यह सिद्ध कर देना चाहिए कि हम अपने स्थान पर दृढ हैं. उस समय तुम्हें उन्हें डंडे से नमन करना चाहिए.
वेदों में वनराज का नमस्कार भी स्वीकार किया गया है. परन्तु सिंह इसे दो तरीके से करता है. जो व्यक्ति आत्मा को जानता है वह प्रेम के साथ नमस्कार स्वीकार करता है.
एक बार लोमश मुनि कदली वनों से गुज़र रहे थे. शेर आकर उनके चरणों में ओतप्रोत हो गया. उस आत्मा के बल की क्या सीमा है. जिसके समक्ष सिंह भी श्रृद्धा से अपना शीश झुका देते हैं. इसी प्रकार कि घटना हमें माता गार्गी के जीवन से मिलती है एक बार वह महर्षि याज्ञवल्क्य से मिलने जा रही थीं. रास्ते  में एक शेर ने उनको नमन किया और उनके चरणों में ओतप्रोत हो गया. वेदों में नमस्कार भिन्न सन्दर्भों में आया है. हमारे ऋषि मुनियों ने जिन्होंने वेदों का स्वाध्याय किया है इसका सुन्दर तरीकों से वर्णन किया है. प्राणों को नमन, हे प्राण! तुम पवित्र हो और महान हो. तुम हमारे शरीर के भीतर रमण करते हो. हम महानता चाहते हैं. आज हम उन प्राणों का आह्वान करते हैं जिसके द्वारा हमारे योगी अपनी बौद्धिक क्षमताओं को वश में करते आये हैं और मूलाधार से ब्रह्मरंध्र में रमण करते हुए योगिक पूर्णताओं को उन्होंने प्राप्त किया है. आज हम उन प्राणों कि याचना करते है.
हे पाठकों! हमें निस्वार्थ होना पड़ेगा. हमें परमात्मा को अनुभव करना चाहिए. हमें अपनी तुच्छताओं को त्यागना पड़ेगा. यदि हमारे मस्तिष्क में नाना बुरे विचार हैं, स्वार्थ है और साथ साथ हम भगवान की पूजा भी करते हैं तो यह किसी लाभ का नहीं है. यह तभी लाभदायक होगा जब हम निस्वार्थी होकर परमात्मा की गोद में जाने का प्रयत्न करेंगे. आज हमें अपनी अंतरात्मा को पवित्र करने की आवश्यकता है.
अब मैं एक कहानी प्रस्तुत कर रहा हूँ जो कि महर्षि  श्रृंगी (पूज्यपाद ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी), जो मेरे अध्यात्मिक गुरुदेव हैं, के प्रवचनों से ली गयी है. यह नारद मुनि व सनत कुमार संवाद पर आधारित है.
एक बार किसी कारणवश देवर्षि नारद को अशांति छा गयी. उन्होंने सोचा कि उन्हें इस को समाप्त करने के लिए किसी अन्य स्थान को गमन करना चाहिए. अपना स्थान छोड़ने के बाद वे महर्षि पापड़ी  मुनि महाराज के पास गए. जिन्होंने उनका यथायोग्य स्वागत किया और उनसे पूछा कि क्या वे शांति को प्राप्त हैं? नारद मुनि ने कहा, "भगवन! शांति कहाँ है. मुझे आज अज्ञान छा गया है. मुझे आत्मिक शांति प्राप्त नहीं हो रही है. मुझे इसकी प्रबल आवश्यकता है." इस पर महर्षि पापड़ी मुनि महाराज ने कहा, "मेरे मंतव्य से आप को सनत कुमार के पास जाना चहिए. वहां आप निश्चित रूप से अध्यात्मिक शांति को प्राप्त कर लेंगे." ऐसा आदेश पाकर देवर्षि नारद वहां से चल दिए और महर्षि सनत कुमार के पास पहुंचे. महर्षि ने उनका ऊंचा स्वागत किया और उनको ऊँचा आसन प्रदान करते हुए विराजमान होने की प्रार्थना की. नारद मुनि ने आसन ग्रहण कर लिया. महर्षि सनत कुमार ने जानना चाहा, "हे देवर्षि नारद! आपका ह्रदय मग्न प्रतीत नहीं हो रहा है. आपका विनोदी स्वभाव कहाँ चला गया?" इसपर नारद मुनि बोले," महाराज! आज मैं आपके चरण वंदन के लिए आया हूँ जिससे मैं आत्मिक शांति प्राप्त कर सकूँ." उन्होंने पूछा आपको आत्मिक शान्ति क्यों प्राप्त नहीं हो रही है?" नारद ने इस बात का उत्तर देने में असमर्थता जताई. सनत कुमार ने पूछा "मुझे बताओ कि ज्ञान की कौन सी शाखाओं को आपने जाना है? और क्या क्या नहीं जाना?" उस समय नारद ने उत्तर दिया, "भगवन! मैंने दार्शनिकता के ६ भागों, चार वेद, उपवेद, गणित और अन्य सभी विज्ञानों का अध्ययन किया है. परन्तु मैं आत्मिक शांति प्राप्त करने में असमर्थ हूँ.
आत्मिक शांति का मार्ग
महर्षि नारद से यह सुनकर महर्षि सनत कुमार ने कहा, "हे नारद!यह ज्ञान बहुत ऊँचा है. केवल यह ही तुम्हें ऊँचा बना देगा. ज्ञान बहुत ग्रहणीय और विचित्र होता है. इसमें गहनता से उतरो यह तुमको संसार से एक रस कर देगा.
नारद ने पूछा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या ज्ञान से बढ़कर भी कोई पदार्थ है संसार में?"
सत्य
ऐसा पूछने पर महर्षि सनत कुमार बोले, "हाँ एक पदार्थ इससे भी बड़ा है. और यह वाणी है. आज तुम्हें वाणी की अर्चना करनी चाहिए. सत्य बोलो. जो कुछ भी तुम बोलो वह सत्य होना चाहिए. सत्य बोलने से वाणी सबल और प्रभावशाली बन जाती है. महर्षि श्रृंगी ने ८४ वर्ष तक एक भी शब्द मिथ्या उच्चारण नहीं किया. वह जो भी कह देते थे, हो जाता था. यदि वे किसी को मृत्यु प्रदान कर देते थे, तो वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता था. अरे नारद! महर्षि अत्री ने अपने जीवन में १२० वर्ष सत्य का पालन किया. यदि वह किसी पक्षी से आने को कहते थे तो वह उनके पास आ जाता था. हे नारद! यह वाणी बहुत महान है. इसमें कभी मिथ्यावाद न मिलाओ, तो यह वाणी बल व प्रभाव से युक्त हो जाएगी. यह ऐसा पदार्थ है कि यह तुम्हें भगवान तक ले जा सकती है. यह एक ऐसा साधन है कि यह इस संसार सागर से भी पार ले जा सकती है. तुम वाणी की साधना करो. सत्य बोलो.
देवर्षि नारद ने कहा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या कोई वस्तु वाणी से भी बढ़ कर है?"
मन
सनत कुमार ने बताया,"एक ऐसा पदार्थ भी है जो सत्य से भी बढ़कर है. और वह मन है. यह मन बहुत अमूल्य है. यह वायु से भी तीव्र गमन करता है. यह मन तुम्हें इन्द्रलोक में ले जा सकता है. इस मन को स्थिर करो. यह तुम्हें ऊँचाइयों पर पहुंचा देगा.
इस सन्दर्भ में गंभीर विचारकों ने विश्लेषण किया है कि यदि कोई मानव सुन्दरता को देखता है, वह चक्षुओं से नहीं देखता, बल्कि वह मन से देखता है. ऑंखें, पुतलियाँ, तन्मात्राएँ और पीला पटल आदि तो सभी निर्जीव और यंत्र कि भांति है. मन ही है जो उसको महसूस करता है. यदि यह मन स्थिर है तो वह सही निर्णय देगा परन्तु यदि यह मन चलायमान है तो यह कुदृष्टि में परिवर्तित हो जायेगा. यही मन मानव की मृत्यु का कारण बन जाता है. एक अलंकार मेरे मन में आया है. सनत कुमार ने यह नारद को बताया था. यह महान रूपक है.
एक धनी व्यक्ति था. एक नौकर उसके पास नौकरी के लिए आया. सेठ ने पूछा, "तुम क्या वेतन पसंद करोगे?"  सेवक बोला, "श्रीमान! मुझे कोई वेतन नहीं चाहिए परन्तु मेरा एक सिद्धांत है. जब मेरे पास करने के लिए कोई कार्य शेष नहीं रहेगा तो मैं तुम्हें मृत्यु को प्राप्त करा दूँगा." सेठ उसे अपनी सेवा में रखने को तैयार हो गया और उसको एक के बाद एक कार्य देने प्रारंभ कर दिए. जैसे ही वह उसे कार्य सोंपता वह तुरंत उसे कर दिया करता. कुछ समय पश्चात् सेठ को चिंता हो गयी क्योंकि जल्दी ही उसने पाया कि उसके पास देने के लिए अन्य कार्य उस विलक्षण सेवक के लिए शेष नहीं है.  एक बार वह एक मार्ग से जा रहा था. वहां उसे एक बुद्धिमान मिला जिसने उससे उसकी परेशानी का कारण पूछा. उस धनिक ने सारी बात उस बुद्धिमान को बताई और अपने ही सेवक के द्वारा मृत्यु प्राप्त होने के भय से अवगत कराया क्योंकि जल्दी ही सेवक के लिए कोई कार्य शेष नहीं रह जायेगा. इस पर उस बुद्धिमान ने राय दी, "भैया, तुम उसे अपने ही कामों में क्यों लगाये हुए हो? उसे संसार के कार्यों में लगा दो." वह सलाह मानकर वह धनिक अपने घर लौट आया और उसने वहीँ किया. उसने अपने नौकर से संसार के शुभ कार्यों में व्यस्त होने को कह दिया. नौकर को इस प्रकार के कार्यों की कोई सीमा नहीं प्राप्त हुई और धनिक की रक्षा हो गई. यहीं स्थिति मानव के मन की है. यदि हम अपने मन को संसार के शुभ कार्यों और भगवान के चिंतन में लगाये रखते हैं तो हम सुरक्षित रहते हैं. परन्तु जैसे ही हम ने उसको स्वतंत्र किया यह महान अनर्थ करने लगता है. और विनाश कि गर्त में धकेल देता है.
नारद मुनि ने पूछा, "भगवन! मैं ये जानना चाहता हूँ कि क्या अन्य कुछ भी मन से ऊँचा है?"
बुद्धि
सनत कुमार ने कहा, " हे नारद! बुद्धि मन से ऊँची है. यह परमात्मा की अमूल्य देन है. तुम परमात्मा से प्रार्थना करो कि वह तुम्हें बुद्धि प्रदान करें जिससे कि हम इस संसार के बारे में अच्छी प्रकार निर्णय ले सकें.यह मन सारी वासनाओं को बुद्धि के समक्ष नियुक्त कर देता है. बुद्धि ही निर्णय दिया करती है कि क्या क्या पदार्थ है. इसलिए देखो! बुद्धि हमारे जीवन की प्रेरक है. हमें बुद्धि से कार्य लेना चाहिए. यह आत्मा तीन प्रकार की बुद्धियों मेधा, ऋतंभरा और प्रज्ञा, को प्राप्त करने के बाद उस महान प्रभु से मिला करती है. और मुक्ति को प्राप्त करती है. आजकल हम अपनी बुद्धिओं को विकसित करने पर विचार नहीं कर रहे हैं. इसके पश्चात नारद मुनि पुनः बोले, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ कि क्या बुद्धि से बढ़कर भी कुछ है?"
अंतःकरण
सनत्कुमार ने कहा, "हे नारद! अंतःकरण बुद्धि से बड़ा है. तुम्हें यह अंतःकरण पवित्र बना लेना चाहिए. ऐसा करने पर तुम्हारा जीवन भी पवित्र हो जाएगा. इस छोटे से अंतःकरण में यह परमात्मा का सारा ब्रह्माण्ड समाहित हो जाता है. अंतःकरण महान होता है. अपनी बुद्धियों को अंतःकरण में विलय करो.
पुनः देवर्षि नारद बोले, "भगवन! मैं अंतःकरण की अधिक व्याख्या नहीं चाहता. मैं जानना चाहता हूँ कि क्या ऐसा कोई और पदार्थ है जो अंतःकरण से भी बढ़कर है?"
स्मृति
अब सनत कुमार बोले, "हे नारद! स्मृति अंतःकरण से श्रेष्ठ है. अन्य बातें त्याग कर तुम मेरे ही जीवन को देख लो मैंने जिन वेद मन्त्रों का लाखों वर्ष पूर्व अध्ययन किया था अब पुनः अपने कर्मों के अनुसार तुम्हारे समक्ष बोलने में सक्षम हूँ. हमारे बहुत से जन्मों के संस्कार अंतःकरण में अंकित रहते हैं. इसके जाग्रत होने पर स्मृति आती है.
इसके पश्चात नारद मुनि ने आगे कहा, "महाराज! मैं यह जानना चाहता हूँ स्मृति से भी बढ़कर श्रेष्ठ क्या है?"
ब्रह्मचर्य
सनत कुमार ने कहा, "ब्रह्मचर्य स्मृति से महान है. ब्रह्मचर्य से प्रतिभा और ओज मिलता है. यह मानव को परमात्मा तक ले जाता है. तुम्हें ब्रह्मचारी होना चाहिए. यदि हम ब्रह्मचर्य नहीं रखते तो हमारा जीवन केवल नाम मात्र है. हे नारद! माता गार्गी ने भी ब्रह्मचर्य के विषय में बहुत ऊँचा बोला है. उन्होंने स्वीकार किया है, "ब्रह्मचारी संसार में एक महामानव होता है. वह सूर्य के समान तेजवान होता है. वह मृत्युंजय कहलाता है. वह रूद्र कहलाता है." हमें ब्रह्मचर्य संग्रहीत करना चाहिए क्योंकि यह मृत्यु को भी विजय कर लेता है. लोमश मुनि ने जीवन भर ब्रह्मचर्य धारण किया था. वह कितने वर्ष जिए और फिर मुक्ति भी प्राप्त कर ली. महर्षि अगस्त्य, ब्रह्मचर्य के महान धारक ने समुद्र को केवल तीन आचमन में पीने की क्षमता प्राप्त की. आज के मानव ने इस तथ्य के अन्तर्निहित अर्थ को नहीं जाना. मेरे पूज्यपाद गुरुदेव ब्रह्मा ने मुझे अगस्त्य की इस महानता के बारे में बताया था. वे तीन आचमन क्या हैं? वे ज्ञान, कर्म और उपासना हैं. और समुद्र यह महान संसार है.
शान्ति कैसे प्राप्त करें का द्वितीय भाग मैं बाद में प्रकाशित करूंगा. अगले ब्लॉग में नारद मुनि और सनत कुमार संवाद का द्वितीय भाग लेकर मैं फिर उपस्थित होऊंगा.

धन्यवाद
अनुभव शर्मा

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