शुक्रवार, 17 मार्च 2017

बारमुडा के रहस्य का पटाक्षेप

ॐ 
जय गुरुदेव 

महाराजा घटोत्कच, भीम, श्वेतवाचक , बर्बरीक, और बब्रुवाहन पांचों ने एक यंत्र का निर्माण किया था और समुद्र में आज भी उसकी छाया आती रहती है।  आज से पांच हजार पांच सो वर्ष पूर्व इस यंत्र का निर्माण हुआ था।  और वह यंत्र अंतरिक्ष में विद्यमान है।  आधुनिक काल में यहाँ के वैज्ञानिकों का यंत्र जब गति करता है और  छाया में आ जाता है तो उस यंत्र का एक अंकुर भी नहीं रह पाता , वह इस प्रकार का यंत्र है।  समुद्रों के तटों पर वैज्ञानिकों का समाज एकत्रित होता है।  वह विचारता है कि यह कोई देव की ही कृति है।  कोई कहता है कि यह पूर्वकाल के वैज्ञानिकों का क्रिया कलाप है।  आधुनिक काल में इस प्रकार के यंत्रों का निर्माण नहीं हो सका है।  जो उस यंत्र की अग्नि को अपने यंत्र की अग्नि से समावेश करा सके।  परंतु प्रत्येक राष्ट्र के वैज्ञानिक यहाँ लगे हुए हैं कि हम उस समुद्र के तट वाले विज्ञान को जानना चाहते है।   परंतु ये यंत्र ऐसा है कि उसकी जहाँ भी छाया जाती है चाहे वह जल में जाने वाला यंत्र हो, चाहे वायु में गति करने वाला हो, जहाँ भी उसकी छाया आ गई वह यंत्र समाप्त हो जाता है।  आधुनिक काल के वैज्ञानिक को यह भी प्रतीत नहीं हुआ है कि वह जो हमारा यंत्र भस्मभूत हो गया है उसका हम एक अंकुर भी प्राप्त कर लें।  वह मौन हो जाते है।

आधुनिक काल के जो भौतिक विज्ञानवेत्ता हैं, वह समुद्र तट पर किसी किसी काल में अपनी सलाह करते हैं। कि समुद्र के आँगन में दक्षिणी भू में एक स्थली इस प्रकार की है कि वहां जैसे ही भौतिक वैज्ञानिकों का यंत्र गया वह यंत्र समाप्त हो जाता है।  आधुनिक काल के वैज्ञानिकों का ऐसा मत है कि पूर्व काल के वैज्ञानिकों की यहाँ कोई स्थली बनी हुई थी।  कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि अन्य लोकों की किरणे कुछ इस प्रकार की आती हैं जो यंत्रों को भस्मीभूत कर देती हैं। कुछ वैज्ञानिकों का मत है की समुद्र में एक अग्नि का भण्डार है जिसमें किसी काल में तरंगों का जन्म होता है।  विषैली तरंगों का जन्म हो करके वह यंत्र को  भस्मीभूत कर देता है।  आधुनिक काल के वैज्ञानिकों के सहस्रों यंत्र अग्नि के मुख में चले गए हैं।  और आधुनिक काल के वैज्ञानिकों को प्रतीत नहीं हो रहा है कि मेरा यंत्र कहाँ चला गया है? वह अग्नि के मुख में चला गया है या समुद्र की आतंरिक गति में चला गया है।  या उसके अवशेष उर्ध्वा में गति कर गए हैं।

महाभारत काल के घटोत्कच और बर्बरीक ने भगवान कृष्ण की सहायता से एक ऐसा यंत्र पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच स्थिर कर दिया था जो इतना शक्तिशाली है कि उसकी छाया समुद्र में एक स्थान पर जा रही है जो यान उस छाया के अन्तर्गत आ जाता है उसका एक अंकुर भी नहीं रहता।

लगभग सहस्रों यंत्र इस प्रकार के हैं जो इस अग्नि के मुख में चले गए हैं।  और आधुनिक वैज्ञानिकों को यह प्रतीत नहीं हो रहा कि वह मेरा यंत्र कहाँ चला गया? वह अग्नि के मुख में चला गया है या समुद्र की आतंरिक गति में चला गया है।  या उसके अवशेष उर्ध्वा में गति कर गए हैं। दक्षिण ध्रुव के आँगन में एक स्थली है जहाँ जाने पर यंत्र समाप्त जो जाते हैं।  मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि द्वापर काल के कुछ वैज्ञानिकों की एक स्थली बनी हुयी है।  वहां एक यंत्र विद्यमान है। 

भगवान् कृष्ण का भीम घटोत्कच और भी जैसे महाराजा अर्जुन के पुत्र बब्रुवाहन हुए, अर्जुन हुए, और भी नाना वैज्ञानिक जैसे द्रोणाचार्य उनका विज्ञान बहुत ही विशाल रहा था। जब संग्राम होता था तो उन्होंने अपने यंत्रों को चन्द्रमा के कक्ष से भी ऊपरी भाग में त्याग दिया।  वे आज भी वहाँ भ्रमण कर रहे हैं।  यह कोई आश्चर्य नहीं।  यहाँ परम्परागतों से इसी प्रकार का विचार रहता रहा है।  यन्त्रालयों की परम्परागतों में भी प्रायः इसी प्रकार की धाराएँ रमण करती रही हैं।  यंत्रों के द्वारा संग्राम को दृष्टिपात करना उनको कहीं से कहीं स्थानांतरित करना यह सदैव ही हमारे यहाँ रहा है।  हमारे तो वैदिक साहित्य में इसकी मौलिकता प्राप्त होती रही है।  और हमारा जन्म सिद्ध अधिकार रहा है।  चन्द्रमा  से उपरले जो मंडल हैं, द्वापर काल के भीम और घटोत्कच के यंत्र अब तक वहां रमण कर रहे हैं।  उन्होंने इससे ऊँचे अप्रत्यक्ष लोकों पर यंत्र रमण कराया जिसको हमारे यहाँ ऋषि कृतकेतु यंत्र कहा जाता है जो सूर्य मंडल के कक्ष से ऊँचा भ्रमण कर रहा है।

भीम और उनके पुत्र घटोत्कच और एक ब्रहीनी नाम के वैज्ञानिक थे, जिनका यहाँ अनुसंधान होता रहता था।  भीम ने ऐसे यंत्रों का निर्माण किया था जो यंत्र वायुमंडल में भ्रमण करते रहते हैं।  आधुनिक काल में भी बहुत से यंत्र जो भीम ने अंतरिक्ष में त्याग दिए थे, वह भ्रमण कर रहे हैं।

भीम और घटोत्कच दोनों वैज्ञानिक अपनी विज्ञानशाला में विराजमान होते थे और यंत्रों का निर्माण करके वायुमंडल में त्याग देते थे।  चन्द्रमा के उपरले कक्ष के विभाग में वर्तमान के काल में आज भी वह यंत्र परिक्रमा कर रहे हैं।  चन्द्रमा के उपरले कक्ष में गति कर रहे हैं।  परिणाम क्या कि नाना प्रकार के प्राणत्व व मनस्तव को जानकर के यंत्रों का निर्माण कर देते थे।  उसमें इतनी प्राण शक्ति को परिणत कर देते थे कि यंत्र बना करके करोङो वर्षों का यान वैज्ञानिक निर्माणित कर देते थे।

इस स्थली (बरनावा) पर महाराजा भीम और घटोत्कच की विज्ञानशाला रही है।  इस विज्ञानशाला का जितना भाग था, वह नदी के प्रवाह में नष्ट हो गया।  यहां उनके विश्वविद्यालय में उनकी यंत्रशाला में नाना प्रकार का अनुसन्धान होता रहा।




सन्दर्भ ग्रन्थ : महाभारत एक दिव्य दृष्टि, वैदिक अनुसन्धान समिति, दिल्ली (रजि०)

आपका
ब्रह्मचारी अनुभव आर्यन

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