ओ३म्
(साभार - ब्रह्मचारी कृष्ण्दत्त जी 'पूर्व श्रृंगी ऋषि')
१. मानव को कार्य करने से पूर्व उसका महान विधान बना लेना चाहिए।
२. गम्भीरता उसी काल में आती है जब मानव अपनी त्रुटियों को देखने लगता है।
३. सबसे पूर्व अभिमान को त्यागना है।
४. संसार में वहीँ मानव सुख पाता है जो किसी का हो जाता है।
५. यह मन प्रकृति से बनता है।
६. आज मानव को प्रत्येक इंद्रिय पर अनुसंधान करना है।
७. योगी बनने के लिये सबसे प्रथम अपने विचारों को महान बनाना है।
८. बिना त्याग और तपस्या के योगी बनना मानव का केवल स्वप्न मात्र है।
९. योगिक क्रियाओं के लिए सबसे प्रथम अपने विचारों को यथार्थ बनाना है।
१०. योगी बनने के लिए आज हमें धारणा , ध्यान, समाधियों में लय होना होगा।
११. आत्मा की दो महान सत्तायें स्वाभाविक हैं।
१२. आत्मा का जो ज्ञान स्वाभाविक है उसको जानने के लिये वेद विद्या का प्रसार करना, वेद विद्या को ग्रहण करना पड़ेगा।
१३. बिना शरीर के ये आत्मा एक क्षण भर भी नहीं रहता?
१४. वेद वाणी का उच्चारण उस काल में सफल होता है जब हम उसके अनुकूल अपने आचरण को बना लेते हैं।
१५. अन्तः करण वह स्थान है जिसमे मानव के जन्म जन्मांतरों के संस्कार विराजमान रहते हैं।
१६. जैसी भी यहाँ भावनायें हों, जैसे भी कर्म करके जायेंगे, उसी के अनुकूल हमें जन्म प्राप्त हो जाता है।
१७. जिस पद के तुम अधिकारी हो या तुम्हें चुना गया है, वह चाहे तुम्हारे लिये हानिकारक है परन्तु तुम्हारा कर्त्तव्य है कि उसका पूर्ण रूपेण पालन करो। उसको हानि न पहुँचाओ यदि लाभ हानि पहुँचाओगे तो तुम्हें कोई भी लाभ प्राप्त न होगा।
आपका अपना
ब्रह्मचारी अनुभव शर्मा 'भवानन्द'
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