मंगलवार, 15 अप्रैल 2014

रावण का विवाह संस्कार

राजा महिदन्त चक्रवर्ती राजा थे।  पातालपुरी, रोहिणी, गांधार इत्यादि राज्य राजा महिदन्त के अधीन थे।  इनका जो राजकोष था वह लंका में था और महाराजा शिव उनके सहायक रहते थे।  एक समय पुलस्त्य ऋषि ने महाराजा शिव से निवेदन करके लंका में एक स्थान नियुक्त किया, वह स्वर्ण का गृह था जिसमें पुलस्त्य ऋषि विश्राम किया करते थे।  कुछ समय के पश्चात ऐसा हुआ की लंका का स्वामी कुबेर बन गया और भी सब राजाओं ने अपने - अपने राष्ट्र को अपना लिया।  पातालपुरी को कुधित रूष्ठित नाम के राजा ने अपना लिया और भार्तिक नाम के राजा ने सौमधित राज्य को अपना लिया।  राजा महिदन्त का सूक्ष्म सा राष्ट्र रह गया।  
राजा महिदन्त के न कोई पुत्र था, न कन्या थी।  कुछ समय के पश्चात ऐसा सुना गया कि राजा

महिदन्त के एक कन्या उत्पन्न हुई तो राजा ने बड़ा ही आनंद मनाया, नाना वेदों के पाठ कराये, जन्म संस्कार बड़े उत्सव से कराया।  उसके पश्चात कन्या जब कुछ प्रबल हुई तो महाराजा की धर्मपत्नी सुरेखा ने कहा कि हे भगवन! इस कन्या को तो गुरुकुल में जाना चाहिए, जिससे यह विद्या पाकर परिपक्व हो जाये।  उस समय महाराजा महिदन्त अपनी धर्मपत्नी  की याचना को पाकर, उस कन्या को लेकर कुल-पुरोहित महर्षि तत्व मुनि महाराज के समक्ष पहुंचे।  वहां पहुंचकर राजा और कन्या ने महर्षि के चरणों को स्पर्श किया और राजा ने कहा कि भगवन! मेरी कन्या को यथार्थ विद्या दीजिए जिससे यह हर प्रकार की विद्या में सफल होवे। 

महर्षि बाल्मीकि ने इस सम्बन्ध में ऐसा वर्णन किया है कि राजा महिदन्त तो अपने स्थान पर चले गए और ऋषि ने उस कन्या को शिक्षा देनी प्रारम्भ कर दी।  शिक्षा पाते - पाते वह कन्या बड़ी महान बनी और विद्या में बहुत ऊँची सफलता प्राप्त की।  वह भौतिक यज्ञ और कर्मकाण्ड में प्रकाण्ड हो गयीं।  वह वेदों का हर समय स्वाध्याय करती थीं।  उस समय ऋषि ने अपने मन में सोचा कि यह कन्या तो क्षत्रिय की है परन्तु इसके गुणों को देखते हैं तो ब्राह्मण कुल में जाने योग्य है।  अब क्या करना चाहिए? ऋषिवर यहीं नित्य प्रति विचारा करते थे।  कुछ काल के पश्चात वह कन्या युवा हो गयी।  जैसे पूर्णिमा का चन्द्रमा परिपक्व होता है, वह कन्या अपने ब्रह्मचर्य से परिपक्व थी।  राजा ने अपनी धर्मपत्नी के कथनानुसार ऋषि से जाकर प्रार्थना की, कि भगवन! अब कन्या को गृह में ले जाना चाहते हैं।  अब इसका संस्कार भी करना चाहिए।  मुझे नियुक्त कीजिए कि मेरी कन्या कौन से गुण वाली है , किस वर्ण में इसका संस्कार होना चाहिए? उस समय ऋषि ने कहा कि भाई! तुम्हारी कन्या तो ऋषिकुल में जाने योग्य है, आगे तुम किसी के द्वारा इसका संस्कार करो, हमें कोई आपत्ति नहीं।  राजा वहां से उस ब्रह्मचारिणी को लेकर राज गृह आ पहुंचे। 

हमारे यहाँ यह परिपाटी है कि जब ब्रह्मचारिणी या ब्रह्मचारी गुरुकुल से आये तो माता-पिता यजन और ब्रह्मभोज कर उनका स्वागत करें।  उसी प्रकार माता-पिता ने उस कन्या का यथाशक्ति स्वागत किया।  स्वागत करने के पश्चात पत्नी ने अपने पति से कहा कि महाराज! अब तो हमारी कन्या युवा हो गयी है, इसके संस्कार का कोई कार्य करो।  महाराज नित्यप्रति भ्रमण करने लगे।  भ्रमण करते-करते पुलस्त्य ऋषि के पुत्र मनीचन्द के द्वार जा पहुंचे।  मनीचन्द के एक पुत्र था जो ४८ वर्ष का आदित्य ब्रह्मचारी था।  वह वेदों का महान प्रकांड विद्वान था।  महाराज ने मनीचन्द से निवेदन किया कि महाराज! मेरी कन्या को स्वीकार कीजिए, मैं तुम्हारे पुत्र से अपनी कन्या का संस्कार करना चाहता हूँ।  उस समय मनीचन्द ने कहा कि महाराज! हमारे ऐसे सौभाग्य कहाँ हैं जो इतनी तेजस्वी कन्या हमारे कुल में आये।  बालक वरुण ने और माता-पिता ने उस सम्बन्ध को स्वीकार कर लिया।  राजा मग्न होते हुए अपने घर आ पहुंचे।

नक्षत्रों के अनुकूल समय नियुक्त किया गया।  कुछ समय के पश्चात वह दिवस आ गया।  मनीचन्द अपने पुत्र से बोले कि हे पुत्र! आदि ब्राह्मण जनों का समाज होना चाहिए।  जिस कन्या का, जिस पुत्री का, जिस पुत्र का, वेद के विद्वानों में, विद्वत मण्डल में संस्कार होता है, उसका कार्य हमेशा पूर्ण हुआ है।  उस समय नाना ऋषिओं को निमंत्रण दिया गया।  निमंत्रण के पश्चात विद्वत् समाज वहाँ से नियुक्त हो राजा महिदन्त के समक्ष आ पहुंचा।  राजा महिदन्त ने देखा कि बड़ा विद्वत् मण्डल है।  राजा ने यथाशक्ति स्वागत किया।  ऋषिओं की परिपाटी के अनुकूल ब्रह्मचारिणी अपने पति का स्वयं सत्कार करने जा पहुंची।  नाना मणियों से गुंथी हुई पुष्प मालाएं तथा नाना प्रकार की मेवाएं, उस कन्या ने उनके समक्ष नियुक्त  कीं, न उन्होंने वह स्वीकार कर लीं।  इस प्रकार राजा ने अपने सम्बन्धिओं का यथा शक्ति स्वागत किया, स्वागत के पश्चात यथा स्थान पर विराजमान किया गया।  सायं काल कन्या के संस्कार का समय हो गया।  बड़े आनंद के साथ वहां संस्कार होने लगा, बुद्धिमानों के वेदमंत्र होने लगे।  ब्रह्मचारी अपने वेदमंत्रों का गान गा रहा था ब्रह्मचारिणी अपने वेदमंत्र गा रही थी, भिन्न भिन्न स्थानों पर वेदों के गान गाए जा रहे थे . बड़ी आशानंदी से वह संस्कार समाप्त हो गया।

अगला दिवस आ गया।  उस समय शरद वायु चल रही थी।  उसके कारण बालक के सम्बन्धी  स्नान नहीं कर रहे थे।  उस बालक ने कहा अरे! तुम स्नान क्यों नहीं कर रहे हो? उन्होंने कहा स्नान क्या करें, शरद वायु चल रही है।  उस समय उस बाल ब्रह्मचारी ने, जो वेदों का ज्ञाता था, जो विज्ञान की मर्यादा को जानता था, उसने प्रणाम किया और कहा के हे वायुदेव! तुम हमारे कार्य में विघ्न डाल रहे हो, कुछ समय के लिये शांत हो जाओ।  उस समय उस ब्रह्मचारी के संकल्पों द्वारा वायु कुछ धीमी हो गयी।  सभी सम्बन्धिओं ने स्नान किया।  नाना सम्बन्धी स्नान कर अपने-अपने स्थानों पर नियुक्त हो गए।

इसके पश्चात द्वितीय समय आया और वहां से सब अपने-अपने गृह को जाने लगे तो उस समय \राजा महिदन्त ने यथाशक्ति सभी का स्वागत किया।  जब कन्या जाने लगी तो एक ने कहा के अरे भाई! यह पुत्र  इतना योग्य था परन्तु राजा महिदन्त ने अच्छी प्रकार स्वागत नहीं किया।  उस समय राजा महिदन्त व्याकुल होने लगे।  उन्होंने व्याकुल  होकर कहा कि हे सम्बन्धियों! मैं क्या करूँ? मेरा तो यह काल ही ऐसा है।  कोई समय था जब चक्रवर्ती राज्य था।  अब तो जितना द्रव्य था, सब लंका चला गया, महाराजा कुबेर उसका स्वामी बन गया है।  उस समय इन वार्ताओं को स्वीकार कर सबने अपने-अपने स्थान की और प्रस्थान किया।

उस बालक ने अपने गृह पहुँच कर सोचा कि मेरे सम्बन्धी ने जो यह कहा है कि मेरी लंका को कुबेर ने विजय कर लिया है तो मुझे कुबेर से लंका को विजय करना है।  बुद्धिमान सर्वत्र पूज्य होता है।  पुलस्त्य ऋषि महाराज का पौत्र था, इसलिए वह जिस राष्ट्र में जाता था उसका स्वागत होता था।  जो स्वागत में कुछ देता तो ब्रह्मचारी उससे मांगते १० हज़ार सेना मुझे दो जिससे कि मेरा काम बने।  इस प्रकार प्रत्येक राज्य से दस-दस हज़ार सेना एकत्र करके उसने लंका पर हमला किया और राजा कुबेर को जीत लिया।  उस समय राजा कुबेर ने कहा था कि अरे भाई! तुम मुझे क्यों विजय कर रहे हो? उस समय उस महान ब्रह्मचारी ने कहा था कि कुबेर! मैं तेरे राष्ट्र में शांति नहीं देख रहा हूँ।  जिस काल में जिस राजा की प्रजा शान्त न हो, उस समय उस राजा को पद से गिरा देना धर्म है और उसके स्थान पर शांतिदायक, आत्मज्ञानी को, जो प्रजा को यथार्थ सुख-शान्ति  देने वाला हो, राजा बनाना चाहिए।

राजा कुबेर को लंका से पृथक कर वह बालक वरुण राजा महिदन्त के सम्मुख आ पहुंचा और उनसे बोला कि महाराज! मैंने लंका को विजय कर लिया है, आप अपनी लंका को स्वीकार कीजिए।  उस समय राजा महिदन्त ने कहा कि हे ब्रह्मचारी लंका को तुमने विजय किया है, मुझे स्वीकार है परन्तु स्वीकार करके मैंने यह लंका अपनी कन्या के दहेज में तुम्हें अर्पण कर दी।

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आपका
भवानन्द आर्य 'अनुभव'

1 टिप्पणी:

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