बेटा ! देखो, बहुत पुरातन काल हुआ जब मैंने ऋषि मुनियों के मध्य विद्यमान होकर यह अमृतों में पान किया कि अमृताम देवो ब्रह्मणा व्रहा यह संसार रूढ़ि और योगिकता में परिणत रहता है। और यदि विशेष रूढ़ियाँ बन जाती हैं तो वह रूढ़ि इतनी अज्ञानता में परिणत होती हैं कि मानव दर्शन का अभाव हो जाता है। जब मानव दर्शन का अभाव हो जाता है तो राष्ट्रवाद की प्रणाली भ्रष्ट हो जाती है। राष्ट्रवाद की प्रणाली भ्रष्ट होने पर उस प्रणाली में अशुद्धियाँ आ जाने के कारण राष्ट्रवाद अपने अपने स्वार्थ में परिणत हो करके वह राष्ट्र और समाज अग्नि के काण्ड बन कर के रह जाते हैं। विचार आता रहता है कि यह रूढ़ियाँ विशेष नहीं पनपनी चाहियें। मेरे प्यारे महानंद जी ने मुझे कई कालों में वर्णन करते हुए यह कहा था कि राष्ट्रवाद में ईश्वर नाम पर रूढ़ि नहीं रहनी चाहिए। ईश्वर के नाम पर तो रूढ़ि होती ही नहीं, जब भी रूढ़ि आती है तो वह अज्ञानता के कारण आती है। यदि ईश्वर के नाम पर रूढ़ि बनती है तो वह अज्ञानता के मूल में बना करती है, दर्शनों के अभाव में बनती है। इसलिए हम उस रूढ़िवाद के लिए प्रायः परम्परागतों से अपनी विचारधारा प्रकट करते रहे हैं। और अपना यह विचार देते रहे हैं कि ईश्वर के नाम पर रूढ़ियाँ नहीं रहनी चाहियें।
मुझे महानंद जी ने बहुत पुरातन काल में वर्णन करते हुए कहा था कि राजा रावण के काल में ईश्वर के नामों पर भिन्न भिन्न प्रकार की रूढ़ियाँ बन गयीं थीं। पिता कहीं रूढ़ि को लिए हुए है और पुत्र कहीं रूढ़िवादी बन रहा है। मानों माता कहीं रूढ़िवादी है तो पुत्री कहीं है। इस प्रकार का रूढ़िवाद राजा रावण के काल में हुआ था और ईश्वर के नाम के ऊपर उस रूढ़ि का परिणाम यह हुआ कि लंका अग्नि का काण्ड बन कर रह गयी। आज भी हमारा जो विचार है, वह रूढ़ियों के ऊपर निर्धारित है। और हम यह वर्णन करते रहते हैं कि प्रभु से प्रार्थना करो कि हमारे जीवन में रूढ़ि न रहे।
जो ईश्वर का उपासक नहीं होता है वही रूढ़िवाद में परिणत हो जाता है।
ब्रह्मचारी कृष्ण दत्त जी महाराज के प्रवचन से
(अश्वमेध याग और चंद्र सूक्त , पेज ४८, द्वितीय संस्करण सितम्बर २००६ से )
आपका
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा
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