एक बार की बात है एक ऋषि जिनका नाम साकल्य मुनि था तपस्या करते करते जब अपने तीनों शरीरों - स्थूल, सूक्ष्म व कारण को भी जान गए तो वे अपने तप में पूर्ण हो गए थे। वह मुक्ति के जिज्ञासु थे और मुक्ति के निकट पहुँच गए थे।
एक बार ऐसा हुआ कि वे अपने आश्रम में विराजमान थे जब एक हिरणी जो कि गर्भवती थी और उसका पीछा एक व्याघ्र कर रहा था उस आश्रम की और आई। आश्रम में ही उसका गर्भपात हो गया। नवजात बच्चे को छोड़ कर ही वो व्याघ्र से बचने के लिए भाग गयी। जब मुनि ने देखा कि वह हिरणी का बच्चा तड़प रहा है तो उन्होंने विचारा कि इसकी मदद की जाये। लेकिन उन्होंने फिर विचारा कि प्रभु तो है ही वह स्वतः इसकी सहायता करेंगे और मैं तो मुक्ति में जा रहा हूँ , मैं क्यों इस मोह माया के बंधन में फँसूँ। लेकिन जब पुनः विचारा तो ये निष्कर्ष निकाला की इस बच्चे की मदद की जाए और वे उठे और मन्त्र पढ़ कर उसपर जल छिड़का। तुरंत उस बच्चे को चेतना आ गयी और वो खेलने कूदने लगा। वह उसको पुत्रवत पालने लगे। धीरे-धीरे ऋषि को उस हिरणी के बच्चे से मोह हो गया। एक बार साकल्य मुनि के पिता उस के पास आये और बोले कि तुम्हें अपने माता-पिता आदि किसी से मोह नहीं फिर तुमने इस हिरन से मोह किया है यह तो ठीक नहीं है। इस पर साकल्य मुनि बोले कि हे पितर मुझे किसी से मोह नहीं परन्तु अब क्या करूँ मुझे तो मोह हो गया है। हिरन की आयु कम होती है तो एक दिन तो उसको मरना ही था हिरणी के बच्चे की मृत्यु हो गयी और साकल्य मुनि ने भी उसके वियोग में प्राण त्याग दिए कि मेरा पुत्र कहाँ चला गया? इस प्रकार वे आवागमन के चक्र में पुनः फँस गए।
साकल्य मुनि की महान आत्मा ने एक रानी के गर्भ में प्रवेश किया और गर्भ में ही परम पिता से प्रार्थना करने लगे कि हे प्रभु मैंने पिछले जन्म में हिरणी के बच्चे से मोह किया था अब मैं कभी मोह नहीं करूँगा। ऋषि का संकल्प था पूरा तो होना ही था। जब उन्होंने जन्म लिया तो वह पूरी तरह मोह रहित थे। जब वह बालक पैदा हुआ तो राजा का पुत्र था बड़ी धूमधाम से उसका जन्म संस्कार हुआ। मोह तो उन्हें था नहीं अतः जहाँ भी उन्हें नियुक्त किया जाता वहां ही तोड़ फोड़ मचा दिया करते। जब वह थोड़े बड़े हुए तो नाना वैद्यराजो को उस बाल्य को दिखाया गया लेकिन वे कहते कि इसके मस्तिष्क में कोई कमी नहीं है। यह बालक बहुत ही ऊँचा बनेगा। अप्रसिद्धि के भय से राजा ने उस को एक वाटिका में नियुक्त कर दिया। लेकिन उस ने वह वाटिका तोड़ डाली तब राजा ने उसे अपने पहरेदारों के द्वारा राज्य की सीमा से बाहर निकलवा दिया। अब वे वनों में पहुंचे और उनके पूर्व जन्मों के संस्कार जागृत होने शुरू हो गए कि मेरे पिता ने किस दंड स्वरूप मुझे अपने राज्य से बाह्य कर दिया। वह फल और पत्र लेकर तपस्या करने लगे। धीरे धीरे वे जड़ भरत के नाम से प्रसिद्द हो गए।
एक राजा थे राजा नहुष। उन्होंने विचारा की चलो अब राज्य त्याग किया जाये और मुक्ति के लिए कुछ उपाय किया जाए। उन्होंने जड़ भरत का नाम सुना था अतः वह पालकी पर बैठ कर वनों की और चल दिए। रास्ते में उनके चार पालकीवानों में से एक की तबियत ख़राब हो गयी। राजा ने एक पेड़ के नीचे एक नवयुवक को बैठे देखा उन्होंने उसको चौथा पालकीवान बना दिया। वह नवयुवक जड़भरत था। जड़भरत से पालकी ले जानी तो आती ही न थी अतः वह चलते-चलते कभी ऊपर और कभी नीचे हो रहा था जिससे की विघ्न होने पर राजा को क्रोध आ गया। राजा उतर कर जड़ भरत पर छड़ी से प्रहार करने लगा। उनके शरीर से खून बहने लगा खून को देख कर जड़ भरत मग्न होने लगे और कहने लगे "प्रभु आपने मुझे मोह का ये दंड दिया है इन लोगों का क्या होगा जब ये आप के द्वार आएंगे जिनमे काम भी है और क्रोध भी विशेष है प्रभु आप इन लोगों का क्या हाल करोगे?" जड़ भरत को इस प्रकार मग्न देखकर राजा विचार में पड़ गया और उसने पूछा कि हे महापुरुष आप कौन हो तो ऋषि बोले , "मुझे जड़भरत कहते हैं। " यह सुनते ही नहुष बहुत प्रायश्चित्त करने लगा और बोला, "प्रभु! मैं तो आप के ही द्वार आ रहा था मुझे पता न था कि आप जड़भरत हो। " और उनसे क्षमा याचना करने लगा और चरणों को स्पर्श करने लगा। बाद में नहुष ने जड़भरत से कहा कि प्रभु! मुझे भी कुछ मुक्ति के लिए शिक्षा दो। जड़भरत बोले कि अगर मुक्ति की कामना करते हैं तो इस शरीर का मोह भी त्यागना पड़ता है। और वे उसे शिष्य बना कर शिक्षा देने लगे।
आपका
भवानन्द आर्य
आपका
भवानन्द आर्य
बहुत उपयोगी और सार्थक
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