उपासना दो प्रकार की होती है - एक सगुण व दूसरी निर्गुण। उनमें से शुक्र अर्थात जगत का रचने वाला, वीर्यवान तथा शुद्ध, कवि, मनीषी, परिभू और स्वयंभू इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुन है और अकाय, अव्रण, अस्नाविर इत्यादि गुणों के निषेध होने से वह निर्गुण कहाता है।
तथा एक देव इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुन और निर्गुणश्च कहने से निर्गुण समझा जाता है।
तथा ईश्वर के सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शुद्ध, सनातन, न्यायकारी, दयालु, सब में व्यापक, सब का आधार, मंगलमय, सब की उत्पत्ति करनेवाला और सब का स्वामी इत्यादि सत्यगुणों के ज्ञानपूर्वक उपासना करने को सगुणोपासना कहते हैं। और वह परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता, निराकार अर्थात आकारवाले कभी नहीं होता, अकाय अर्थात शरीर कभी नहीं धारता, अव्रण अर्थात जिसमें छिद्र कभी नहीं होता, जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धवाला कभी नहीं होता, जिसमें दो, तीन आदि संख्याओं की गणना कभी नहीं बन सकती, जो लम्बा, चोडा, हल्का, भारी आदि कभी नहीं होता, इत्यादि गुणों के निवारणपूर्वक उसका स्मरण करने को निर्गुण उपासना कहते हैं।
तथा एक देव इत्यादि गुणों के सहित होने से परमेश्वर सगुन और निर्गुणश्च कहने से निर्गुण समझा जाता है।
तथा ईश्वर के सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, शुद्ध, सनातन, न्यायकारी, दयालु, सब में व्यापक, सब का आधार, मंगलमय, सब की उत्पत्ति करनेवाला और सब का स्वामी इत्यादि सत्यगुणों के ज्ञानपूर्वक उपासना करने को सगुणोपासना कहते हैं। और वह परमेश्वर कभी जन्म नहीं लेता, निराकार अर्थात आकारवाले कभी नहीं होता, अकाय अर्थात शरीर कभी नहीं धारता, अव्रण अर्थात जिसमें छिद्र कभी नहीं होता, जो शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धवाला कभी नहीं होता, जिसमें दो, तीन आदि संख्याओं की गणना कभी नहीं बन सकती, जो लम्बा, चोडा, हल्का, भारी आदि कभी नहीं होता, इत्यादि गुणों के निवारणपूर्वक उसका स्मरण करने को निर्गुण उपासना कहते हैं।
ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका
(उपासना विषय १४ )
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