शुक्रवार, 4 अप्रैल 2014

एक भजन

हुए नामवर बेनिशाँ कैसे कैसे ज़मीं खा गई नौजवान कैसे कैसे।

आज जवानी पर इतराने वाले कल पछताएगा चढ़ता सूरज ढलता है ढल जाएगा।

तू यहाँ मुसाफिर है ये सराय फानी है चार रोज़ की महमाँ तेरी ज़िंदगानी है।
धन ज़मीन ज़र ज़ेवर कुछ न साथ जाएगा खाली हाथ आया है खाली हाथ जाएगा।

जान कर भी अनजान बन रहा है दीवाने अपनी उम्र पामी पर तन रहा है दीवाने।
किस कदर तू खोया है इस जहाँ के मेले में तू खुदा को भुला है फँस के इस झमेले में।

आज तक ये देखा है पाने वाला खोता है ज़िन्दगी को जो समझा ज़िन्दगी पे रोता है।
मिटने वाली दुनिया का एतबार करता है क्या समझ के तू आखिर इससे प्यार करता है।

अपनी अपनी फिकरों में जो भी है वो उलझा है ज़िन्दगी हक़ीक़त में क्या है कौन समझा है।
आज समझ ले कल ये मौक़ा हाथ तेरे न आयेगा ओ ग़फ़लत की नींद में सोने वाले धोखा खाएगा।


मौत ने ज़माने को ये समां दिखा डाला कैसे कैसे रुस्तम को खाक में मिला डाला।
याद रख सिकंदर के हौंसले तो आली थे जब गया था दुनियां से दोनों हाथ खाली थे।

अब न वो हलाकू हैं और न उसके साथी हैं जन वजू और तोरत और न उसके हाथी हैं।
कल जो बन के चलते थे अपनी शान ओ शोकत पर शम्मा तक नहीं जलती आज उनकी तुर्बत पर।

अदन हो या आला हो सब को लौट जाना है मुफलीसो समंदर का क़ब्र ही ठिकाना है ।
जैसी करनी करनी वैसी भरनी आज या कल पायेगा सर को उठा कर चलने वाले एक दिन ठोकर खायेगा।

मौत सब को आनी है कौन इससे छूटा है तू फ़ना नहीं होगा ये ख्याल झूंठा है।
सांस छूटते ही सब रिश्ते छूट जायेंगे बाप माँ बहन बीवी बच्चे छूट जायेंगे।

तेरी सारी उल्फत को खाक में मिला देंगे तेरे चाहने वाले कल तुझे भुला  देंगे।
इसलिए ये कहता हूँ खूब सोच ले मन में क्यूँ फंसाये बैठा है जान अपनी मुश्किल में।
 
कर गुनाहों से तौबा भाग्य कब संभल जाये दम का क्या भरोसा है जाने कब निकल जाये।
मुट्ठी बांध के आने वाले हाथ पसारे जायेगा धन दौलत तारीफ से तूने क्या पाया क्या पायेगा।


आपका अपना
भवानंद आर्य 'अनुभव'

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