परम पिता परमात्मा ने वेद के द्वारा पुरुषार्थ की आज्ञा सभी मनुष्यों को दी है चाहे वो स्त्री हों या पुरुष। कर्म के कारण ये संसार भी नष्ट नहीं होता निरंतर चलता ही जा रहा है। जिस दिन कर्म इस संसार से समाप्त हो गया समझो उसी दिन इस संसार का अंत निकट है। यजुर्वेद के ४० वे अध्याय के २ वे मन्त्र में कहा है कि कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छथ अर्थात कर्मों को करता ही करता सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करें, कभी निठल्ला रहने की इच्छा भी न करें।
भगवान श्री कृष्ण ने भगवत् गीता में कहा है कि कर्म निम्नलिखित प्रकार के होते हैं -
कर्म, अकर्म व विकर्म तथा सतोगुणी, रजोगुणी व तमोगुणी कर्म।
कर्म, अकर्म व विकर्म तथा सतोगुणी, रजोगुणी व तमोगुणी कर्म।
कर्म - फल की इच्छा के सहित किया जाने वाला कर्म, कर्म कहलाता है।
अकर्म - फल की इच्छा को त्याग कर किया जाने वाला कर्म, निष्काम कर्म, अकर्म की संज्ञा में आता है।
विकर्म - पाप रूप उलट कर्म विकर्म कहलाते हैं।
सतोगुणी कर्म - परोपकार के कर्म, जो शुरू में विष के तुल्य हों व फल में अमृत तुल्य होते हैं, सतोगुणी कहलाते हैं।
रजोगुणी कर्म - इन्द्रियों के द्वारा किये वे कर्म जो प्रारम्भ में सुखदायक होते हैं परन्तु फल उनका दुःखप्रद होता है, रजोगुणी कर्म कहलाते हैं।
तमोगुणी कर्म - दूसरों को कष्ट देने वाले, हिंसा से भरे आदि कर्म जिनका फल विष तुल्य होता है तमोगुणी कर्म कहलाते हैं।
थोड़ा सा अकर्म (निष्काम कर्म) भी बहुत बड़े दुःख व भय से मुक्ति दिलाने वाला होता है अतः गीता में समझाया हुआ निष्काम कर्म महान है।
अतः अकर्म व सतोगुणी कर्म सर्वश्रेष्ठ व महान हैं। वास्तव में सतोगुणी कर्म ही धर्म कहलाता है।
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आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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